अरबों रुपये के पदोन्नति घोटाले पर अदालत का बड़ा फैसला
रेलवे बोर्ड के लापरवाह रवैये ने पैदा की डेडलॉक की स्थिति
सुप्रीम कोर्ट से भी फिलहाल नहीं मिल पाई प्रमोटी अधिकारियों को कोई राहत
रेलवे बोर्ड के रवैये से नाराज अदालत ने सीआरबी और सेक्रेटरी को तलब किया
रेलवे के वकीलों के लिखित हलफनामे और माफी के बाद शो-कॉज में परिवर्तित
पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी जैसे महारथी उतरे इस न्याय के महासंग्राम में
सुरेश त्रिपाठी
केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट), पटना में चल रहे अदालत की अवमानना के मामले पर सुनवाई के दौरान अचानक उस समय अफरा-तफरी मच गई, कोर्ट रूम में अचानक एकदम शांति छा गई, जब अदालत ने रेलवे बोर्ड के रवैये से तंग आकर चेयरमैन, रेलवे बोर्ड (सीआरबी) और सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड को सुनवाई के दौरान व्यक्तिगत रूप से अदालत के समक्ष तत्काल हाजिर होने का फरमान जारी कर दिया. यह सुनते ही रेलवे के विधि अधिकारी सहित रेलवे पैनल के सभी वकीलों के भी होश उड़ गए. आनन-फानन में सीपीओ और डीजीएम/लॉ ऑफिस से विचार-विमर्श के उपरांत लिखित हलफनामे के साथ अदालत से माफी मांगते हुए रेलवे के वकीलों ने आदेश पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया. तत्पश्चात अदालत ने नरमी दर्शाते हुए ‘पर्सनल हियरिंग’ को ‘कारण बताओ नोटिस’ में परिवर्तित किया.
अदालत ने 29 अगस्त 2017 को ‘आर. के. कुशवाहा बनाम ए. के. मितल’ मामले में निर्गत आदेश को अमल में लाकर रेलवे बोर्ड से चार हफ्तों के अंदर जवाब मांगा है. इस पर अगली सुनवाई 5 अक्टूबर को तय की गई है. हालांकि आज 26 सितंबर तक, यानि लगभग एक महीना बीत जाने के बाद भी, रेलवे बोर्ड की तरफ से अदालत के आदेश के पालन पर कोई कदम नहीं उठाया गया है, क्योंकि अब तक रेलवे बोर्ड की तरफ से अदालत में कोई जवाब दाखिल नहीं किया गया है. यदि इस बार भी रेलवे बोर्ड द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, तो अदालत के रुख देखते हुए 5 अक्टूबर को सीआरबी और सेक्रेटरी की पर्सनल हियरिंग होना निश्चित है.
प्रमोटी प्रेम में अब भी दिग्भ्रमित है रेलवे बोर्ड
रेलवे बोर्ड के हमारे विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है कि पटना हाई कोर्ट के आदेश, जिसके अनुपालन में भारतीय रेल स्थापना नियमावली (आईआरईएम) में संशोधन किया जाना है, के मद्देनजर उस नोटिंग पर विधि विभाग (लीगल डिपार्टमेंट) की सहमति मांगी गई है. प्रमोटी प्रेम में आंखें बंद करके दिग्भ्रमित होने का नाटक कर रहे रेलवे बोर्ड के संबंधित अधिकारियों को यह क्यों नहीं समझ में आ रहा है कि डीओपीटी द्वारा जो ओ. एम. दि. 4 मार्च 2014 को निर्गत किया गया था, वह सुप्रीम कोर्ट के एन. आर. परमार मामले में निर्गत दिशा-निर्देश पर जारी किया गया था तथा उक्त ओ. एम. में भी स्पष्ट लिखा गया है कि जारी करने से उस पर पहले विधि विभाग की सहमति ले ली गई है.
इसके बावजूद रेलवे बोर्ड के कुछ धूर्त स्थापना अधिकारी ‘डिले टैक्टिस’ अपनाकर कर्तव्यनिष्ठ और न्यायप्रिय सीआरबी को बलि का बकरा बनाना चाह रहे हैं. अर्थात जिस ओ. एम. को जारी करने से पहले ही उस पर विधिक सहमति (लीगल ओपिनियन) ले ली गई थी, उसे दोबारा लीगल सेल को भेजे जाने का यही मतलब है कि रेलवे बोर्ड के कुछ धूर्त स्थापना अधिकारी आज भी प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन के साथ साठ-गांठ करके पटना हाई कोर्ट के निर्णय को लागू किए जाने में न सिर्फ जानबूझकर देरी कर रहे हैं, बल्कि निर्धारित समय पर अदालत को जवाब न देकर वह सीआरबी सहित समस्त रेलवे बोर्ड को अदालत के समक्ष शर्मशार करवाना भी चाह रहे हैं.
