अंतरराष्ट्रीय समझौता रद्द किए बिना क्या मढौरा फैक्ट्री बंद करना संभव होगा?
यह जानते हुए भी कि मढौरा फैक्ट्री बंद नहीं हो सकती, कैसे दिया गया आदेश?
क्या यह एक छलावा है और बंद तो वास्तव में डीएलडब्ल्यू फैक्ट्री को करना है?
12 करोड़ प्रति इंजन के बजाय 20 करोड़ में जनरल इलेक्ट्रिक से खरीदे जाएंगे इंजन!
जीई को लाभ पहुंचाने हेतु डीएलडब्ल्यू और मढौरा फैक्ट्रियों को बंद करने का लिया गया निर्णय?
सुरेश त्रिपाठी
नए रेलमंत्री पीयूष गोयल ने 7 सितंबर को उत्तर रेलवे मुख्यालय, बड़ौदा हाउस में रेलवे बोर्ड के सभी वरिष्ठ अधिकारियों और सदस्यों के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक की. इस बैठक में उन्होंने रेल संरक्षा में सुधार के विभिन्न उपायों सहित अन्य कई दिशा-निर्देश निर्गत किए. इसी बैठक में रेलमंत्री ने जोनल रेलों और रेलवे बोर्ड के सभी विभाग प्रमुखों के नए पदनामों सहित रिपोर्टिंग से संबंधित चेयरमैन, रेलवे बोर्ड का भार भी कम किया और इसके साथ ही उन्होंने मढौरा प्रोजेक्ट,जिसके अंतर्गत अमेरिकन बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘जनरल इलेक्ट्रिक’ (जीई) के साथ एक हजार डीजल इंजन बनाने का अंतरराष्ट्रीय समझौता पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु के रेलमंत्रित्व काल में ही रेल मंत्रालय ने किया है, को भी बंद करने का आदेश दे दिया है.
यही नहीं, रेलमंत्री पीयूष गोयल ने तुरंत प्रभाव से सभी डीजल इंजनों का निर्माण और पुनर्स्थापन बंद करने सहित नए डीजल इंजनों के बुनियादी रख-रखाव में नए निवेश को भी तत्काल रोक देने का आदेश दिया है. यह काम मेंबर ट्रैक्शन, रेलवे बोर्ड को सौंपा गया है, जिनके पास नए कार्य-आवंटन के अनुसार डीजल एवं विद्युत् इंजनों के उत्पादन और रख-रखाव का प्रभार है. इसके अलावा रेलमंत्री ने वर्ष 2020 तक न सिर्फ पूरी भारतीय रेल का विद्युतीकरण किए जाने, बल्कि एलएचबी कोचों का उत्पादन दो गुना करने का भी लक्ष्य तय कर दिया है. परंतु यह सब संभव कैसे होगा, खासतौर पर मढौरा डीजल फैक्ट्री को बंद करना, यह स्पष्ट नहीं किया गया है, बल्कि फाइलों में इसका निर्णय शीघ्र करने को कहा गया है.
उल्लेखनीय है कि पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु के कार्यकाल में मढौरा में 1000 डीजल इंजनों के उत्पादन हेतु अमेरिकन बहुराष्ट्रीय कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के साथ और मधेपुरा में 1000 विद्युत् इंजनों के उत्पादन के लिए फ्रांस की बहुराष्ट्रीय कंपनी अल्स्टोम के साथ रेल मंत्रालय का समझौता हुआ था. इस समझौते के अंतर्गत मढौरा एवं मधेपुरा में उक्त दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा रेल इंजन फैक्ट्रियां स्थापित किए जाने के लिए 20-20 हजार करोड़ रुपये का निवेश भी किया जाना है. इस समझौते के तहत रेल मंत्रालय, भारत सरकार ने उक्त दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उनके सभी उत्पादों यानि सभी इंजनों की खरीद की ‘बाई-बैक गारंटी’ भी दी है. इन दोनों समझौतों में भारत सरकार के साथ अमेरिका और फ्रांस की दोनों सरकारें भी शामिल हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में डीजल लोकोमोटिव वर्क्स (डीएलडब्ल्यू), वाराणसी में उत्पादित एक डीजल रेल इंजन की लागत 12 करोड़ रुपये है, जबकि रेल मंत्रालय यही एक डीजल लोको मढौरा की जनरल इलेक्ट्रिक फैक्ट्री से 20 करोड़ रुपये में खरीदेगा. इस खरीद के बाद इंजनों का रख-रखाव (मेंटेनेंस) भी उक्त दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ही किया जाना है. यह भी उक्त समझौते में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है.
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि उपरोक्त दोनों रेल इंजन निर्माण परियोजनाएं शायद विश्व की पहली और सबसे बड़ी लोको आउट सोर्सिंग परियोजनाएं हैं. ऐसे में रेलमंत्री के निर्णय से यह सवाल पैदा होता है कि आखिर वह किसको फेवर करना चाहते हैं? हालांकि उनके निर्देश का निहितार्थ बहुत स्पष्ट है, और वह यह है कि वे मढौरा डीजल फैक्ट्री के फेवर में हैं. जबकि उन्होंने इसके साथ ही न सिर्फ डीएलडब्ल्यू को भी बंद करने का निर्देश दिया है, बल्कि डीजल इंजनों के निर्माण एवं पुनर्स्थापन सहित इनके रख-रखाव में हो रहे निवेश को भी तत्काल प्रभाव से रोक देने को कहा है. तथापि, यह दोनों बातें एक साथ संभव ही नहीं हैं. यह तथ्य उनके साथ ही रेलवे बोर्ड को भी बखूबी ज्ञात है. परंतु इसके निहितार्थ भी बहुत स्पष्ट हैं. वह यह कि इस बहाने डीएलडब्ल्यू रेल इंजन फैक्ट्री बंद हो जाएगी, क्योंकि तब उनके पास यह कहकर स्वयं के बचाव का बहाना तैयार रहेगा कि मढौरा फैक्ट्री को अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत बंद नहीं किया जा सकता है.
