April 8, 2019

नए साल में रे.बो.को लेने होंगे छोटे मामलों पर बड़े निर्णय

कदाचारी अधिकारियों को किया जाए मुख्य पदों से दर-बदर

दस साल से ज्यादा टिके सभी रेलकर्मियों के हों तबादले, लागू हों सीवीसी के दिशा-निर्देश

दक्षिण रेलवे सहित कई जोनल रेलों में भी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ किए जाने की है आवश्यकता

राजनीतिक हस्तक्षेप और सिफारिशों को रोकने के लिए रेलवे बोर्ड को उठाना होगा कड़े कदम

मुख्यालयों पर लंबे समय से टिके अधिकारियों को दर-बदर करने पर तुरंत लिया जाए निर्णय

प्रत्येक स्तर पर अधिकारियों/कर्मचारियों की जिम्मेदारी एवं उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए

सुरेश त्रिपाठी

आज से नया साल शुरू हो गया है. इस नए साल में रेलवे को बहुत तेजी से न सिर्फ कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे, बल्कि इन निर्णयों को तत्काल लागू करने के लिए ईमानदार, कर्मठ और बेदाग छवि वाले अधिकारियों को वरीयता देते हुए आगे लाना होगा. तभी रेलवे के लिए प्रधानमंत्री और रेलमंत्री के घोषित उद्देश्यों अथवा बड़े लक्ष्यों को समयानुसार हासिल किया जा सकेगा. पुराना यानि बीता हुआ साल भी रेलवे के लिए काफी हद तक ठीक रहा. कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ रेलवे के मामले में पिछले साल सरकार का सबसे बढ़िया निर्णय यह रहा कि एक नेक-नीयत, ईमानदार, कर्मठ और व्यापक अनुभव तथा एक बेहतर एवं सब प्रकार से साफ-सुथरी छवि वाले अधिकारी अश्वनी लोहानी को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन (सीआरबी) बनाकर लाया गया. हालांकि श्री लोहानी खुद इतने प्रबुद्ध अधिकारी हैं कि उन्हें किसी के सलाह-मशवरे की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है. उन्हें बखूबी मालूम है कि क्या, कब और कैसे करना है. तथापि, राजा चाहे जितना प्रबुद्ध हो, उसे बाहरी और भीतरी काबिल सलाहकारों की सलाह की आवश्यकता पड़ती ही है, जो कि राजा को उचित अवसर पर विषय का स्मरण करवाकर तत्काल समयोचित कार्यवाही की सलाह दे सकें.

इसी संदर्भ के अनुरूप ‘रेलवे समाचार’ भी अपनी यत्किंचित बुद्धि के अनुसार यहां कुछ मुद्दे प्रस्तुत कर रहा है. रेलवे को अगले दो वर्षों में अपने बकाया लगभग 35 से 40 हजार रूट किलोमीटर रेल नेटवर्क का विद्युतीकरण करना है. रेलमंत्री पीयूष गोयल ने इसकी घोषणा की है. इसके अलावा खतौली रेल दुर्घटना के बाद रेलवे बोर्ड ने आईसीएफ टाइप पुराने और भारी-भरकम यात्री कोचों का निर्माण बंद करके अपेक्षाकृत हलके और तेज गति से दौड़ सकने वाले तथा किसी दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना की स्थिति में जान-माल को कम से कम नुकसान पहुंचाने वाले एलएचबी कोचों के निर्माण/उत्पादन का महत्वपूर्ण निर्णय लिया है. इस निर्णय के तहत अगले दो वर्षों के दरम्यान सभी करीब 14 हजार यात्री गाड़ियों के सभी कोच एलएचबी कर दिए जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. इसके साथ ही अगले कुछ वर्षों में ही राष्ट्रीय राजधानी को देश के सभी राज्यों की राजधानियों से तीव्र-गति (हाई स्पीड) ट्रेनों से जोड़ा जाना है.

इसके साथ ही लगभग पूरी भारतीय रेल नेटवर्क के सभी ट्रंक रूटों का कम्पलीट ट्रैक रिन्यूअल (सीटीआर) किया जाना है, जिसके साथ ट्रैक की डीप स्क्रीनिंग सहित इसके सभी मटीरियल को भी बदला जाएगा. इसके लिए संबंधित सभी कंपनियों को एडवांस में मटीरियल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए तैयार रहने को कहना पड़ेगा. संपूर्ण विद्युतीकरण के साथ ही उसी के अनुरूप पर्याप्त विद्युत् इंजनों का भी उत्पादन या इंतजाम करना होगा. इसके अलावा जल्दी ही सभी यात्री गाड़ियों में बायो-टॉयलेट लगाए जाने का भी एक अन्य आवश्यक कार्य पूरा किया जाना है. वर्ष 2019 के आम चुनावों से पहले प्रधानमंत्री के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बुलेट ट्रेन के निर्माण कार्य को भी गति प्रदान करनी है. ऐसे ही अन्य कई महत्वपूर्ण और बड़े कार्य रेलवे बोर्ड को करने हैं, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने विशेष रूप से अश्वनी लोहानी को रेलवे बोर्ड की बागडोर सौंपी है.

