“पर उपदेश कुशल बहुतेरे”
जूडिशियरी, मिलीटरी सहित राज्यों तक कायम है टीएडीके की व्यवस्था
सुरेश त्रिपाठी
टेलीफोन सहायक/डाक खलासी (टीएडीके) की व्यवस्था जूडिशियरी सहित मिलेटरी, नेवी, एयरफोर्स तक किसी न किसी स्वरूप में जारी है। इसके अलावा केंद्र सहित लगभग सभी राज्यों द्वारा इसकी सुविधा न सिर्फ सर्विंग अधिकारियों को मिली हुई है, बल्कि रिटायर्ड अधिकारियों को भी मुहैया कराई जा रही है। सिर्फ रेलवे में ही यह उनके लिए आंख की किरकिरी बनी हुई है, जो या तो यह सुविधा भोगकर रेलवे से विदा (रिटायर) हो चुके हैं – “सुल्तान” जैसे कुछ घटिया और दगाबाज लोगों का इसमें शुमार होता है – या फिर यूनियनों से जुड़े वह कुछ लोग हैं, जिनकी तमन्ना अपनी तमाम गैरवाजिब सुविधाएं वसूली बनाए रखने के लिए अफसरों के बेडरूम तक घुसने और उन्हें बात-बे-बात पर ब्लैकमेल करने की है। रेलमंत्री इन्हीं के बहकावे में आकर शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। यह कहना है तमाम रेल अधिकारियों का।
शनिवार 8 अगस्त की वीडियो कांफ्रेंस में बोर्ड ने कहा कि चूंकि जूडिशियल और एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिस ने भी टीएडीके के ऊपर सवाल उठाया है, इसलिए भी इसका पुनरीक्षण करने की आवश्यकता है-
“In the VC today, Board has mentioned that the judicial and administrative offices have questioned the process of appointment of TADKs which allows a person to be appointed in a govt job without any competition, whereas normally there is a 1 to 1000 ratio of posts to appliicants. So the process will certainly have to be revised. ‘All’ officers may like to give their suggestions to SrDPOs/PCPO which can then be compiled and sent to Board.”
सुविधा भोगने के बाद दूसरों को उपदेश देने वाले होते हैं दगाबाज
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वह तथाकथित जूडिशियल अथॉरिटी कोई और नहीं, बल्कि अभी कुछ समय पहले तक रेलवे को अपनी सल्तनत समझकर चलाने वाले “सुल्तान” के नाम से ही कुख्यात रहा महानालायक, शोशेबाज नबाबी शौक पालने वाला एक महानौटंकीबाज ट्रैफिक अफसर ही है।
कई ट्रैफिक अधिकारियों का कहना है कि “खुद को किसी ‘बरबाद सल्तनत’ का ‘सुल्तान’ समझने वाला यह ट्रैफिक अफसर रेलवे में रहते अपने पूरे सेवाकाल में कोई ढ़ंग का काम नहीं तो किया, बल्कि इसके बजाय यह सिर्फ यही देखता रहता था कि उसके आगे-पीछे कितने खादिम चल रहे हैं। सुल्तान की तरह उसकी आगवानी हो रही है या नहीं? सुल्तान की तरह उससे उसके मातहत पेश आ रहे हैं या नहीं? यहां तक कि अब तक इसने बोर्ड मेंबर्स के लिए इयर मार्क्ड बंगला भी खाली नहीं किया!”
उनका कहना है कि रिटायरमेंट के बाद दिल्ली में ही किसी अधिकरण में रहने का जुगाड़ करने के बाद भी हाल-फिलहाल बंगला प्यून उर्फ टेलीफोन सहायक कम डाक खलासी (टीएडीके) से संबंधित एक विवाद में भी इस सुल्तान की खूब चर्चा हुई है। उक्त प्रकरण में अधिकारियों ने बताया कि टीएडीके का नाम चर्चा में आने के बाद पता चला कि इसने अपने प्रभाव में लेकर अपने एक जूनियर अधिकारी के यहां अपने समुदाय के एक लड़के को बंगला प्यून/टीएडीके में रखवाया था, तथापि वह उसके बंगले पर उसका ही काम कर रहा था।
रेलवे से हटते ही बाकी लोगों के लिए गलत कैसे लगने लगी यह सुविधा?
