रेलवे बोर्ड की सीधी नहीं हो रही है पूंछ
लगातार जारी है सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन
स्पष्ट आदेश के बावजूद प्रमोटियों को दिया जा रहा प्रमोशन
सीधी भर्ती वाले अधिकारियों से किया जा रहा सौतेला व्यवहार
रंजीता रोहतगी की लीगल नोटिस पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं
प्रमोटी संगठन के साथ जारी है सेक्रेटरी, मेंबर स्टाफ की साठ-गांठ?
सुरेश त्रिपाठी
अरबों रुपये के ‘अधिकारी पदोन्नति घोटाले’ में कैट, उच्च न्यायालय और अब सर्वोच्च न्यायालय से कड़ी फटकार मिलने के बाद भी रेल प्रशासन (रेलवे बोर्ड) ‘प्रमोटी प्रेम’ में लगातार आतुर और व्याकुल दिख रहा है. सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट आदेश के बाबजूद जोनल रेलों को उनके स्तर पर निर्णय लेने की एक चिट्ठी लिखकर रेलवे बोर्ड कान में तेल डालकर सो गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने 3 मई 2018 के आदेश में यह सुनिश्चित कर दिया है कि न्यायालय द्वारा 15 दिसंबर 2017 को दिया गया आदेश पूर्ववत जारी रहेगा. यह आदेश प्रमोटी अधिकारियों की स्टे याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है.
ज्ञातव्य है कि इस स्टे याचिका में प्रमोटियों द्वारा सर्वोच्च अदालत से यह प्रार्थना की गई थी कि रेलवे बोर्ड के 6 और 7 दिसंबर 2017 के आदेश पर रोक लगा दी जाए. इस आदेश से पांच साल की ग्रुप ‘ए’ की सेवा दे चुके सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को एडहॉक जेएजी में पदोन्नति देना है और पदोन्नति प्राप्त प्रमोटी अधिकारियों को डिमोट करना है. सर्वोच्च न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलने से प्रमोटी अधिकारी डिमोट हो गए थे. बहुतों ने अनेकों कैट से स्टे लाकर अपनी कुर्सियां बचा ली थीं. इसके फलस्वरूप रेलवे बोर्ड ने 19 जनवरी 2018 को यह कहते हुए सीधी भर्ती वाले अधिकारियों की पदोन्नति रोक दी थी कि वरिष्ठता के नियम और सूची में बदलाव किया जा रहा है, तब तक के लिए किसी को भी प्रमोशन नहीं दिया जाएगा.
तत्पश्चात रेलवे बोर्ड ने आरबीई 33/2018 जारी किया और डिमोट हुए प्रमोटी अधिकारियों को दनादन उनके मलाईदार पदों पर बैठा दिया गया. कई जोनल रेलों से यह खबर मिली है कि डिमोट हो चुके प्रमोटी उस दौरान एडहॉक जेएजी पद पर एमबी पेमेंट के बिलों पर अनैतिक रूप से साइन करते रहे. यहां सवाल यह उठता है कि जब प्रमोटी अधिकारियों की स्टे याचिका खारिज हो गई है, तो सीधी भर्ती वाले अधिकारियों का प्रमोशन क्यों रोका गया? 3 मई 2018 वाले सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आए हुए 20 दिन से ज्यादा बीत चुके हैं, फिर भी रेलवे बोर्ड खामोश क्यों है? सवाल यह भी है कि सर्वोच्च अदालत के आदेश के परिप्रेक्ष्य में रेलवे बोर्ड ने जोनल रेलों को स्पष्ट निर्देश क्यों नहीं दिया है?
इसके परिणामस्वरूप अलग-अलग जोनल रेलों ने अपने-अपने हिसाब से एडहॉक जेएजी में प्रमोटियों की पदोन्नति जारी रखी हुई है. उदाहरणस्वरूप दक्षिण पूर्व रेलवे ने 16 मई 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के स्पस्ट आदेश को दरकिनार करते हुए प्रमोटी अधिकारियों का प्रमोशन किया. अर्थात सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुलेआम अवमानना की जा रही है और सेक्रेटरी/रे.बो. तथा मेंबर स्टाफ चैन की बंसी बजाते हुए सर्वोच्च अदालत को मुंह चिढ़ा रहे हैं. ऐसा लगता है कि जवाबदेही, उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी से कोसों दूर यह दोनों अधिकारी चेयरमैन, रेलवे बोर्ड को अदालत के सामने बहुत मुश्किल में डालने वाली कोई तिकड़मी साजिश रच रहे हैं.