परंतु यह सभी बड़े एवं महत्वपूर्ण कार्य तभी हो सकेंगे, जब सर्वप्रथम रेलवे की संपूर्ण प्रशासनिक स्थिति और मशीनरी सुधारी जाएगी. इसके साथ ही यह सभी महत्वपूर्ण कार्य तभी हो सकेंगे जब ईमानदार, कर्मठ और बेदाग छवि वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को आगे लाया जाएगा. इसके अलावा यह सभी बड़े एवं महत्वपूर्ण कार्य तभी संभव हो पाएंगे, जब छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्ण विषयों पर त्वरित निर्णय लिए जाएंगे, क्योंकि रेलवे की प्रशासनिक मशीनरी में पिछले कुछ वर्षों के दौरान न सिर्फ व्यापक रूप से जंग लग चुकी है, बल्कि भ्रष्टाचार, कामचोरी और लापरवाही इस कदर हावी हो चुकी है कि पूरी रेल व्यवस्था में सड़न पैदा हो गई है. हालांकि अश्वनी लोहानी ने सीआरबी का पदभार संभालने के बाद पिछले चार महीनों में इस जंग को कुरेदने का जमीनी प्रयास किया है और वह अपने इस प्रयास में काफी हद तक सफल भी रहे हैं.

श्री लोहानी चूंकि शुरू से एक साफ-सुथरी छवि वाले रेल अधिकारी रहे हैं. इसीलिए रेलवे को नई गति प्रदान करने और रेल प्रशासन में नई ऊर्जा पैदा करने हेतु उन पर सभी रेल अधिकारियों और रेलकर्मियों को भी पूरा भरोसा है. इसके चलते न सिर्फ उनसे बहुत सारी अपेक्षाएं जुड़ गई हैं, बल्कि कई महत्वपूर्ण लक्ष्यों के कारण उन पर भारी दबाव भी बन गया है. हालांकि निरीक्षण दौरे करते हुए उनके चेहरे पर इस दबाव की कोई झलक परिलक्षित नहीं होती है. इसीलिए उनके पदभार संभालने के बाद से रेलवे में एक नया उत्साह और कार्य-वातावरण पैदा हुआ है. तथापि, जानकारों का यह भी मानना है कि उपरोक्त सभी कार्य रंजनेश सहाय जैसे जुगाड़ू अधिकारी को सहयोगी और रेलवे बोर्ड का सेक्रेटरी बनाए जाने से तो संभव नहीं हो पाएंगे. इसके अलावा उत्तर रेलवे के वाणिज्य विभाग पर रेलवे बोर्ड द्वारा जो सर्जिकल स्ट्राइक की गई, वह भी एक अकर्मण्य-अविवेकी मुख्य परिचालन प्रबंधक (सीओएम) के कारण आधी-अधूरी रह जाए, और रेलवे बोर्ड द्वारा उठाए कदम को इस प्रकार से बेकार कर दिया जाए, यह भी उचित नहीं कहा जा सकता. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व सीसीएम के दलाल अब भी सक्रिय हैं और इमरजेंसी कोटे का अब भी राजनीतिक दुरुपयोग किया जा रहा है.

अब जहां तक जुगाड़ू अधिकारी रंजनेश सहाय की बात है, तो उनकी कार्य-प्रणाली और मानसिकता ठीक वैसी है, जैसी उन्हें रेलवे बोर्ड में ईडी/सीसी बनाकर ले जाने वाले तत्कालीन सीआरबी उर्फ ‘विषधर’ की थी, प्रशासनिक कामकाज और कार्य-प्रणाली के स्तर पर रेलवे को सबसे ज्यादा बरबाद करने में ‘विषधर’ की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. अब तक जो अधिकारी डीआरएम नहीं बन सका, जिसको विभिन्न विभागों की कार्य-प्रणाली का पर्याप्त ज्ञान नहीं है, उसे दो-दो जोनल रेलों का एसडीजीएम बनाया गया. फिर उसी जगह विभाग प्रमुख बना दिया गया और अब पुनः बतौर सेक्रेटरी/रेलवे बोर्ड बनाकर पदस्थ कर दिया गया. निवर्तमान सेक्रेटरी/रे.बो. आर. के. वर्मा, जो कि रेलवे के प्रशासनिक और अनुशासनिक विकास में कोई कारगर भूमिका नहीं निभा सके, की ही तरह इस जुगाड़ू अधिकारी की भी यह विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक पोस्टिंग ही है. ऐसे में अन्य किसी अधिकारी द्वारा मनचाही पोस्टिंग पाने या अनचाही पोस्टिंग को रद्द कराने के लिए लाए जाने वाले राजनीतिक दबाव को गलत कैसे ठहराया जा सकता है, या कैसे ठहराया जा सकेगा?