डीएलडब्ल्यू के बंद होने का सीधा लाभ मढौरा की डीजल रेल इंजन फैक्ट्री को मिलेगा, जो कि समझौते के अंतर्गत जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी द्वारा स्थापित की जा रही है. इसी प्रकार निकट भविष्य में यही तरीका चितरंजन, पश्चिम बंगाल स्थित चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स (सीएलडब्ल्यू) के लिए भी अपनाया जाएगा, जिसका फायदा अंततः मधेपुरा स्थित विद्युत् इंजन फैक्ट्री को मिलेगा, जिसकी स्थापना फ्रांस की अल्स्टोम कंपनी द्वारा की जा रही है. ऐसा लगता है कि वर्तमान केंद्र सरकार देश की जनता को मूर्ख समझने की भूल कर रही है, जबकि उसे सच्चाई के साथ पेश आना चाहिए. सरकार को लगता है कि इस तरह के प्रपंच से देश की जनता को गुमराह किया जा सकता है. जबकि यह सर्वविदित है कि वह अंतरराष्ट्रीय समझौते से मुकर नहीं सकती है. और यदि वह ऐसा करने का कोई भी प्रयास करती है, तो अमेरिकी सरकार उस पर चढ़ दौड़ेगी. तब अमेरिका के साथ प्रगाढ़ हो रहे संबंधों का क्या होगा? इसके अलावा यह भी सर्वज्ञात है कि केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय में रहते हुए वर्तमान रेलमंत्री के संबंध जनरल इलेक्ट्रिक (अमेरिकन जनरल मोटर्स ग्रुप) के साथ अत्यंत प्रगाढ़ रहे हैं. अतः यह स्पष्ट है कि मढौरा फैक्ट्री बंद नहीं हो सकती, होगी तो यह डीएलडब्ल्यू ही होगी.
ऐसे में यह स्पष्ट हो रहा है कि जब डीएलडब्ल्यू फैक्ट्री बंद हो जाएगी, तभी मढौरा से डीजल इंजनों की पूरी खरीद हो पाएगी. इस तरह यह भी सिद्ध हो जाएगा सरकार और रेलमंत्री जनरल इलेक्ट्रिक को फेवर करना चाहते हैं. इसीलिए यह कहा गया है कि डीजल इंजनों का निर्माण बंद करने के साथ मढौरा की फैक्ट्री भी बंद कर दी जाए. यह जानते हुए भी कि यह संभव नहीं है. परंतु ऐसा करके सरकार या रेलमंत्री यह दर्शाना चाहते हैं कि दोनों में से सिर्फ एक ही फैक्ट्री बंद हो सकती है, इसलिए जो बंद होगी वह डीएलडब्ल्यू होगी, मढौरा नहीं. अब यह सारा प्रहसन तीन-चार महीनों की फाइल-बाजी के साथ चलेगा. उल्लेखनीय है कि वर्तमान रेलमंत्री ने अपना पदभार संभालने के तुरंत बाद रेल अधिकारियों के साथ हुई अपनी पहली ही बैठक में डीएलडब्ल्यू में डीजल रेल इंजनों का उत्पादन तत्काल प्रभाव से बंद करने का निर्देश दे दिया था.
यह सब करते हुए सरकार को रेलवे के मान्यताप्राप्त श्रमिक महासंघों की भी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि एक तो दोनों श्रमिक महासंघ आपस में ही बुरी तरह बंटे हुए हैं. श्रमिक हितों के लिए भी वह एक साथ मिलकर चलने को तैयार नहीं हैं. यही वजह है कि सरकार इन श्रमिक महासंघों को कोई घास नहीं डाल रही है. रोजगार बढ़ाने के वादे के बावजूद सरकार के निर्णय के तहत दोनों रेल इंजन फैक्ट्रियों के बंद होने से लगभग 10 हजार रेलकर्मी बेरोजगार हो जाएंगे. सरकार कह सकती है कि इतने ही रोजगार मढौरा और मधेपुरा में पैदा होंगे, परंतु इसकी कोई गारंटी नहीं है, यह भी सही है. ऐसे में अपने-अपने अहंकार के कारण दोनों श्रमिक महासंघों की ‘एकला-चलो’ की नीति के चलते बड़े पैमाने पर श्रमिक हितों की अनदेखी होने जा रही है. अभी तो यह एक बड़ी शुरुआत है, क्योंकि इससे पहले कई रेल-कार्य निजी क्षेत्र को चले गए हैं और श्रमिक महासंघ कुछ नहीं कर पाए, इसके बाद भारतीय रेल की सभी उत्पादन इकाईयों सहित इसके सभी लोको शेड, परेल-माटुंगा जैसे सभी बड़े रेलवे वर्कशॉप इत्यादि भी घरेलू या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपे जाने हैं. यदि श्रमिक महासंघों का आपसी संघर्ष और द्वेष इसी तरह चलता रहा, तो उनका अस्तित्व भी जल्दी ही ठीक उसी प्रकार निष्क्रिय हो जाएगा, जिस प्रकार रेलवे के मान्यताप्राप्त अधिकारी महासंघों का अस्तित्व पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है.