प्रमोटी अधिकारियों द्वारा फैलाई जी रही हैं विभिन्न भ्रांतियां
प्रमोशन के मुद्दे पर लगभग सभी प्रमोटी अधिकारी और उनके तथाकथित गॉडफादर, जिन्हें वास्तव में अब कोई तनिक भी भाव नहीं देता है, आजकल कानून के बहुत बड़े ज्ञाता बन गए हैं और अपने हिसाब से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का मतलब निकालकर प्रमोटियों को न सिर्फ भरमा रहे हैं, बल्कि रेलवे बोर्ड के तिकड़मबाज सेक्रेटरी और जॉइंट सेक्रेटरी सहित मेंबर स्टाफ को भी रास्ता दिखाने का प्रयास कर रहे हैं. यह तथाकथित गॉडफादर प्रमोटियों और रेलवे बोर्ड के मूढ़ों को यह समझाने का कठिन परिश्रम कर रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा है.
अब इन मूढ़ों को कौन समझाए कि कोई भी अंतरिम आदेश और याचिका में मांगी गई रिलीफ दोनों को एक साथ मिलाकर मतलब निकाला जाता है. अगर आदेश में कुछ स्पष्ट नहीं है, तो सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 3 मई 2018 को प्रमोटी अधिकारी यथास्थिति (स्टेटस-को) बनाए रखने का आदेश दिए जाने की गुहार लगाते हुए क्यों गिड़गिड़ा रहे थे? और जब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांग खारिज कर दी है, तो उसका क्या मतलब निकलता है? इसका मतलब यह होता है कि शुरुआत से ही सीधी भर्ती वाले अधिकारियों की पदोन्नति पर कोई प्रतिबंध नहीं है, इसलिए उनका पांच साल पूरा होने के उपरांत एडहॉक जेएजी में प्रमोशन होना चाहिए. तात्पर्य यह है कि फसाद की जड़ जब सिर्फ प्रमोटी अधिकारियों की गैर-कानूनी पदोन्नति थी, जिस पर अदालत पहले ही रोक लगा चुकी है, तो वर्तमान स्थिति में सिर्फ सीधी भर्ती वाले अधिकारी ही प्रमोशन पाने के हकदार हैं.
15 दिसंबर 2017 के आदेश की मई 2018 में पुनरावृत्ति होने का मतलब
1. रेलवे बोर्ड के 6 और 7 दिसंबर 2017 वाले आदेश पर प्रमोटी संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में स्थगन याचिका दायर की थी, जिसको खारिज करने के साथ-साथ न्यायालय ने 12 जुलाई 2016 के बाद रेगुलर हो चुके प्रमोटी अधिकारियों को भी प्रोटेक्ट नहीं किया था. इस वजह से सीधी भर्ती वाले अधिकारियों का एडहॉक जेएजी में प्रमोशन जारी रहा और प्रमोटी अधिकारियों का डिमोशन होने लगा.
2. डिमोशन के खिलाफ प्रमोटी अधिकारियों ने तथ्यों को छुपाकर अनेकों कैट से स्टे प्राप्त करके तात्कालिक तौर पर अपनी लाज और कुर्सी बचा ली थी. उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च अदालत के आदेश को छुपाना भी एक अपराधिक कृत्य है.
3. रेलवे बोर्ड ने 19 जनवरी 2018 को सीधी भर्ती वाले अधिकारियों का भी प्रमोशन यह कहते हुए रोक दिया कि नए वरीयता नियम बनाने तक कोई प्रमोशन नहीं किया जाएगा. रेलवे बोर्ड का यह कृत्य अदालत को दिग्भ्रमित और प्रमोटियों को फेवर करने वाला था.