उनका सवाल यह है कि “यह समझ से परे है कि रेलवे में रहते हुए जिस सेवा को सही समझकर, जरूरी और जरूरत समझकर इस तथाकथित सुल्तान ने प्राप्त किया, रेलवे से हटते ही वह इसे बाकी लोगों के लिए गलत कैसे लगने लगी?”
वह कहते हैं कि “रेलवे के टिपिकल लोग अब तक अपने झूठी शान बघारने वाले आकाओं (हिपोक्रेट बॉसेस) को भुगतते रहे हैं। उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस तथाकथित ‘सुल्तान’ ने बिना सीधे संदर्भ और बिना किसी औचित्य के अपना यह सैडिस्टक विचार अपने किसी निर्णय में लिख डाला।”
भोगी गई सुविधा का खर्च सरकार को लौटाए सुल्तान
उनका कहना है कि “अब नैतिकता का तकाजा तो यह है कि यदि यह ‘सुल्तान’ अपने निर्णय में व्यक्त शब्दों से वास्तव में इत्तेफाक रखता है, तो सबसे पहले उसके द्वारा एक क्वैसी जूडिशियल ऑफिस होल्ड करने के चलते उसका यह नैतिक और वैधानिक दायित्व बनता है कि पहले जितने भी टीएडीके उसकी सेवा में लगाए गए, उनका अब तक का पूरा वेतन यह रेल को भुगतान करे और रिटायरमेंट के बाद किसी भी दूसरे पद के आवेदन में लिए जाने वाले लाभ के लिए यह डिक्लरेशन दे कि मेरी समझ से टीएडीके रखना अनुचित था, लेकिन फिर भी मैंने रखा। अतः उनको मेरी सेवा में सरकारी खाते से भुगतान किया गया उनका अब तक का खर्च (वेतन) मैं सरकार को लौटता हूं।”
समुदाय विशेष को हमेशा तरजीह देता रहा है सुल्तान
कुछ अधिकारियों का कहना था कि “जहां उसके विभाग के कई अधिकारियों को टीएडीके के भी लाले पड़े हुए हैं, वहीं यह तथाकथित सुल्तान अपनी धौंस देकर अभी भी अपने बंगले पर कई रेलवे कर्मचारियों की सेवाएं प्राप्त कर रहा है और उसमें भी वह अपने समुदाय विशेष के रेल कर्मचारी को ही भेजने का आदेश देता है। उसकी अनुपलब्धता पर ही यह किसी दूसरे स्टाफ को स्वीकार करता है। तथापि उसके साथ इसका बर्ताव भेदभावपूर्ण ही होता है। इसकी यह नवाबी रेलवे का वर्तमान निजाम आखिर क्यों बर्दाश्त कर रहा है?”
