April 7, 2019

रेलवे बोर्ड की ‘फिलॉसफी’ पर पटना हाई कोर्ट की रोक!

अरबों रुपये के पदोन्नति घोटाले में रे. बो. को पड़ी फटकार

पटना हाई कोर्ट ने नए स्थापना नियम पर दिया स्थगनादेश

अदालत ने रेलवे बोर्ड के उच्च हाकिमों को जमकर की खिंचाई

कड़ी हिदायत के साथ अगली सुनवाई की तारीख भी निर्धारित की

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल में हुए अरबों रुपये के ‘अधिकारी पदोन्नति घोटाले’ के मामले में अदालत के आदेश पर अमल करते हुए रेलवे बोर्ड ने 5 मार्च को नया स्थापना नियम (आरबीई 33/2018) जारी किया था. इसका अध्ययन करने के बाद यही लगता था कि मामले में सीधी भर्ती वाले अधिकारियों के साथ न्याय हुआ, मगर कुछ ही दिनों में रेलवे बोर्ड की सांठ-गांठ से मामला पलट गया और ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों की बल्ले-बल्ले हो गई, यानि रेलवे बोर्ड ने अदालत के आदेश की मनमानी व्याख्या करते हुए इसका सारा लाभ उनके हिस्से में डाल दिया.

इसके बाद भी मामला यहीं नहीं रुका. रेलवे बोर्ड ने तुरंत नई वरीयता सूची जारी करते हुए प्रमोटी अधिकारियों की दनादन पदोन्नतियां भी कर दीं. उधर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई टलती रही और रेलवे बोर्ड प्रमोटी अधिकारियों के लिए रातों-रात हीरो बन गया. रेलवे बोर्ड के इस मनमानी और एकतरफा रवैये से स्थिति ऐसी बन गई कि सीधी भर्ती वाले अधिकारी अपने संगठन (एफआरओए) से अलग होने लगे. अतः एफआरओए के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र देने की घोषणा कर दी. इसके परिणामस्वरूप अब मई में होने वाले अगले वार्षिक अधिवेशन में एफआरओए के नए नेतृत्व का चुनाव होगा.

अर्थात रेलवे बोर्ड के उलटी गंगा बहाने के इस विवादित परिवेश में युवा ग्रुप ‘ए’ अधिकारी बुरी तरह अवसादग्रस्त हो गए. उन्हें सांत्वना देने के लिए कुछ वरिष्ठ अधिकारी जहां वर्तमान रेल प्रशासन को कोस रहे थे, वहीँ रेलवे बोर्ड अपनी ट्रम्प चाल पर गुमान करके फूला नहीं समा रहा था. रेलवे बोर्ड के साथ सांठ-गांठ करके एक तरफ प्रमोटी अधिकारी संगठन का नेतृत्व प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों को ‘बच्चा’ कहकर अपनी पीठ थपथपा रहा था, तो दूसरी तरफ तमाम प्रमोटी अधिकारी फिर से युवा ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों को ‘डफर’ कहने लगे थे. मतलब युवा अधिकारियों को अपनी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरता नजर आ रहा था.

पटना कैट की संबंधित बेंच ने भी अवमानना मामले में अपने 11 पन्ने के आदेश में सभी संबंधित विषय-वस्तु का जिक्र करते हुए मामले को खारिज कर दिया, जिससे पूरा का पूरा माहौल प्रमोटी ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों की तरफ झुकता चला गया. पटना कैट के रवैये में आया यह आकस्मिक बदलाव अदालत में उपस्थित तमाम अधिवक्ताओं के लिए हैरान करने वाला था, जबकि अब तक इसी मामले में वह रेलवे बोर्ड पर अपना कानूनी डंडा चला रहा था. तथापि अदालत के आदेश, नियम-कानून और परिस्थितियां सब कुछ विपरीत होने के बावजूद प्रमोटी अधिकारी अपनी सफलता और थोक पदोन्नति पाकर झूम उठे. यदि यह सारा अन्याय खुलेआम हुआ और समस्त प्रक्रिया एवं व्यवस्था को ठेंगा दिखाया गया, तो इसका निहितार्थ यही निकाला जा सकता है कि रेलवे बोर्ड के स्तर पर ‘अंडर टेबल सेटलमेंट’ के बिना ऐसा होना कदापि संभव नहीं हो सकता था.