इसी प्रकार राजनीतिक सिफारिशों, षड्यंत्र, जोड़तोड़ और शिकायतबाजी का पर्याप्त अवसर उत्तर रेलवे के वाणिज्य विभाग पर की गई कार्रवाई में भी छोड़ दिया गया और ऐसा उत्तर रेलवे के संबंधित अधिकारियों द्वारा जानबूझकर किया गया. परिणामस्वरूप शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया है. यदि उत्तर रेलवे के सीओएम और जीएम यह सोचते हैं कि सारा काम रेलवे बोर्ड ही करे और उसका दायित्व भी वही वहन करे, तो उनसे यह पूछा जाना वाजिब होगा कि फिर वह किस मर्ज की दवा हैं? उन्हें उक्त पदों पर पूरे अधिकार के साथ किस लिए बैठाया गया है? रेलवे बोर्ड की मंशा के अनुरूप पूर्व कदाचारी सीसीएम को जोन से बाहर ट्रांसफर करने की कार्रवाई की जानी चाहिए थी. इसी प्रकार पूर्व सीसीएम के सभी गुर्गों को मुख्यालय से हटाया जाना चाहिए था. परंतु एक अधिकारी को जीएम का खास मानकर छोड़ दिया गया, हालांकि यदि जीएम भी ऐसा ही मानते हैं, तो वह मुगालते में हैं. और अब कुछ मंडल अधिकारियों का तबादला कर दिया गया, जिसके लिए पूर्व कदाचारी सीसीएम काफी समय से प्रयासरत थे. इससे उनकी मंशा पूरी हो गई और उन्हें हटाए जाने से जो उत्साह का माहौल बना था, उस पर सीओएम ने पानी फेर दिया.

उत्तर रेलवे में पांच सीनियर स्केल अधिकारियों को पदोन्नत किया जाना था और छह पद खाली थे, ऐसे में सिर्फ पदोन्नति आदेश निकाले जाने चाहिए थे, मगर इसके साथ ही कई सीनियर डीसीएम और सीनियर डीओएम को बदल दिया गया, जिसका एक अत्यंत गलत संदेश गया और इससे न सिर्फ कुछ भीषण कदाचारी यूनियन पदाधिकारियों ने उनका तबादला करा देने का श्रेय ले लिया, बल्कि इस तरह कदाचारी सीसीएम की ही मंशा पूरी हुई. नव-नियुक्त सीसीएम की सलाह से निर्णय लेने अथवा उन्हें विभाग पर अपनी पकड़ बनाने के लिए दो-चार महीने का समय दिए बिना यहां सीओएम ने पूर्व कदाचारी सीसीएम की मंशा के अनुरूप काम किया.

सीओएम खुद कोई निर्णय लेने के बजाय सीएफटीएम को अपनी बैशाखी के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि पूर्व कदाचारी सीसीएम के कहे अनुसार सीओएम को अपनी सलाह सरका रहा है. इस सब के परिणामस्वरूप पूर्व कदाचारी सीसीएम ने ईमानदार अधिकारियों के विरुद्ध राजनीतिक साजिशों, षड्यंत्रों और शिकायतों का सिलसिला शुरू कर दिया है. यदि उन्हें उत्तर रेलवे से दूर किसी अन्य जोन में शीघ्र नहीं भेजा जाता है, तो उनका यह कुटिल सिलसिला अभी जीएम, सीसीएम सहित कुछ अन्य वरिष्ठ वाणिज्य अधिकारियों तक भी जाने वाला है. इसके साथ ही वह यह भी दबदबा बनाए हुए हैं कि मार्च में सीओएम के रिटायर होने पर उनकी जगह अपनी वापसी करेंगे. इस तरह रेलवे बोर्ड द्वारा उत्तर रेलवे के वाणिज्य विभाग की सफाई के लिए उठाए गए कदम पर सीओएम ने अपने अविवेकी निर्णयों से पूरी तरह पानी फेर दिया है.

कुछ ऐसा ही हाल पश्चिम मध्य रेलवे के वाणिज्य विभाग का भी है. जहां सीनियर डीसीएम/भोपाल अपने वरिष्ठ और विभाग प्रमुख सीसीएम सहित एएम/कैटरिंग/रे.बो. के भी आदेश मानने को तैयार नहीं है. उल्लेखनीय है कि सीनियर डीसीएम/भोपाल ने नियम-विरुद्ध तरीके से करीब 15 चलित खानपान ट्रालियों को तत्काल बंद करा दिया है. पूरी भारतीय रेल सहित प.म.रे. के अन्य दो मंडलों में भी ऐसा कोई तुगलकी निर्णय नहीं लिया गया है. यहां यह भी बताना जरूरी है कि कैटरिंग पालिसी-2017 के बजाय वर्ष 2010 की कैटरिंग पालिसी का हवाला देकर सीनियर डीसीएम/भोपाल द्वारा यह गैर-कानूनी कृत्य किया गया है. यह कृत्य एक स्थानीय सांसद एवं इटारसी के एक नए कैटरिंग कांट्रेक्टर के दबाव में डीआरएम एवं सीनियर डीसीएम/भोपाल द्वारा किया गया बताया जा रहा है. बताते हैं कि उन्होंने उन पर अपना यह दबाव उन्हें ऑफिसर्स रेस्ट हाउस में बुलाकर बनाया था. परंतु डीआरएम ने अब इस मामले से अपना पल्ला पूरी तरह से झाड़ लिया है.