पोस्ट रिटायरमेंट इनको बहाल करने वालों को पता चलना चाहिए इनकी करतूतें
अधिकारीगण रेलवे में इसके तमाम कारनामों की चर्चा करते हैं और वह इतने ज्यादा आक्रोश में हैं कि उनमें से कई का कहना है कि इस तरह के लोग किसी भी संस्था का दुरुपयोग ही करते हैं और अपनी नबाबी शौक तथा हनक बनाए रखने के लिए अपने पद का हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर करते हैं। पोस्ट रिटायरमेंट इनको बहाल करने वालों को भी ऐसे लोगों की सारी करतूतों का पता चलना चाहिए, जिससे उन संस्थाओं का भी रेल जैसा हाल यह न कर सकें।
मंत्री का काम नहीं है कॉरिडोर और घरों में झांकना
रेल भवन/रेलवे बोर्ड के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर उच्च अधिकारियों तक में यह चर्चा का विषय है कि यह पहले मंत्री हैं, जो सौतिया डाह में इस स्तर पर पहुंच गए कि “इन्होंने हर कॉरिडोर में झांककर देखना शुरू किया और हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि यहां इतने सारे प्यून हैं, इतने सारे फालतू कर्मचारी और अधिकारी हैं, इनकी क्या जरूरत है, इन सबको हटाओ।” वह कहते हैं कि “ऐसा लगता है दूसरों के घरों में ताक-झांक करने की इनको पुरानी आदत है।”
अधिकारी बताते हैं कि मंत्री जी रेल भवन में अपने साठ-सत्तर लोगों को बैठाकर उन सबसे उनकी जासूसी करवाते हैं। यह लोग सीसीटीवी में देखते रहते हैं कि कौन किसके चैम्बर में गया, कौन किसके चैम्बर से निकला, कौन किससे मिलने आया, किससे मिलकर निकला। शायद इसी का परिणाम है कि मंत्री जी भी कॉरिडोर्स में ताक-झांक करने निकल पड़ते हैं।
उनका कहना है कि एक कैबिनेट मंत्री के पास जनता से जुड़े काम करने के लिए इतना कुछ होता है कि उसे सिर उठाने तक की फुर्सत नहीं होती, पर एक ये भी कैबिनेट मंत्री हैं, जिनके पास रेल भवन के कॉरिडोर्स और रेलकर्मियों-अधिकारियों के घरों में झांकने से ही फुर्सत नहीं है।
उनका कहना है कि, लेकिन अपने मामले में मंत्री जी का सब उलटा है। बाकी जिस मंत्रालय में इनका अतिरिक्त प्रभार है, वहां पर आईएएस होने के कारण इनका और न इनके चेले-चपाटों का तो कुछ चलता नहीं है, लेकिन रेलवे के दब्बू और स्वाभिमान विहीन अधिकारी तथा सीआरबी इनकी धौंस में आ गए। रेल मंत्रालय में जहां देर रात तक भी कई अधिकारियों को लगातार काम करना रहता है, वे भी अब बिना चपरासी के मजबूरी में और अनिच्छा से काम कर रहे हैं।
रेलमंत्री से एकदम उलट है प्रधानमंत्री की जीवनशैली
उन्होंने कहा कि इनके उलट प्रधानमंत्री की जीवनशैली साधारण है, इसलिए वे कुछ सख्ती करते हैं या नसीहत देते हैं, तो बात समझ में आती है। यदि वे भी चाहते तो अपनी माता जी की सेवा में 5/10 सरकारी आदमी लगा गुजरात में सकते थे। एक तरफ प्रधानमंत्री ऐसे आदर्श स्थापित कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके ऐसे मंत्री मुगलिया सल्तनत की तरह ऐशो-आराम के तमाम सरकारी संसाधन मुंबई-दिल्ली सहित हर जगह इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि दूसरे की जरूरतों को भी मजाक और गैरवाजिब बता रहें है।
रेलवे बोर्ड के बड़े अधिकारी और रेलवे से दूसरे मंत्रालयों में डेपुटेशन पर गए अफसर बताते हैं कि स्वयं प्रधानमंत्री की इतनी साधारण आवश्यकता और जीवनशैली होने के बावजूद भी उन्होंने पीएमओ की सुविधाओं को किसी भी रूप में कम नहीं किया है, बल्कि पहले से उन्हें और बेहतर ही बनाया है। उनका कहना है कि किसी और मंत्रालय में भी परंपरागत चली आ रही किसी सुविधा में कुछेक अपवाद स्वरूप मंत्रियों के कार्यालयों को छोड़कर कोई कटौती नहीं की गई है।
सिर्फ मैनपावर पर ही नुक्ताचीनी क्यों करते हैं रेलमंत्री
उनका कहना है कि जो लोग कथित कॉरपोरेट कल्चर की बात करते हैं, वे सिर्फ मैनपावर को लेकर ही क्यों नुक्ताचीनी करते हैं, जबकि वे भूल जाते हैं कि सरकार रोजगार मुहैया कराने वाली सबसे बड़ी संस्था है। फिर मैनपावर को छोड़कर किसी भी अन्य मामले में चाहे वह वेतनमान हो या अन्य सुविधाएं, वह किसी भी कॉर्पोरेट के सामने कहीं भी नहीं टिकते।
