सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सिर्फ एक ‘फिलासफी’ मानता है रे.बो.
रेलवे बोर्ड ने जारी किए वरीयता निर्धारण के नए विसंगतिपूर्ण नियम
आनन-फानन में रे.बो. ने निकाली नई वरीयताक्रम की त्रुटिपूर्ण सूची
परमार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए आदेश को बताया ‘फिलासफी’
भारतीय रेल स्थापना नियमावली को पुनः बताया ‘स्टेट्यूटोरी नियम’
अकर्मण्य बन गए एफआरओए से युवा अधिकारियों का हुआ मोह भंग
सुरेश त्रिपाठी
रेलवे बोर्ड के मूर्धन्य विशेषज्ञ परमार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश को मात्र एक ‘फिलासफी’ मानते हैं. इस तरह उन्होंने सर्वोच्च अदालत के आदेश को सिरे से नकार दिया है. रेलवे बोर्ड द्वारा हाल ही में जारी एक पत्र में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मात्र एक ‘फिलासफी’ की संज्ञा देकर उसकी न सिर्फ अवमानना की गई है, बल्कि इस प्रकार सर्वोच्च अदालत के आदेश को अपने तरीके से किसी खास वर्ग को लाभ पहुंचाने के कुत्सित उद्देश्य से उसे पुनर्परिभाषित करने की भी कुचेष्टा की गई है. इसे एक गंभीर वैधानिक संकट की तरह देखा जाना चाहिए कि यदि इस प्रकार से सर्वोच्च अदालत के आदेशों को कोई भी अपने तरीके से परिभाषित करने लगेगा, तो सर्वोच्च अदालत की गरिमा का क्या होगा?
रेलवे में हुए अरबों रुपये के ‘अधिकारी पदोन्नति घोटाले’ में रेलवे बोर्ड द्वारा पटना हाई कोर्ट के आदेश को मानने पर अपनी मुहर लगा दी गई. इसके फलस्वरूप नए स्थापना नियम और उस पर आधारित वरीयता सूचियां भी जारी कर दी गईं, जिससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के आपसी टकराव पर तो फिलहाल विराम लग गया. परंतु रेलवे बोर्ड ने स्थिति को अब और भी ज्यादा उलझा दिया है. जब सर्वोच्च अदालत को रेलवे बोर्ड की इस कारगुजारी का संज्ञान होगा, तब उसे इसका जवाब देते नहीं बनेगा.
रेलवे बोर्ड ने अदालती कार्रवाई से बचने के लिए फटाफट 1 मार्च, 5 मार्च, 7 मार्च और 9 मार्च के पत्रों के माध्यम से मनमानी ढंग से अधिकारियों की वरीयता का पुनर्निधारण कर अपना पिंड छुड़ा लिया है. परंतु इस प्रकार की चालाकी दिखाकर अदालत से उसका पिंड छूट गया है, यह मान लेना फिलहाल जल्दबाजी होगी. यह सही है कि रेलवे बोर्ड का यह बदला हुआ नियम प्रमोटी अधिकारियों के लिए एक मुंहमांगी सौगात है, मगर उनकी यह खुशी रेलवे बोर्ड कब तक कायम रख पाएगा, यह देखने वाली बात होगी. फिलहाल मामले का कानूनी पलड़ा सीधी भर्ती वाले अधिकारियों के पक्ष में झुका हुआ है, लेकिन इसका तोहफा प्रमोटी अधिकारियों को दिया गया है. यह भी सही है कि इस नए नियम के बदलाव में बड़े स्तर पर हुए भारी भ्रष्टाचार की भयानक गंध आ रही है.
इस पूरे घटनाक्रम में जो-जो आयाम नजर आ रहे हैं, उन सभी में बहुत बड़े और व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार होने की खबर है. रेलवे के निर्धारित और स्थापित नियम-कानून, डीओपीटी एवं यूपीएससी के नियमों का समर्थन और अदालती प्रक्रिया दूसरे पक्ष में नहीं है, यह तो इस मामले में बहुत पहले ही स्पष्ट हो चुका है. तब ऐसा कौन सा अलिखित नियम-कानून है, जिसके कारण दूसरे पक्ष की न सिर्फ बांछें खिल गई हैं, बल्कि अदालत के पूर्व और वर्तमान आदेशों को धता बताकर सारी प्रक्रिया दूसरे पक्ष के समर्थन में चली गई है? इसका सीधा तात्पर्य इस मामले में पूर्व की भांति हुए भारी भ्रष्टाचार से है. इसको निम्नलिखित विश्लेषण से समझा जा सकता है.
1. सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड ने 9 मार्च को जारी किए गए अपने स्पष्टीकरण वाले पत्र में एन. आर. परमार मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को सिर्फ एक ‘दर्शन’ (फिलासफी) माना है. इसमें उनका कहना है कि ‘यह कोई आदेश या दिशा-निर्देश नहीं है. अर्थात संविधान में जो दर्जा प्रीआम्बल (प्रस्तावना) को दिया गया है, उस तरीके का यह निर्णय है.’ ऐसा लगता है कि संबंधित जड़बुद्धि महाशय को अपना सामान्य ज्ञान अपडेट करने की जरूरत है, क्योंकि इसी परमार मामले में सर्वोच्च अदालत के निर्णय की वजह से ही अनेकों मंत्रलयों में हजारों सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों की वरीयता में बदलाव किया जा चुका है और अब इसी निर्णय के कारण रेलवे में भी वरीयता में बदलाव 7 मार्च के पत्र के माध्यम से किया गया है.
ऐसे में सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड महाशय दोगली और दोमुंही बात क्यों कर रहे हैं? इस पूरे मामले को आर. के. कुशवाहा, जो 2008 बैच के आईआरएसएसई अधिकारी हैं, ने उठाया था. जिस पर पटना कैट ने सीधी भर्ती वाले कुशवाहा के पक्ष में निर्णय दिया था. इसके साथ ही इस मामले में यह भी गंभीर आरोप प्रमाणित हुआ है कि वर्ष 2001 से 2007 के बीच 50:50 अनुपात के नियम का खुला उल्लंघन करके प्रमोटी अधिकारियों को फायदा पहुंचाया गया. यदि तिकड़मी सेक्रेटरी/रे.बो. महाशय और जोड़तोड़ में माहिर मेंबर स्टाफ महोदय को न्यायिक व्यवस्था में तनिक सा भी विश्वास होता, तो परमार मामले को ‘दर्शन’ ही समझकर पहले 50:50 के अनुपात का पुराना मुद्दा दुरूस्त करते, तत्पश्चात परमार मामले पर आते.
परंतु यहां तो ‘प्रमोटी प्रेम’ में व्याकुल और आतुर इन दोनों साहबों ने सिर्फ वही नियम छेड़ा, जिससे उनके ज्यादातर बगलबच्चों को अधिक से अधिक फायदा मिल सके. इसीलिए सर्वप्रथम ‘रिक्रूटमेंट ईयर’ की जगह पर ‘ईयर ऑफ अलॉटमेंट’ का प्रयोग कर प्रमोटी अधिकारियों को एक साल की वरीयता बढ़ा दी गई, जिससे मामला शुरू होने से पहले की जो स्थिति सीधी भर्ती अधिकारियों की थी, वही स्थिति अब फिर से हो गई है. जबकि अदालत ने ‘रीक्विजिशन वर्ष’ के आधार पर वरीयता का निर्धारण करने का आदेश दिया है.
2. रेलवे बोर्ड और भारतीय रेलों के ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारी रेलवे की सेवाओं में आईएएस के प्रमोटी अधिकारियों से अपनी तुलना करते हैं. यह तो वही बात हुई कि ये मुंह और मसूर की दाल! इन मूढ़मतियों को कौन समझाए कि राज्य सेवाओं से चयनित अधिकारी सीधे 5400 ग्रेड-पे पर नियुक्त होते हैं और 20 वर्ष की सेवा के बाद ही उनको आईएएस बनाया जाता है तथा स्टेट्यूटोरी नियम होने के कारण उनको चार साल की सेवा पर एक साल की एंटी-डेटिंग का लाभ मिलता है. राज्य सेवाओं से आए अधिकारियों के लिए सिर्फ 33.33% कोटा का प्रावधान है, जबकि रेलवे के प्रमोटी अधिकारी 50% के कोटे पर आते हैं और बिना किसी मिनिमम क्वालिफिकेशन (न्यूनतम शैक्षिक योग्यता) के इनका चयन आंतरिक रूप से जोनल रेलों द्वारा किया जाता है, जिसमें भारी भ्रष्टाचार (20 लाख प्रति कैंडिडेट) भी एक सुपरिचित तथ्य है.
इसके साथ ही साथ रेलवे में प्रमोटी अदिकरियो को 5 वर्षों की एंटी-डेटिंग वरीयता की सौगात भी मिलती है. इतना सब कुछ बिना किसी मानक या स्टैंडर्ड के दिया जाता है. ऐसे में ग्रुप ‘डी’ और ‘सी’ से आया रेलवे का प्रमोटी अधिकारी अपनी तुलना आईएएस अधिकारियों से कैसे कर सकता है और उससे ज्यादा वेतनमान तथा ओहदे (पोजीशन) का लाभ कैसे ले सकता है? रेलवे बोर्ड की यह तमाम कारगुजारी इस बात को दर्शाती है कि वास्तव में स्थापित नियमों में छेड़छाड़ कर और सर्वोच्च अदालत के आदेश को ‘दर्शन’ बताकर प्रमोटी अधिकारियों को अनुचित लाभ पहुंचाया जा रहा है.