पटना हाई कोर्ट ने कड़ी फटकार के साथ स्टे लगाया

अवमानना मामले में कैट पटना के आदेश के खिलाफ वादी आर. के. कुशवाहा ने पटना हाई कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की. यह याचिका युवा ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों की तरफ से तेज-तर्रार और विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता एम. पी. दीक्षित ने 5 अप्रैल को दायर की. उन्होंने इसे 6 अप्रैल को हाई कोर्ट के समक्ष ‘अर्जेंट हियरिंग’ के लिए भी निवेदन दिया, जिस पर हाई कोर्ट ने अपनी स्वीकृति दे दी और अगले कार्य-दिवस यानि 9 अप्रैल को यह सुनवाई हुई. हाई कोर्ट ने खचाखच भरी अदालत में रेलवे की खिंचाई करने के साथ ही विवादित आरबीई 33/2018 पर अगली सुनवाई तक के लिए तात्कालिक रोक भी लगा दी. इससे पहले पिछले तीन सालों के दौरान रेलवे के प्रति उच्च अदालत को इतना तल्ख होते कभी नहीं देखा गया था.

जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी ने अपने आदेश और आरबीई 33/2018 में कोई तालमेल नहीं होने की बात तल्ख लहजे में कही तथा रेलवे द्वारा एन. आर. परमार मामले में सर्वोच्च अदालत के आदेश को ‘फिलॉसफी’ बताकर उसकी मनमानी व्याख्या करके कन्नी काट लेने पर रेलवे को आड़े हाथों लिया और खूब खरी-खोटी सुनाई. जस्टिस त्रिपाठी ने रेलवे के अधिवक्ता से कहा कि रेलवे के हाकिमों से कहो कि ड्रॉफ्ट लेटर को साइन करने से पहले थोड़ा पढ़ भी लिया करें. उन्होंने उसी नाराजगी भरे लहजे में यह भी कहा कि शायद कैट पटना की बेंच इन बड़े सरकारी हाकिमों से डर गई होगी, यदि वह नहीं सुधरे, तो यह न्यायालय पटना जंक्शन पर उनके सैलूनों की लाइन लगवा देगा, तब रेलवे के इन सभी बड़े हाकिमों की एक लाइन से अटेंडेंस यहीं लगेगी.

इसके बाद वादी कुशवाहा के विद्वान वकील दीक्षित ने अदालत को जब यह बताया कि ‘रेलवे ने पटना हाई कोर्ट के आदेश को लिखित रूप से ‘रेकेलिब्रेशन’ के साथ अपनाने की बात कही है.’ इस पर जस्टिस त्रिपाठी ने आगबबूला होते हुए कहा कि ‘रेलवे के इन बड़े हाकिमों को जल्द ही अदालत की भाषा में समझाना पड़ेगा कि ‘रेकेलिब्रेशन’ और ‘रिव्यु’ का मतलब क्या होता है?’ आगे न्यायमूर्ति ने यह भी कहा कि ‘प्रमोटी तो सिस्टम का हिस्सा होते हैं, उन्हें पता होता है कि कब, किस साहेब को कितना और कैसे तथा कितने बजे सैलूट मारना है, वह यह सब बखूबी जानते हैं, उनकी अपनी लॉबी है, जबकि यूपीएससी से आया बेचारा युवा अधिकारी तो अपने कामों में ही लगा रहता है, नया-नया आता है, उसे कुछ पता नहीं होता है.

न्यायमूर्ति त्रिपाठी ने रेलवे के अधिवक्ता को कड़ी हिदायत देते हुए यह भी कहा कि जवाब सोच-समझकर बनाईएगा, वरना अदालत द्वारा इस बार आलीशान सैलून के बजाय रेलवे बोर्ड के बड़े हाकिमों को ट्रेन के जनरल कंपार्टमेंट में बैठकर आने का आदेश दिया जाएगा. रेलवे की इस बचकाना हरकत से पूरे पटना हाई कोर्ट परिसर में कौतूहल का माहौल था. इन सभी अधिवक्ताओं का एक सुर में यही कहना था कि उच्च न्यायालय के सामने कोई प्रशासन इतना बड़ा दुस्साहस कैसे कर सकता है?

इसके पश्चात् न्यायमूर्ति त्रिपाठी ने कहा कि एन. आर. परमार मामले के आदेश में सीधी भर्ती ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों को इतना दिया गया है कि वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. उन्होंने रेलवे के अधिवक्ता से पूछा कि जब इस अदालत ने परमार मामले में सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के संबंधित पैरा का उल्लेख करते हुए स्पष्ट आदेश दिया था, फिर भी रेलवे बोर्ड ने वादी आर. के. कुशवाहा की वरीयता वर्ष 2007 के बजाय वर्ष 2009 में क्यों तय की? इस पर जवाब दाखिल करने के लिए रेलवे के अधिवक्ता ने चार हप्ते का समय देने की फरियाद की, जिस पर अदालत राजी हो गई.

रेलवे बोर्ड के साथ मिलकर प्रमोटी नेतृत्व ने प्रमोटियों को खूब ठगा!