वह कहते हैं कि काम और जरूरत के समय सरकारी कर्मचारी हमेशा आगे रहता है। मन से या बेमन, उसे समर्पित होकर हर परिस्थिति में जनसेवा के कार्यों में जुटना ही पड़ता है। चालू महामारी के इस दौर में पूरा देश इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देख रहा है। परंतु कोई भी देख सकता है कि मंत्री ने अभी तक जितना भी निजीकरण और आउटसोर्स किया है, वह सब कहां हैं, वे सब ऐसे संकटकाल में भाग खड़े हुए हैं, कोई नजर नहीं आ रहा है, लेकिन वह अपनी पूरी कॉन्ट्रैक्ट अवधि का पूरा पैसा रेलवे से लेने का दावा पेश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि यही सरकारी अधिकारी और कर्मचारी अपनी जान की बाजी लगाकर और जान देकर भी ऐसे वैश्विक संकट के समय देश की लाइफलाइन बने हुए हैं। यदि मंत्री से कोई हठात पूछ ले कि कोविड-१९ में काम करते हुए उनके कितने अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी जान गंवाई है? रेलमंत्री यह भी बताने में शायद हकलाने लग जाएंगे। परंतु इस विकट परिस्थिति में जान देकर काम करने का तौहफा वह टीएडीके छीनकर और रेलवे तथा ट्रेनों का निजीकरण करके जरूर दे रहे हैं।
किसका भला होगा रेलमंत्री के तानाशाही रवैये से?
अधिकारियों का कहना है कि रेलमंत्री की पूरी मुहिम से किसका भला होगा, यह तो सिर्फ वही जानते होंगे, लेकिन इससे न रेलवे का, न देश का, और न ही जनता का कोई भला होगा, यह तो सब जानते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इनके तानाशाही रवैये से सिर्फ कर्मचारी और अधिकारी ही परेशान हैं, कई पूर्व और वर्तमान सांसद, जिनमें से अधिकांश एनडीए के ही हैं, बातचीत में बताते हैं कि इनके घमंडी और उच्छृंखल व्यहार से व्यथित होकर बहुत से सांसदों ने रेल मंत्रालय में इनके पास आना ही छोड़ दिया है। क्षेत्र की कोई जरूरत होने पर वह रेल राज्यमंत्री अथवा सीआरबी आदि अन्य संबंधित अधिकारियों से ही मिलना ज्यादा उचित समझते हैं।
MT told MR that he’ll find out reasons after reaching office
As told by a retired GM, the abolition of BPs/TADKs by the then MR, Madhu Dandavate, apart from agitation by the Officers and Associationd, the following incident happened –
One day the then MR Madhu Dandavate’s wife was travelling to Delhi by Mumbai Rajdhani and the train was running late. So MR rang up MT at around 8:00 AM to inquire about the reason for its delay.
That is when MT told him that he’ll find out reasons for its late running after reaching office at 10 hrs. On MR asking him the reason for this, MT explained that after abolition of Bungalow Peons his field officers had stopped taking position from their residence since they had to teach their children to school, do marketing for buying bread, milk, vegetables etc. so it’s only after coming to office at 10 hrs that they’ll be able to find out the reason from control office as to why Rajdhani was running late; and he as MT will be able to give him full details by 10:30 hrs.
That is when Madhu Dandavate realised that he had opened a Pandora’s box which will doom IR. So those orders were quietly withdrawn.
Those who have enjoyed the facility, now preaching abolition it is moral cowardice!
Another senior retired officer from 1962 batch said, “The bungalow peons were abolished by Madhu Dandwate as MR, Pratap Narain as President of the Federation of Railway Officers spearheaded an agitation based on a social boycott of Board members/MR, work to rule (accidents being an exception) and wearing of black bands. The orders were withdrawn and the MR expressed regret to him. I wore a band as Joint Director. If those who have enjoyed the facility and are now preaching abolition it is moral cowardice in my opinion, No offence intended!”