हाल ही में रेलवे बोर्ड द्वारा सभी प्रकार की कैटरिंग यूनिटों को छह महीनों के लिए अस्थाई विस्तार दिए जाने का जो आदेश निकाला गया है, उस पर भी सीनियर डीसीएम/भोपाल ने अमल करने से मना कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट और रेलवे बोर्ड तक जाकर भी ट्राली लाइसेंसियों और बेरोजगार हुए करीब डेढ़ हजार वेंडरों को कहीं से भी अब तक न्याय नहीं मिला है. जबकि दलालों द्वारा उनके पास प्रति ट्राली एक लाख रुपये दिए जाने पर ट्रालियों को चालू करा देने का संदेश भेजा जा रहा है. इससे पहले भी निर्धारित ‘प्रतिमाह मानधन’ को बढ़ाए जाने पर भी विवाद हो चुका था. इस सारे कृत्य की समस्त जानकारी होने के बावजूद इस मामले में रेलवे बोर्ड किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहा है. जबकि सीनियर डीसीएम/भोपाल को तत्काल निलंबित और ट्रांसफर करके इस मामले का समुचित समाधान किया जा सकता था. इसके अलावा वाणिज्य स्टाफ के साथ भेदभाव और बदसलूकी के लिए भी यूनियन पदाधिकारियों द्वारा सीनियर डीसीएम/भोपाल के खिलाफ प्रत्यक्ष नारेबाजी और उन्हें तत्काल हटाए जाने की मांग की जा चुकी है.

अब जहां तक रेलमंत्री पीयूष गोयल के आदेश के अनुपालन में दिल्ली एवं रेलवे बोर्ड सहित विभिन्न जोनल मुख्यालयों से 200 अधिकारियों को निकालकर फील्ड में भेजे जाने की बात है, तो उस पर अब तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा सका है. हालांकि पूर्व सेक्रेटरी/रे.बो. ने इसके लिए सभी जोनों को पत्र लिखकर ऐसे अधिकारियों की पहचान करके रेलवे बोर्ड को सूचित किए जाने की तत्परता अवश्य दिखाई थी, परंतु वह इस कार्य को अपने रहते पूरा नहीं करा पाए. जानकारों का मानना है कि इस प्रकार की उठल्लू नीति अपनाए जाने से कुछ हासिल नहीं होगा. उनका कहना है कि जरूरत इस बात की है कि दीर्घकालीन नीति अपनाई जाए. इसके लिए किसी अनुसंधान की आवश्यकता नहीं है.

जानकारों का कहना है कि नीति पहले से ही मौजूद है, सिर्फ उसे लागू करने की सरकारी और रेलवे बोर्डी इच्छाशक्ति की जरूरत है. इसके लिए सर्वप्रथम सीवीसी के सभी दिशा-निर्देश बिना किसी भेदभाव के सभी अधिकारियों-कर्मचारियों पर अक्षरशः लागू किए जाने चाहिए. इसके साथ ही एक ही शहर, एक ही रेलवे में लंबे समय, इसकी गणना कम से कम 10 साल से की जानी चाहिए, से जमे अधिकारियों को तुरंत इंटर रेलवे दर-बदर किया जाना चाहिए. उनका कहना है कि यदि इस नीति पर किसी भी स्तर पर कोई छूट दिए बिना सख्ती से अमल किया जाए, तो प्रशासनिक और फील्ड स्तर पर तुरंत नई ऊर्जा का संचार होगा और रेलवे की समस्त कार्य-प्रणाली में तुरंत व्यापक एवं आमूल-चूल परिवर्तन परिलक्षित होगा.

सरकार अथवा प्रधानमंत्री और रेलमंत्री को रेलवे में यदि अपने मन-मुताबिक परिणाम चाहिए, तो दक्षिण रेलवे और दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे सहित कुछ अन्य जोनल रेलों के न सिर्फ महाप्रबंधकों को तुरंत हटाकर उन्हें रेलवे बोर्ड के किसी कोने में बैठा दिया जाना चाहिए, बल्कि सीओएम, सीसीएम, जो प्रत्यक्ष लोडिंग/अर्निंग सहित संरक्षा और समयपालन के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं, जैसे कुछ अन्य अकर्मण्य और कदाचारी विभाग प्रमुखों को हटाकर या तो उन्हें घर भेज दिया जाना चाहिए या फिर उन्हें ऐसे पदों पर बैठाया जाना चाहिए, जहां चाय पीने के लिए भी अपनी जेब में हाथ डालना उनकी मजबूरी बन जाए. रेलवे बोर्ड अथवा रेलमंत्री द्वारा इस तरह के कड़े कदम उठाए बिना न तो रेलवे का प्रशासनिक ढ़ांचा सुधरने वाला है, और न ही ऐसे रेल अधिकारी एवं कर्मचारी कभी सुधरने वाले हैं.

‘कांतारू’ की ही तरह बीवी के पल्लू से लटके रहकर रेल कार्यों को अंजाम देने वाले महाप्रबंधक/द.रे. के बारे में पहले से ही रेलवे बोर्ड को इस बात की जानकारी थी कि वह दक्षिण रेलवे की माफिया यूनियन के बहुत पुराने हस्तक रहे हैं, अतः माफिया यूनियन की पसंद पर ऐसे किसी अधिकारी को दक्षिण रेलवे में बतौर महाप्रबंधक पदस्थ न किया जाए. तथापि, रेलवे बोर्ड ने शायद यह सोचकर खतौली दुर्घटना के बाद उन्हें उ.रे. से लेटरल शिफ्टिंग में द.रे. भेज दिया गया कि साफ-सुथरी छवि वाले सीआरबी के मार्गदर्शन में शायद उनका आचरण सुधर जाएगा. परंतु रेलवे बोर्ड के दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया है. परिणामस्वरूप दक्षिण रेलवे में समस्त कामकाजी निर्णय महाप्रबंधक कार्यालय के बजाय या तो माफिया यूनियन मुख्यालय अथवा महाप्रबंधक निवास पर लिए जा रहे हैं.