युवा अधिकारियों की तरफ से एक के बाद एक कई मामले जब सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किए गए, तो रेलवे बोर्ड के साथ ही प्रमोटी नेतृत्व भी सकते में आ गया. इनमें से एक अवमानना का मामला रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, सेक्रेटरी और जॉइंट सेक्रेटरी के खिलाफ है. दूसरा अवमानना का मामला प्रमोटी नेता पी. आर. सिंह के खिलाफ दाखिल किया गया है. तीसरी एसएलपी में सभी लंबित मामलों को एकीकृत कर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई की याचिका दाखिल की गई है, जिससे रेलवे बोर्ड के साथ-साथ पूरा प्रमोटी नेतृत्व भी बुरी तरह घिर गया है. इस पृष्ठभूमि में जोड़-तोड़ की चालबाजी और कुटिल राजनीति की शुरुआत एक बार फिर की गई, जिसकी एवज में आरबीई 33/2018 का सृजन किया गया.

फोटो परिचय : प्रमोटी अधिकारियों के साथ ही रेलवे के कुछ कदाचारी अधिकारियों के भी सबसे बड़े खैरख्वाह बन गए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह प्रमोटी अधिकारी संगठन के नेताओं के साथ.

यह जानते हुए भी कि रेलवे बोर्ड का यह निर्णय अदालत के आदेश से बिलकुल भिन्न और विपरीत है, फिर भी इस तरह का अवैध गठजोड़ कर पूरे प्रमोटी कुनबे को गुमराह किया गया. अदालत के आदेश के आलोक में कोई न्यायपूर्ण, ठोस समाधान करने के बजाय तिकड़मबाजी से क्षणिक सफलता हासिल की गई. इस तरह यह निष्कर्ष क्यों न निकाला जाए कि पूरे कुनबे को गुमराह करके तिकड़मबाजी कर इकट्ठा की गई करोड़ों की धनराशि के बदले रेलवे बोर्ड से ‘अंडर टेबल सेटलमेंट’ किया गया? पटना हाई कोर्ट के स्टे के प्रकाश में जानकारों के दिमाग में यह सवाल भी उठ रहा है कि सभी जोनों-मंडलों के हजारों प्रमोटी अधिकारियों से करोड़ों की जो धनराशि जमा की गई, वह कहां गई? क्योंकि अदालतों में तो यह राशि खर्च नहीं हुई, यह तो जग-जाहिर है.

यह भी सर्वज्ञात है कि पिछले तीन सालों से लगातार जारी इस द्विपक्षीय अदालती लड़ाई को एक झटके में कैसे खत्म किया जा सकता है. फिर भी प्रमोटी नेतृत्व ने एक गुप्त योजना के तहत रेलवे बोर्ड को मिलाकर, राजनीतिक दबाव के नाम पर पूरा लीगल फंड पचा डाला. जानकारों का मानना है कि कुटिल एवं चालबाज नेतृत्व की उक्त गुप्त योजना यह थी कि फिलहाल जैसे-तैसे मामले को अपने पक्ष में सुलटा लिया जाए, बाद में अदालत का जो फैसला आएगा, उसको तो मानना ही पड़ेगा, अथवा तब की तब देखी जाएगी. इस प्रकार नेतृत्व ने पूरे प्रमोटी कुनबे को अंधकार में रखा.

फोटो परिचय : दिल्ली के एस्टेट एंट्री रोड स्थित अधिकारी क्लब में हाल ही में आयोजित केंद्रीय कार्यकारिणी कि बैठक के अवसर पर रेलमंत्री पीयूष गोयल का भारी-भरकम पुष्प-हार से स्वागत करते हुए इंडियन रेलवे प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन के पदाधिकारी.

जानकारों का कहना है कि चालबाज नेतृत्व को अपने कुनबे की यदि इतनी ही चिंता थी, तो जब पिछले वर्ष सीनियर स्केल से 6 साल वाला नियम खत्म हुआ था, तब उसने हो-हल्ला क्यों नहीं मचाया? इससे पहले कैडर रिस्ट्रक्चरिंग में हजारों जेएजी के पद खत्म कर दिए गए थे, तब क्यों नहीं किसी प्रमोटी नेतृत्व ने इसके खिलाफ आवाज उठाई? उनका कहना है कि आर. के. कुशवाहा का मामला आदलत में होने के कारण सभी को भय दिखाकर अकूत धन उगाही का कारोबार किया जा रहा है.

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 13 अप्रैल को है. उसी दिन लगभग यह भी तय हो जाएगा कि अदालत का फैसला किस के पक्ष में जाएगा, क्योंकि पिछली तारीख में अदालत द्वारा दी गई कड़ी हिदायत के अनुपालन में सभी संबंधित पक्षों ने अपना-अपना जवाब यथासमय दाखिल कर दिया है. इसलिए 13 अप्रैल को अंतिम आदेश की प्रबल संभावना भी है.