4. प्रमोटी अधिकारियों ने डिमोशन के खिलाफ तथ्यों को छिपाते हुए कुल 17 कैट में मामले दायर किए थे. सर्वोच्च अदालत के आदेश के परिप्रेक्ष्य में उनका यह कृत्य मामले को अत्यधिक उलझाने में रेलवे बोर्ड के कुछ दुष्ट अधिकारियों की रणनीति को संबल प्रदान करने वाला था.
5. इसके परिणामस्वरूप सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को रेलवे बोर्ड और प्रमोटी संगठन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना का मामला दाखिल करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसका स्पष्ट उल्लेख सर्वोच्च न्यायालय ने 3 मई 2018 के आदेश में किया है.
6. 12 मई 2018 के आदेश में सर्वोच्च न्यायालय के 15 दिसंबर 2017 वाले आदेश की पुनरावृत्ति का मतलब यही है कि इस अंतराल में निचली अदालतों के जितने भी आदेश/निर्णय आए हैं, और रेलवे बोर्ड ने जो नियम बनाए हैं, सभी पर रोक लग गई है.
7. कैट से स्टे प्राप्त जितने भी प्रमोटी हैं, सभी को डिमोट करना होगा, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस दरम्यान आए ऐसे सभी आदेशों को ओवर रूल कर दिया है.
8. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरबीई 33/2018 पर लगाई गई रोक का तात्पर्य यही है कि पांच साल वाले सीधी भर्ती अधिकारियों को पदोन्नति दिया जाना न्यायसंगत है.
9. उपरोक्त तथ्यों के अलावा रेलवे बोर्ड अथवा प्रमोटी या उनके तथाकथित गॉडफादर सर्वोच्च अदालत के आदेश का जो भी निष्कर्ष निकाल रहे हैं, वह निरर्थक ही साबित होने वाला है.
इतने गंभीर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आए हुए भी लगभग एक माह बीतने जा रहा है, फिर भी रेलवे बोर्ड सोया हुआ है, जबकि उसके पास स्थायी रूप से लीगल एडवाइजर है. इसके साथ ही एएसजी को भी सर्वोच्च न्यायालय के लिए हायर किया गया था. इन दोनों वरिष्ठ कानून ज्ञाताओं से भी इस मामले में वस्तुनिष्ठ सलाह ली जा सकती है. परंतु प्रमोटी प्रेम में पागलाया हुआ रेलवे बोर्ड जोड़तोड़ और कदाचार की सारी हदें पार कर चुका है. रेलवे बोर्ड को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है कि अधिकारियों के अभाव में जोनल एडमिनिस्ट्रेशन पूरी तरह से पैरालाइज हो गया है. रेलवे बोर्ड ने अदालती आदेशों को मजाक बना दिया है. यह हद से ज्यादा ढ़ीठ होने का प्रमाण है. ऐसे में अदालत द्वारा जब तक दो-चार अधिकारियों को जेल नहीं भेजा जाएगा, तब तक उनकी पूंछ सीधी नहीं हो सकती है.
इसके अलावा यह पूरा मामला गजटेड कैडर से जुड़ा हुआ है. ऐसे में इस पूरे मामले का निपटारा एस्टेब्लिशमेंट डायरेक्टरेट से करने को कहा जाना चाहिए. महा-तिकड़मबाज और प्रमोटी संगठन के साथ अंडर-टेबल समझौते के तहत काम कर रहे एक जॉइंट सेक्रेटरी की जोड़तोड़ के चलते रेलवे बोर्ड पिछले कई सालों से अपनी फजीहत करवा रहा है. शायद इसके पीछे भी कोई गहरी साजिश अथवा सोची-समझी रणनीति होगी, क्योंकि यदि यह मामला किसी सीधी भर्ती वाले अधिकारी के हाथ चला गया, तो वह दूध का दूध और पानी का पानी करके छोड़ेगा. इसलिए अकर्मण्य हो चुके अधिकारियों के हाथ में इस तरह का अति-संवेदनशील मामला नहीं दिया जाना चाहिए. अब रेलवे बोर्ड को यह तय करना है कि किस तरह सरकारी तंत्र की लाज भी बच जाए और अवमानना की कार्रवाई से भी बचा जा सके?