जो कृत्य उत्तर रेलवे में सीओएम द्वारा किया गया, उससे भी ज्यादा निम्न-स्तरीय और अपमानजनक व्यवहार जोरू के गुलाम जीएम और महा-कदाचारी सीओएम एवं सीसीएम द्वारा दक्षिण रेलवे के ईमानदार अधिकारियों के साथ किया जा रहा है, जहां एक भ्रष्ट प्रमोटी सीनियर डीओएम के मातहत उससे लगभग 10 साल सीनियर सेलेक्शन ग्रेड सीधी भर्ती अधिकारी को सिर्फ अपमानित करने के उद्देश्य से पदस्थ किया गया है. सूत्रों का यह भी कहना है कि यह कुकृत्य जीएम, सीओएम और सीसीएम द्वारा माफिया यूनियन के कहने पर किया गया है, इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि इससे पहले माफिया यूनियन की शह पर उक्त ईमानदार अधिकारी को हटाए जाने की सीओएम एवं सीसीएम की मंशा पर कैट ने उसे मंडल से बाहर ट्रांसफर नहीं किए जाने का आदेश देकर पानी फेर दिया था.

यहां एक बात का उल्लेख अत्यंत आवश्यक है. वह यह कि ‘जब तक कोई व्यक्ति खुद उठकर खड़े होने की कोशिश नहीं करता, अथवा न्याय का प्रतिरोध नहीं करता, तब तक कोई इंसान तो क्या, ईश्वर भी उसकी मदद नहीं करता.’ यह सिद्धांत दक्षिण रेलवे के सभी ईमानदार और कर्मठ अधिकारियों पर अक्षरशः लागू होता है. यदि वह सोचते हैं कि उनकी चुप्पी से समस्या का समाधान हो जाएगा और उन्हें न्याय मिल जाएगा, अथवा रेलवे बोर्ड उनकी मदद करने के लिए आगे आएगा, तो वह अपनी इस गलतफहमी को जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी दूर झटक दें, क्योंकि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. इस हेतु सर्वप्रथम उन्हें ही अपने प्रति हो रहे अन्याय का सामना करने के लिए उठ खड़ा होना होगा. उनके लिए यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि अब पूर्व सीसीएम जैसे दमदार किरदार की अपेक्षा वर्तमान में दक्षिण रेलवे के किसी भी अधिकारी से नहीं की जा सकती है.

प्रधानमंत्री और रेलमंत्री को यदि रेलवे प्रोजेक्ट्स के अपने स्वप्निल लक्ष्य हासिल करने हैं, तो भयानक डायबेटिक का शिकार होकर सूखकर कांटा हो रहे मेंबर ट्रैक्शन, रेलवे बोर्ड को अविलंब रिटायर कर दिया जाना चाहिए, अथवा उन्हें अन्य किसी मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति पर भेज दिया देना चाहिए, क्योंकि अब उनसे काम नहीं होता. जिस तरह के अविश्वसनीय और कुतर्कपूर्ण लक्ष्य वह तमाम इलेक्ट्रिकल कॉन्ट्रैक्टर्स को सीधे फोन करके दे रहे हैं तथा इसके लिए जिस तरह से विभिन्न जोनल जीएम्स को परेशान कर रहे हैं, और जिस तरह मेंबर ट्रैक्शन के अपने ओहदे को बाईपास करके वह जीएम/कोर का काम कर रहे हैं, यह मूर्खतापूर्ण ही कहा जा सकता है. बताते हैं कि राजनीतिक दबाव में मेंबर ट्रैक्शन बनाए गए इन महाशय के पास न तब सीवीसी क्लियरेंस था और न अब है, इसीलिए वह आरडीए के लिए आवेदन नहीं कर सके थे.

जानकारों का मानना है कि इन महाशय के रहते तो रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि यह छोटे और मझोले इलेक्ट्रिकल कॉन्ट्रैक्टर्स के बजाय बड़ी ही नहीं, बल्कि बहुत बड़ी मगर रेलवे कामकाज से पूरी तरह अनभिज्ञ कंपनियों को 500-1000 करोड़ के बड़े ईपीसी कांट्रेक्ट देने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे यह महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट कभी पूरा नहीं होगा, क्योंकि ईपीसी कॉन्ट्रैक्ट्स में क्वालिटी, क्वांटिटी और डिजाइन पर रेलवे की कोई पकड़ नहीं रहेगी. जबकि छोटे और मझोले मगर रेलवे कामकाज के अनुभवी कॉन्ट्रैक्टर्स के माध्यम से रेलमंत्री का यह ड्रीम प्रोजेक्ट जल्दी पूरा हो सकता है. इसके अलावा यहां यह भी विचारणीय है कि रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन सर्वाधिक सेफ्टी से जुड़ा कार्य है, अतः इस महत्वपूर्ण कार्य में नई और गैर-अनुभवी कंपनियों को तरजीह दिया जाना भविष्य में रेलयात्रियों की सुरक्षा और संरक्षा के लिए अत्यंत घातक साबित हो सकता है. इसके अलावा जिस तरह गैर-कानूनी और तमाम नियम-निर्देशों को ताक पर रखकर इन्होंने मुंबई के एक इलेक्ट्रिकल कांट्रेक्टर को बरबाद किया है, उसकी जांच कराकर इनके खिलाफ अविलंब विभागीय अनुशासनिक कार्रवाई की जानी चाहिए.