रेलवे के खजाने पर मुकुल रोहतगी की पड़ी नजर
टीयर-1 जैसे महंगे वकीलों में शुमार भारत के पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी को रेल अधिकारियों की इस न्याय की जंग में अंततः उतरना ही पड़ा. रेलवे के युवा अधिकारियों द्वारा ऐसे प्रभावशाली वकील को मैदान में उतारना इस बात का संकेत है कि युवा अधिकारी अब ‘करो या मरो’ का निर्णय ले चुके हैं. ‘रेलवे समाचार’ द्वारा पदोन्नति घोटाले का पर्दाफाश किए जाने और अपने ही घर में न्याय नहीं मिलने से युवा अधिकारी अब किसी भी हद तक जाने को आमादा हैं. अतः सुप्रीम कोर्ट में ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों और ग्रुप ‘ए’ युवा अधिकारियों के बीच जबरदस्त टक्कर होने की संभावना दिख रही है, क्योंकि रेलवे की आठो संगठित सेवाओं के युवा अधिकारी एकजुट होकर अब इस पूरे मामले को इसके अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने का निर्णय ले चुके हैं.
प्रमोटी अधिकारियों को नहीं मिली सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत
अपनी खरीद-फरोख्त, जोड़तोड़, सेवा-आपूर्ति इत्यादि क्षमताओं की बदौलत रेलवे के सारे नियमों को बौना कर चुके प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन के पदाधिकारियों और तथाकथित सलाहकारों को सुप्रीम कोर्ट से गहरा झटका लगा है. इनके वकीलों द्वारा पटना हाई कोर्ट के आदेश पर की गई स्थगनादेश (स्टे) की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. मुकुल रोहतगी की उपस्थिति और सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्टे की मांग खारिज किए जाने के इस फैसले ने युवा अधिकारियों का न सिर्फ पलड़ा भारी कर दिया है, बल्कि उनका मनोबल भी काफी बढ़ा दिया है. अब गेंद युवा अधिकारियों के पाले में है, क्योंकि स्टे नहीं मिलने की स्थिति में यदि वह चाहें तो मामले को चार-पांच साल तक खींचकर और अवमानना मामले में दबाव बनाकर अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं अथवा जल्दी-जल्दी सुनवाई करवाकर पूरे मामले पर स्थायित्व ला सकते हैं.
रेलवे बोर्ड द्वारा पूर्व की भांति इस बार भी वही ‘डिले टैक्टिस’ वाली रणनीति अपनाई जाती दिखाई दे रही है. जैसे कि रेलवे बोर्ड द्वारा पटना हाई कोर्ट में न कोई अपील की गई, और न ही कोई लिखित जवाब दाखिल किया गया था, और न ही रेलवे की तरफ से पटना हाई कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. शायद ऐसा ही रवैया सुप्रीम कोर्ट में भी अपनाने की रणनीति बनती दिखाई दे रही है. अर्थात रेलवे बोर्ड न्याय के इस महासंग्राम में मूकदर्शक बनकर मजे लेते हुए दिखाई दे रहा है. इसका मतलब यह है कि अरबों रुपये के अधिकारी पदोन्नति घोटाले में रेलवे बोर्ड की पहले से ही मिलीभगत रही है, और अब वह इस मामले में मूकदर्शक रहकर ही अपनी उक्त मिलीभगत के और ज्यादा उजागर होने तथा सुप्रीम कोर्ट में अपनी छीछालेदर करवाने से बचा रह सकता है.
चारों ओर से मुंह की खा चुके इंडियन रेलवे प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन (इरपोफ) के पदाधिकारी और तमाम प्रमोटी अधिकारी अब तक अपने तथाकथित सलाहकार के भुलावे में रहकर न सिर्फ अपना काफी नुकसान कर चुके हैं, बल्कि उनके समक्ष अब ग्रुप ‘ए’ युवा अधिकारियों के साथ समझौता करने का सिर्फ एक ही रास्ता नजर आ रहा है. हालांकि इसकी भी संभावना नगण्य है, क्योंकि फेडरेशन ऑफ रेलवे ऑफिसर्स एसोसिएशन (एफआरओए) से ग्रुप ‘ए’ युवा अधिकारियों का मोह भंग हो चुका है और वे किसी भी स्थिति में इरपोफ के साथ समझौता करने वाले नहीं हैं. हालांकि 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में हुई प्राथमिक छीछालेदर के तत्काल बाद इरपोफ की तरफ से इस प्रकार के समझौते के प्रयास शुरू कर दिए जाने की भी खबर ‘रेलवे समाचार’ को मिली है. तथापि, अब तक दो स्तर पर जीतने के बाद और सुप्रीम स्तर पर भी जीतने की पूरी संभावना को देखते हुए युवा अधिकारियों ने ऐसे किसी समझौते की कल्पना से भी इंकार किया है.