3. नए स्थापना नियम में बदलाव भी पूर्णरूपेण प्रमोटियों के पक्ष में है. अर्थात सीधी भर्ती वाले अधिकारी केस जीते और फायदा प्रमोटियों को मिला, वाह रे ! रेल प्रशासन तेरे क्या कहने !! इसके साथ ही पिछले तमाम घटनाक्रम ने एफआरओए के नेतृत्व पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है. केस जितने के बाद भी अधिकारियों का डिमोशन हो रहा है और एफआरओए का शीर्ष नेतृत्व दिल्ली के चीफ सेक्रेटरी को बचाने के पक्ष में ज्ञापन दे रहा है. यह तो वही बात हुई कि यहां तो अपना घर बाढ़ में डूबा है और दूसरे के गांव में धुंआ उठने से आग की चिंता सता रही है. वाह रे नेतृत्व ! आपका नाम एफआरओए के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज किया जाएगा !!
4. आज भारतीय रेल का समस्त प्रमोटी वर्ग इसे ‘आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट’ मानकर खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है. इरपोफ का नेतृत्व और उनके तथाकथित सलाहकार भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. बड़ी दिलचस्प स्थिति बन गई है. केस तो जीते हैं सीधी भर्ती वाले अधिकारी, मगर मौज कर रहे हैं प्रमोटी. इस सारे माजरे को देखते हुए प्रमोटी नेतृत्व अब सर्वोच्च न्यायालय से केस वापस लेने की पहल कर सकता है, क्योंकि मामले की सुनवाई होने पर अदालत का निर्णय प्रमोटियों के खिलाफ ही जाने की पूरी संभावना है. इसलिए मामला वापस लेने की पुरजोर संभावना बनती नजर आ रही है, क्योंकि अब जब उनकी मुंहमांगी मुराद बिना केस लड़े ही पूरी हो गई है और अंडर-टेबल सेटलमेंट से ही उनको सब कुछ प्राप्त हो गया है, तो अब वह आगे केस लड़ने की जहमत क्यों उठाएंगे? जबकि तमाम स्थापित नियम-कानून और अदालती कार्यवाही का समर्थन भी उनके पक्ष में नहीं है.
5. रेलवे बोर्ड से 9 मार्च को जारी हुए नए वरीयताक्रम में एक और बड़ी त्रुटि नजर आ रही है. इसमें बताया गया है कि इस सूची के माध्यम से सीनियर स्केल (एसएस) तथा जूनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (जेएजी) में पदोन्नति दी जाएगी. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जेएजी एडहॉक में पदोन्नति किस वरीयता सूची से की जाएगी, क्योंकि रेलवे बोर्ड ने 6 एवं 7 दिसंबर 2017 और 19 जनवरी 2018 को निर्गत किए गए पत्रों के माध्यम से प्रमोटियों के साथ-साथ सीधी भर्ती अधिकारियों की भी जेएजी एडहॉक में पदोन्नति पर रोक लगाई है. अतः रेलवे बोर्ड को अलग पत्र के माध्यम से इसका भी स्पष्टीकरण जारी करना होगा. तभी नई वरीयता सूची के आधार पर पदोन्नति दी जा सकेगी. इसी क्रम में पश्चिम रेलवे ने रेलवे बोर्ड से स्पष्टीकरण मांग लिया है.
उपरोक्त पूरे घटनाक्रम और लगातार तीन सालों तक अदालती लड़ाई लड़ने के बाद तथा समस्त नियम-कानून एवं अदालती निर्णय अपने पक्ष में होने के बावजूद रेलवे बोर्ड के ‘बंदर-न्याय’ से सीधी भर्ती वाले युवा अधिकारी अत्यंत आहत हैं. तथापि उनका कहना है कि वह आहत जरूर हुए हैं, मगर हताश नहीं हैं, क्योंकि यह मामला यहीं खत्म नहीं हो गया है. उनका कहना है कि लड़ाई जरूर थोड़ी लंबी हो गई है, परंतु इसे इसके निश्चित परिणाम तक अवश्य पहुंचाया जाएगा. उन्होंने कहा कि ऐसा ही पहले भी किया गया था, यही कोई नई बात नहीं है, रेलवे बोर्ड के अधिकारी अपने किन्हीं निहितस्वार्थों के तहत ऐसी जोड़तोड़ पहले भी कर चुके हैं, जिसे अदालत ने गलत ठहराया है, ऐसा फिर हो सकता है, क्योंकि जंग तो अभी जारी है.