बायो-टॉयलेट प्रोजेक्ट के मामले में रेलवे के मैकेनिकल इंजीनियरों ने अब तक ठीक उसी तरह निराश किया है, जैसे अब तक उन्होंने एलएचबी कोचों की कपलिंग के मामले में किया है. यह आज तक दो एलएचबी कोचों को आपस में जोड़ने वाली कपलिंग को नहीं सुधार पाए हैं, जिससे लोको पायलट द्वारा तनिक भी ब्रेक लगाते ही यात्रियों को आज भी इनमें झटके लग रहे हैं. यह कितना मूर्खतापूर्ण है कि बायो-टॉयलेट के मामले में अन्य देशों की रेलें जहां बहुत आगे निकल चुकी हैं, वहीं ‘ग्लोरिफाइड क्लर्क’ बनने की होड़ में शामिल भारतीय रेल के मैकेनिकल इंजीनियर आज भी इसमें दो-दो ऑप्शन रख रहे हैं. रेलवे बोर्ड की वेबसाइट पर मौजूद तत्संबंधी डॉक्यूमेंट देखकर इन पर तरस आता है. तारीफ यह है कि इन दो ऑप्शन में से एक ऑप्शन तो लगभग 25 साल पुराना है, जबकि दूसरा वर्तमान की भी जरूरत को पूरा नहीं कर रहा है.

उल्लेखनीय है कि पहले इस बायो-टॉयलेट की डिजाइन रेलवे बोर्ड ने बनाई. फिर यह डिजाइन बनाने के लिए आईसीएफ को कहा गया. इसके बाद इसे आरसीएफ को सौंप दिया गया. अब वर्तमान में इसकी जिम्मेदारी आरडीएसओ को सौंपी गई है. तथापि, अब तक प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत-स्वच्छ रेल’ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण इस प्रोजेक्ट के ओर-छोर का कहीं अता-पता नहीं है. जबकि प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत इस प्रोजेक्ट पर रेलवे के मैकेनिकल इंजीनियरों को अब तक इसे बनाकर खड़ा कर देना चाहिए था. यही नहीं, गूगल पर भी यदि वे इसे सर्च कर लेते, तो भी शायद उन्हें बहुत ज्ञान प्राप्त हो जाता और वह 25 साल पुराने के साथ वर्तमान का ऑप्शन रखने के बजाय 25-50 साल आगे के भावी डिजाइन बना लेते. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि इस फील्ड के ज्ञात देशी-विदेशी सप्लायरों/निर्माताओं की सलाह लेने और उनके सहयोग से भारतीय रेल के अनुरूप इसे विकसित करने में भी रेलवे के संबंधित मूढ़-धन्य मैकेनिकल इंजीनियरों को शर्म आ रही है. इस मामले में भी शायद रेलवे के संबंधित मैकेनिकल इंजीनियर खुद कुछ करने के बजाय अब सीआरबी से ही इसकी डिजाइन बनाने की उम्मीद कर रहे हैं.

रेलमंत्री पीयूष गोयल ने अगले दो सालों में सभी लगभग 14-15 हजार यात्री गाड़ियों के लिए 60-70 हजार एलएचबी कोचों के निर्माण का लक्ष्य रेलवे बोर्ड को दिया है. इस पर आईसीएफ, चेन्नई सहित आरसीएफ, कपुरथला और एमसीएफ, रायबरेली में अब सिर्फ एलएचबी कोचों का निर्माण/उत्पादन भी शुरू कर दिया गया है. परंतु जिस किस्म के लापरवाह, अनभिज्ञ और कदाचारी अधिकारी उक्त कोच निर्माण फैक्ट्रियों में विराजमान हैं, उसे देखते हुए रेलमंत्री का यह लक्ष्य हासिल हो पाएगा, इसमें संदेह है. रेलमंत्री ने एक बयान में हाल ही में कहा था कि रेलवे के मटीरियल सप्लायरों को तुरंत भुगतान किया जा रहा है, परंतु देखने में यह आया है कि सप्लायरों को महीनों तक भुगतान नहीं हो रहा है. उल्लेखनीय है कि मटीरियल सप्लाई किए जाने के बाद उसी दिन तुरंत सप्लायरों को भुगतान जारी किए जाने की परंपरा है. परंतु संबंधित अधिकारी पहले उनसे अपना कमीशन वसूलने के लिए उन्हें यह कहकर ‘चाय’ पीने हेतु आमंत्रित करते हैं कि ‘महीनों हो गए आपने हमारे साथ ‘चाय’ नहीं पी है. आज ‘चाय’ पीने आ जाओ, या फिर अपने आदमी को ही भेज दो.’