इरपोफ के पदाधिकारियों और सलाहकार के बीच पैदा हुए मतभेद
हालांकि चर्चा इस बात की भी है कि इरपोफ के महासचिव और उनके सलाहकार के बीच कोर्ट केस को लेकर गहरे मतभेद पैदा हो गए हैं. प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मतभेद 7-8 सितंबर को कोलकाता में दक्षिण पूर्व रेलवे द्वारा प्रायोजित इरपोफ की कार्यकारिणी की बैठक (ईसीएम) में तब उजागर भी हो गए, जब सलाहकार महोदय ने अपने वक्तव्य में कोर्ट केस वापस लेने की बात कहते हुए कहा कि उन्होंने बरास्ता गृहमंत्री राजनाथ सिंह रेलमंत्री सुरेश से बात करके सारा मामला ‘सेट’ कर दिया है. परंतु तभी इरपोफ के महासचिव ने अपने वक्तव्य में कोर्ट केस वापस न लिए जाने की बात कहकर उनकी बात को वहीं पर सिरे से खारिज कर दिया. जब वह यह बात कह रहे थे तभी सलाहकार महोदय मंच छोड़कर चले गए थे. इससे जाहिर है कि उनकी बात या सलाह से इरपोफ के महासचिव सहित ज्यादातर पदाधिकारी सहमत नहीं हैं और वह यह भी मान चुके हैं कि आज इरपोफ को जिस विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है वह सलाहकार महोदय की कथित सलाह और उनके द्वारा पूर्व में की गई जोड़तोड़ के कारण ही पैदा हुई है.
प्रेस कांफ्रेंस में भी सलाहकार के साथ नहीं दिखे महासचिव
सलाहकार महोदय के अहसानों से दबे पूर्व रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी द्वारा कोलकाता प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस के दौरान सलाहकार के साथ इरपोफ के अध्यक्ष एवं पूर्व रेलवे के कुछ अधिकारियों के अलावा इरपोफ का अन्य कोई पदाधिकारी उपस्थित नहीं था. जबकि इस मौके पर इरपोफ के महासचिव की ही अधिकृत भूमिका होनी चाहिए थी, मगर इस प्रेस कांफ्रेंस में सलाहकार महोदय के साथ वह उपस्थित नहीं हुए. इससे भी उनके बीच गहरे मतभेद होने की पुष्टि होती है. इसके अलावा प्रेस कांफ्रेंस को सलाहकार द्वारा संबोधित किया जाना न सिर्फ अत्यंत अटपटा है, बल्कि उनका इरपोफ की प्रत्येक बैठक में उपस्थित रहना और उसमें महासचिव को दरकिनार करके अग्रणी भूमिका निभाना भी इरपोफ के वर्तमान पदाधिकारियों की काबिलियत पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है.
उक्त ईसीएम में कोई कारगर निर्णय नहीं लिया गया, बल्कि इस ईसीएम के बहाने सभी जोनल रेलों से आए करीब सौ-सवा सौ प्रमोटी अधिकारियों की सिर्फ मौज-मस्ती हुई. ईसीएम में सांस्कृतिक कार्यक्रम के बहाने शराब और शबाब (कैबरे डांस) का दौर चलना ईसीएम के औचित्य पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है. ऐसे में सालाना चार-चार ईसीएम की अनुमति दिए जाने के बारे में रेलवे बोर्ड को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए कि इस बहाने रेलवे के कितने कीमती समय का नुकसान हो रहा है. प्रमोटी अधिकारियों के ही एक सोशल मीडिया ग्रुप से एक वरिष्ठ इरपोफ पदाधिकारी की लिखी हुई पोस्ट ‘रेलवे समाचार’ को प्राप्त हुई है, जिसको यहां ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है. इसे देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उक्त ईसीएम में क्या हुआ और क्या इस तरह ईसीएम का औचित्य सही साबित होता है?
Here is the post of one of the important office bearer of one Zonal POA for information and action there on by all..
IRPOF’s achievements in last one year, since September 2016 to September 2017
1. No DPC.
2. No DITS.
3. Anty-dating stopped.
4. No resolutions in ECM.
5. Withdrawal of adhoc Senior Scale policy.
6. Surrender of Senior Scale posts for 535 odd nos.
7. Stagnation in accounts engineering and personal deptt. for Group ‘A’ induction and Senior Scale in all deptts. mostly.
8. No Demands placed officially whether big or small. “Chhota demand to mangoge nahin aur bada kuchh to kar nahin paoge.”
9. No any action plan. No communication. No task force. All in oblivion.
10. Only to wait for Advisor, Secretary General and President to fight for us in Courts by collecting money from Zonal POAs, who have already got their Selection Grades in their carrier. We need to do something at our own for ourselves too, so we are here.
उपरोक्त तमाम वास्तविकताओं को देखते हुए अब यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय का ऊंट किस करवट बैठता है और जीत का सेहरा किसके सिर बंधता है? तथापि, प्रमोटी अधिकारियों के लिए अब अपने नेतृत्व पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है, क्योंकि वर्ष 2002-03 के बाद से जिस तरह की जोड़तोड़ करके अधिकारी पदोन्नति घोटाले को अंजाम दिया गया और जिस तरह से पूरी व्यवस्था की आंखों में धूल झोंककर निरस्त पदों को ‘बैक लॉग’ दिखाकर उन पर प्रमोटी अधिकारियों को पदोन्नति दी गई, यह पूरी व्यवस्था के साथ की गई बहुत बड़ी चीटिंग थी. यदि रेलवे बोर्ड अब भी इस चीटिंग को दुरुस्त नहीं करता है, तो अदालत के समक्ष उसे शर्मिंदा होना पड़ सकता है.