रेलवे में इफरात हो गए हैं अधिकारी
सभी रेलवे पीएसयू को दिए गए स्टोर्स ऑफिसर के पद बनाने के आदेश
जोनल/डिवीजनल अस्पतालों को भी भंडार अधिकारी नियुक्त करने के निर्देश
सुरेश त्रिपाठी
भारतीय रेल में अधिकारियों की संख्या कर्मचारियों और कार्य के अनुपात में बहुत ज्यादा हो गई है. यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक जोन और मंडल का दायरा पहले जैसा ही है, बल्कि सात नए जोनों और कई नए मंडलों के बनने के बाद तो यह दायरा अब काफी सिमट भी गया है. तथापि मंडलों की प्रत्येक ब्रांच में कम से कम तीन-तीन, चार-चार ब्रांच अधिकारी (जेएजी एवं एसजी) और प्रत्येक के नीचे इतने ही सीनियर एवं जूनियर स्केल अधिकारी नियुक्त हो गए हैं. रेलवे में अधिकारियों की अधिक संख्या का एक सबूत यह भी है कि जहां बड़े से बड़े मंडलों में भी अब तक एक या दो एडीआरएम हुआ करते थे, वहां अब तीन-तीन, चार-चार एडीआरएम लगा दिए गए हैं.
इसके साथ ही लगभग सभी मझोले और बड़े रेलवे स्टेशनों पर जेएजी/एसएस स्तर के स्टेशन डायरेक्टरों की भी नियुक्ति हो चुकी है. रेलवे के प्रशासनिक स्तर में गिरावट का यह हाल है कि जो काम अब तक 4200 या 4600 ग्रेड-पे का स्टेशन मास्टर बखूबी कर रहा था, वही काम अब एसएस/जेएजी स्तर का अधिकारी भी सही ढ़ंग से नहीं कर पा रहा है. यही स्थिति जोनल मुख्यालयों के प्रत्येक विभागों में भी है. जहां पहले एक एचएजी और एक-दो एसएजी अधिकारी हुआ करते थे, वहां अब चार-चार, पांच-पांच एसएजी अधिकारी और प्रत्येक के नीचे लगभग इतने ही जेएजी, सीनियर एवं जूनियर स्केल अधिकारी हो चुके हैं.
रेलवे में अधिकारियों की बढ़ी हुई इस संख्या के लिए ज्यादा ट्रेनों, ज्यादा यात्रियों और बढ़े हुए रोलिंग स्टॉक का कुतर्क दिया जाता है. मगर यह नहीं बताया जाता है कि इसकी अपेक्षा जो दूसरे कार्य कम हो गए हैं, उनकी गणना क्यों नहीं की जाती? यदि ट्रेनों और यात्रियों की संख्या बढ़ी है, तो उसी अनुपात में कुशल रेलकर्मियों की संख्या बढ़नी चाहिए थी, न कि अधिकारियों की. निजी क्षेत्र अथवा कॉर्पोरेट कल्चर की यदि तुलना की जाए, तो रेलवे में अधिकारियों और कर्मचारियों दोनों की संख्या वर्तमान की भी आधी होनी चाहिए और यूनियनों की भूमिका सीमित की जानी चाहिए, क्योंकि आए दिन होने वाली तमाम फालतू यूनियन गतिविधियां उत्पादकता में बहुत बड़ी बाधा हैं. इससे मैन-पॉवर और मैन-ऑवर दोनों का भारी नुकसान हो रहा है. इससे रेलवे की कार्य-संस्कृति और कार्य-अनुशासन रसातल में पहुंच गया है. द ग्रेट एम. एस. गुजराल के बाद रेलवे में इसे सुधारने पर कहीं कोई हलचल होती नजर नहीं आई है.
रेलवे में अधिकारियों की अधिक संख्या का एक सबूत यह भी है कि हाल ही में रेलवे बोर्ड ने एक मुंह-जबानी आदेश देकर सभी रेलवे पीएसयू को कहा है कि वे अपने यहां एक-एक, दो-दो स्टोरकीपर्स (स्टोर्स ऑफिसर्स) के पद बनाएं. बताते हैं कि रेलवे बोर्ड के इस कथित मौखिक आदेश के मद्देनजर लगभग सभी पीएसयू ने ऐसे पदों का सृजन कर लिया है या करने की प्रक्रिया में हैं. इसका अर्थ यह है कि कलर ब्लाइंड पूर्व ‘स्टोरकीपर’ सीआरबी द्वारा अपने जिन तमाम कलर ब्लाइंड स्टोर्स ऑफिसर्स को मंडलों में एडीआरएम के पदों पर नियुक्त किया गया था, उन्हें अब रेलवे के सभी पीएसयू में एडजस्ट किया जाएगा. जबकि कोई भी ऐसा पद बनाए जाने से पहले कैबिनेट की मंजूरी ली जानी आवश्यक होती है, फिर भले ही वह रेलवे हो या इसका कोई पीएसयू अथवा केंद्र सरकार का अन्य कोई मंत्रालय, सभी के लिए कैबिनेट की यह मंजूरी लेना अनिवार्य है.