इसका मतलब साफ है और यह भी सर्वविदित है कि टेंडर फाइनल करने वाले और टेंडर वर्क पर अमल करवाने वालों सहित भुगतान बनाकर सीधे सप्लायरों के खाते में भेजने वाले संबंधित अधिकारियों को बिना दो प्रतिशत कमीशन दिए सप्लायरों/कांट्रेक्टरों की गति (मुक्ति) नहीं है. कुछ अधिकारी तीन से चार प्रतिशत तक भी हड़प लेते हैं. मगर इससे ज्यादा गर्दन दबाने वाले कुछ अधिकारी तब सीबीआई ट्रैप का शिकार होते हैं, जब संबंधित सप्लायर या कांट्रेक्टर उनकी अत्यधिक जिद या लालच के कारण दिवालिया होने के कगार पर पहुंच जाता है. भ्रष्टाचार को जड़-मूल से खत्म कर पाना तो शायद किसी के लिए भी संभव नहीं है, परंतु सजगता, सतर्कता एवं व्यापक पारदर्शिता अपनाकर इसके फैलाव पर अंकुश अवश्य लगाया जा सकता है.

इसी प्रकार किसी कंपनी विशेष को ध्यान में रखकर टेंडर की कंडीशंस और शेड्यूल बनाए जाते हैं. हाल ही में स्विच बोर्ड कैबिनेट (एसबीसी) का एक ऐसा ही टेंडर ‘रेलवे समाचार’ के संज्ञान में आया है. इस टेंडर की कंडीशंस को देखकर भी यही जाहिर हो रहा है कि यह एक कंपनी विशेष को ध्यान में रखकर बनाया गया है. यह टेंडर आईसीएफ के विद्युत् विभाग का है, मगर बाहर ऐसी अफवाह फैलाई गई है कि जीएम की इस टेंडर में रुचि है और वही एक कंपनी विशेष को यह टेंडर देने के लिए उसके अनुसार इसकी कंडीशन और शेड्यूल बनवाए हैं. परंतु ‘रेलवे समाचार’ को यह बखूबी ज्ञात है कि जीएम/आईसीएफ किस प्रकृति के हैं. अतः ‘रेलवे समाचार’ का मानना है कि इस टेंडर की सेवा-शर्तों की गहराई से जांच करवाने के बाद ही इसे जारी किया जाना चाहिए. इसके साथ ही सभी प्रकार के टेंडर्स की छानबीन उनको पब्लिक डोमेन में प्रकाशित करने से पहले विजिलेंस की वेटिंग करवाई जानी चाहिए, जिससे बाद में विजिलेंस का कोई झंझट न रहे और संबंधित कार्य या प्रोजेक्ट को निर्धारित समय पर पूरा करवाया जा सके.

यह भी आवश्य है कि विभाग प्रमुखों और डीआरएम तथा जीएम के पदों पर समयानुसार पदस्थापना हो, जिससे न सिर्फ आवश्यक कार्यों को गति मिलेगी, बल्कि किसी कोताही की स्थिति में उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही भी सुनिश्चित की जा सकती है. परंतु देखने में आ रहा है कि तेज-तर्रार रेलमंत्री और चहरे पर बिना कोई शिकन लाए 10-12 घंटे तक लगातार काम करने वाले सीआरबी भी इस मामले में किन्हीं अज्ञात कारणों से कहीं न कहीं कमतर साबित हो रहे हैं. शायद यही कारण है कि एमसीएफ, रायबरेली और पूर्व मध्य रेलवे, हाजीपुर के महाप्रबंधकों के दो पद क्रमशः एम. के. गुप्ता और डी. के. गायेन के रेलवे बोर्ड में मेंबर इंजीनियरिंग और मेंबर स्टाफ बन जाने के बाद से खाली पड़े हुए हैं. रेलवे बोर्ड सहित कुछ जोनल रेलों में भी निकट भविष्य में ऐसे कुछ और पद खाली होने जा रहे हैं. अतः उक्त पदों पर उपयुक्त समय पर पोस्टिंग सुनिश्चित की जानी चाहिए.

अब जहां तक आरपीएफ की बात है, तो सर्वप्रथम इसका विशेष दर्जा समाप्त करके संसद द्वारा पारित कानून पर अमल किया जाना चाहिए. बाहरी प्रतिनियुक्तियों को अविलंब प्रतिबंधित करते हुए डीजी/आरपीएफ को रेलवे बोर्ड के अन्य डीजी के समकक्ष लाए जाने सहित सभी जोनल एवं डिवीजनल आरपीएफ अधिकारियों को जीएम और डीआरएम के मातहत लाया जाना चाहिए. सिर्फ यही दो कदम उठाए जाने से न सिर्फ बाहरी प्रतिनियुक्त (आईपीएस) अधिकारियों और ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के बीच का चिर-विवाद हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है, बल्कि मनमानी और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे तमाम आरपीएफ अधिकारियों की गलत और नियम-विरुद्ध गतिविधियों पर तुरंत अंकुश लगाया जा सकेगा.

आरपीएफ अधिकारियों की मनमानी और कदाचार का आलम यह है कि सरेआम अवैध हाकर चलाते हैं और जब दस्तावेजी सबूतों के साथ इनकी इन भ्रष्ट हरकतों की खबर कोई अखबार या पत्रकार प्रकाशित कर देता है, तो संबंधित दस्तावेज अपनी फाइल से खुद गायब करके यह उसे नोटिस भेजकर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की धमकी देते हैं कि दस्तावेज प्राप्ति का स्रोत उन्हें बताया जाए, वरना वह संबंधित अखबार और पत्रकार के विरुद्ध कानूनी एवं अदालती कार्रवाई करेंगे. यही नहीं, अपनी इन तमाम गलत और भ्रष्ट गतिविधियों को छिपाने के लिए तथाकथित कानून के जानकार, मगर हद दर्जे के अहमक, ये आरपीएफ अधिकारी इसका ठीकरा ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के माथे पर फोड़ते हैं, जबकि सर्वसामान्य अखबारों और पत्रकारों अथवा उनके द्वारा प्रकाशित खबरों का आरपीएफ एसोसिएशन से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं होता है.

उल्लेखनीय है कि श्री माता वैष्णव देवी कटरा स्टेशन पर अधिकृत कैटरिंग कांट्रेक्टर के वेंडर्स की अधिकृत वर्दी पहनाकर आईपीएफ/कटरा द्वारा अवैध हाकरों से अवैध वेंडिंग कराए जाने की खबर जालंधर के ‘जन संगठन ई-पेपर’ सहित ‘रेलवे समाचार’ में भी प्रकाशित हुई थी. इस खबर के साथ एसएससी/जम्मू द्वारा आईपीएफ/कटरा को स्टेशनों पर अवैध हाकर न चलाने के लिए जो पत्र लिखकर ताकीद किया गया था, वह भी प्रकाशित हुआ था. इस पर आईपीएफ/कटरा ने ‘जन-संगठन ई-पेपर के संपादक को नोटिस (देखें साथ में लगी उक्त पत्र एवं नोटिस की प्रति) भेजी है. इस नोटिस में आईपीएफ/कटरा ने लिखा है कि ‘उक्त पत्र उनके कार्यालय से चोरी किया गया है, उक्त पत्र रिपोर्टर तक कैसे पहुंचा, इसकी जानकारी उन्हें 5 जनवरी तक दी जाए, अन्यथा संपादक के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाएगी.’

जबकि हमारे विश्वसनीय सूत्रों का कहना है कि उक्त पत्र आईपीएफ/कटरा ने सीनियर डीएससी/फिरोजपुर के कहने पर फाइल से खुद गायब किया है. सूत्रों का कहना है कि इस मामले में संबंधित आरपीएफ अधिकारियों द्वारा स्वयं के बचाव के लिए न सिर्फ फाइल से उक्त पत्र गायब किया गया, बल्कि डीजी/आरपीएफ को गुमराह करने के लिए आरपीएफ एसोसिएशन का नाम लेकर अपनी खाल बचाने और पत्रकारों को साजिशन फंसाकर परेशान करने हेतु यह सारा तिकड़म किया जा रहा है. फिरोजपुर के एक प्रसिद्द वकील और आरटीआई कार्यकर्ता पी. सी. शर्मा का कहना है कि जो अधिकारी अपने कार्यालय की फाइलों की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं हैं, वह यात्रियों और जनता की सुरक्षा कैसे करते हैं, यह प्रत्यक्ष रूप से जाहिर है. श्री शर्मा का यह भी कहना है कि वह तो गनीमत है कि अभी तक इन्हें आईपीसी का कोई अधिकार नहीं मिला है, तब इनका यह हाल है. यदि इन्हें आईपीसी का अधिकार भी थमा दिया गया, तो यह अदालत का भी काम खुद ही करने लगेंगे.

बहरहाल, कुल-मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि आरपीएफ के मामले में संसद द्वारा पारित कानून का पालन सुनिश्चित कराया जाए और निरंकुश हो रहे आरपीएफ अधिकारियों पर लगाम कसी जाए. तभी भारत सरकार (रेल मंत्रालय) द्वारा वैधानिक रूप से प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार का पालन करते हुए आरपीएफ कर्मियों को रेल प्रशासन के समक्ष अपनी बात रखने के पीएनएम जैसे उपयुक्त मंच का सदुपयोग हो सकेगा. उपरोक्त तमाम छोटे-छोटे मुद्दों पर यदि रेलवे बोर्ड द्वारा समयानुसार संज्ञान नहीं लिया जाता है और तत्काल उचित कदम नहीं उठाया जाता है, तो रेलवे के तीव्र सुधार और व्यापक प्रगति की बात करना बेमानी होगा, क्योंकि रेलवे बोर्ड की नजर में उपरोक्त छोटे-छोटे मुद्दे भले ही छोटे हैं, मगर इन्हीं कथित छोटे-छोटे मुद्दों पर रेलवे की व्यापक छवि और सुधार अवलंबित है.

इसके अलावा तथाकथित बड़े-बड़े मुद्दों से जनता अथवा भारतीय रेल में रोजाना यात्रा करने वाले लगभग तीन करोड़ यात्रियों का कोई सीधा सरोकार नहीं है. परंतु इन कथित छोटे-छोटे मुद्दों से उनका हर कदम पर आमना-सामना होता है, जिनसे उनकी यात्रा पर व्यापक प्रभाव पड़ता है. बड़े-बड़े मुद्दों पर जब काम होगा, तब होगा, उनसे रोजाना तीन करोड़ रेलयात्रियों पर तत्काल कोई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है. यदि इन कथित छोटे-छोटे मुद्दों पर उचित संज्ञान नहीं लिया जाएगा, तो रेलवे और सरकार की छवि कभी सुधरने वाली नहीं है. इसके लिए नीचे से लेकर ऊपर तक के प्रत्येक अधिकारी और कर्मचारी की जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना होगा, तभी कुछ बेहतर हो सकता है. सिर्फ एक अधिकारी (सीआरबी) के अकेले किए-धरे कुछ नहीं होने वाला है.