यह अंधेरगर्दी उस सरकार की नाक के नीचे खुलेआम चल रही है, जो हर साल दो करोड़ नए रोजगार पैदा करने की बात पिछले चार सालों से गला फाड़-फाड़कर दोहरा रही है, मगर इन चार सालों में आठ करोड़ तो क्या, देश में आठ लाख रोजगार भी पैदा नहीं हो पाए हैं. फिर भी रिटायर्ड कर्मचारियों को पुनः नौकरी पर बुलाकर देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को यह सरकार मुंह चिढ़ा रही है. यही नहीं, रेलवे बोर्ड ने हाल ही में एक पत्र जारी करके स्टोर्स ऑफिसर्स के लिए सभी जोनल और मंडल अस्पतालों में भी सीनियर स्केल और जेएजी स्तर के एक-एक, दो-दो पद बनाए जाने का निर्देश दिया है. जबकि इससे पहले कुछ जोनल अस्पतालों में एक सीनियर स्केल स्टोर्स ऑफिसर पदस्थ हुआ करता था, जिसके लिए मेडिकल कैडर का एलीमेंट इस्तेमाल किया जा रहा था. मगर अब बकायदे स्टोर्स कैडर का अधिकारी अपने स्टोर्स एलीमेंट के साथ वहां पदस्थ किया जाएगा. यह भी रेलवे में अधिकारियों की बढ़ी हुई संख्या का एक मजबूत प्रमाण है.
रेलवे में अधिकारियों की आवश्यकता से अधिक बढ़ी हुई संख्या का सबसे बड़ा कारण उन लगभग चार हजार अधिकारी पदों का डस्टबिन से निकालकर पुनः इस्तेमाल किए जाने में छिपा है, जो कि वर्ष 2001 से 2009 के दरम्यान तत्कालीन अटलबिहारी बाजपेई सरकार की नीति और छठवें वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार प्रतिवर्ष 3% की दर से खत्म (स्क्रैप) कर दिए गए थे. इस कृत्य के पीछे बहुत बड़ा भ्रष्टाचार भी छिपा हुआ है, जिस पर रेलवे बोर्ड सहित सरकार के स्तर पर भी पूरी चुप्पी इसलिए सधी हुई है, क्योंकि यदि अरबों रुपये के इस भीषण कदाचार की परतें खोली गईं, तो रेलवे बोर्ड के तत्कालीन कई उच्च अधिकारी लंबे नप सकते हैं. जबकि इस कदाचार का पूरा फायदा रेलवे के एक ग्रुप विशेष के अधिकारियों को मिला है, जो कि भारतीय रेल की वर्तमान दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण हैं.
ग्रुप ‘ए’ अधिकारी ही हैं ग्रुप ‘ए’ के वास्तविक दुश्मन
रेलवे में विभागीय तौर पर ग्रुप ‘बी’ में अधिकारियों का चयन तीन विभाग प्रमुखों की एक चयन समिति करती है, जिसका मुखिया संबंधित विभाग का प्रमुख अधिकारी (पीएचओडी) होता है. यह सर्वज्ञात तथ्य है कि आपसी लेनदेन, विजिलेंस और स्वयं की योग्यता, इन तीन माध्यमों से रेलवे में ग्रुप ‘सी’ और यहां तक कि ग्रुप ‘डी’ रेलकर्मचारी भी ग्रुप ‘बी’ पदोन्नत अधिकारी बनते हैं. इसका अनुपात क्रमशः 75%, 10%, 15% माना जाता है और रेलवे के लगभग सभी विभाग प्रमुखों की अवैध कमाई का यह सबसे बड़ा जरिया है. रेल प्रशासन यदि चाहेगा, तो ‘रेलवे समाचार’ उन विभाग प्रमुखों का नाम भी उसके सामने उजागर करेगा, जिन्होंने भारी-भरकम रकम लेकर पिछले 20 सालों में ऐसे चयन किए हैं.
रेल कर्मचारियों के हवाले से ‘रेलवे समाचार’ को ज्ञात हुआ है कि वर्तमान में ग्रुप ‘बी’ में पदोन्नति हेतु प्रति कैंडिडेट 20 लाख रुपये का रेट चल रहा है. इस जानकारी के आधार पर जब एक जोनल रेलवे के एक विभाग प्रमुख से दरयाफ्त किया गया, तो वह ‘रेलवे समाचार’ प्रतिनिधि के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो गया कि इस बार उसे बख्श दिया जाए. यह अवैध कमाई अपने हाथ से निकल न जाए, इसलिए तमाम विभाग प्रमुख या उच्च अधिकारी कतई नहीं चाहते हैं कि ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों का चयन यूपीएससी से कराया जाए. जबकि इसकी मांग खुद ग्रुप ‘सी’ के हजारों कर्मचारी और उनके संगठन काफी लंबे अर्से से करते आ रहे हैं. यही एकमात्र कारण है कि ग्रुप ‘ए’ के लगभग सभी अधिकारी खुद अपने ही ग्रुप के युवा अधिकारियों के वास्तविक दुश्मन बने हुए हैं.