“समाज में गालियों का महत्व !”
हमारी सामाजिक परम्परा में गालियों का बहुत पुराना इतिहास है। ये अभिव्यक्ति का एक जरिया भी हैं जिससे मानव मन के भीतर जमा हुआ गुस्सा, हताशा और अवसाद फूटकर बाहर निकलता है!
लॉकडाउन ने रमज़ान के रंग भी फीके कर दिए हैं। इफ़्तार दावतें बंद हैं। शाकाहारी होने के बावजूद मैं इफ़्तार दावतों का खूब आनंद लेता था। राजनैतिक तौर पर इफ़्तार दावतों की शुरूआत लखनऊ से हेमवती नंदन बहुगुणा ने की थी। इसलिए लखनऊव्वा लोगों में इफ़्तार दावतें उनके समाज जीवन का हिस्सा होती थीं।
कल मैं अपने एक सहयोगी को दफ़्तर में ही इफ़्तार करा रहा था ताकि कुछ पुण्य लाभ कमा लूं। इफ़्तार से पहले उन्होंने इफ़्तारी की दुआ पढ़ी- “अल्लाह हुम्मा लका समतू व बिका आमंतु व अलइका तवक्कलतु व आला रिज़किका अफ्तरतु”। मैंने कहा, हमारे यहां भी भोजन से पहले भोजन का मंत्र है- “ॐ स: नाववतु। स: नौ भुनक्तु। स: वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै”।
बहरहाल हम लोगों ने भोजन का मंत्र पढ़कर इफ़्तार शुरू किया। रोजे से रहने वाले मेरे सहयोगी ने मशहूर शायर साग़र ख़य्यामी के बेटे हसन रशीद के हवाले से एक किस्सा सुनाया। घटना अरबी और उर्दू शब्दों के संयोग पर आधारित थी। विचित्र इसलिए थी, क्योंकि अर्थ का अनर्थ हो रहा था।
उन्होंने बताया, “रमज़ान में मेरे पड़ोसी ज़िया साहब हाथों में बड़े-बड़े, सामान से भरे थैले लिए जा रहे थे। चांदनी रात थी। जैसे ही वे मेरे सामने से गुज़रे, मैने कहा,”ज़िया साहब, रमज़ान मुबारक!” जिया साहब झट से रुके। मुझे पास बुलाया और सख़्त लहजे में बोले, “आप तो पढ़े-लिखे मालूम होते हैं!”
“जी हुज़ूर, कुछ तो पढ़ाई की है”, मैनें भी सर झुकाकर जवाब दिया। जिया साहब कहने लगे, “रमादान होता है सही लफ़्ज़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ़्ज़ है, अरबी की तरह बोला जाना चाहिए।”
मैने सिर झुकाकर अपनी गलती कूबूल कर ली और कहा, “आप सही कह रहे हैं धिया साहब!” जिया साहब फ़ौरन चौंके। कहने लगे, “ये धिया कौन है।” मैने कहा, ‘आप’। “कैसे भई मैं तो ज़िया हूँ..!” मैने कहा, “जब रमज़ान, रमादान हो गया, तो फिर ज़िया भी तो धिया हो जाएगा। ये भी तो अरबी का लफ़्ज़ है! ज़्वाद का तलफ़्फ़ुज़ ख़ाली रमादान तक क्यों महदूद हो! अब तो ‘ज’ हर कहीं ‘ध’ होगा।”
ख़ैर, बात ख़त्म हुई। ज़िया साहब जाने लगे, तो फिर मैंने पीछे से टोक दिया, “कल इफ़्तारी में बकोड़े बनवाइएगा, तो हमें भी भेज दीजिएगा।” जिया साहब फ़ौरन फड़फड़ा के बोले “ये बकोड़े क्या चीज़ है मियां..” मैने कहा अरबी में ‘पे’ तो होता नहीं, तो पकोड़े बकोड़े ही तो हुए.. पेप्सी भी बेब्सी ही बोली जाएगी।” जिया साहब एकदम ग़ुस्से में आ गए, बोले.. “तुम पागल हो गए हो।” मैंने कहा “पागल नहीं बागल बोलिए, अरबी में ‘प’ नही ‘ब’ होता है। तो बागल ही हुआ न।”
अब जिया साहब बेहद ग़ुस्से में आ गए। कहने लगे, “अभी चप्पल उतार के मारूंगा।” मैंने कहा, “चप्पल नहीं शब्बल कहिए। अरबी में ‘च’ भी नहीं होता।” जिया साहब का पारा सातवें आसमान पर था। कहने लगे, “अबे गधे बाज़ आ जा!” मैंने कहा, “बाज़ तो मैं आ जाऊंगा, मगर गधा नहीं जधा कहिए, अरबी में ‘ग’ भी नहीं होता।”
अब वे क्रोध से किटकिटाते, तेज़ आवाज़ में चीखे, “तो आख़िर अरब में होता क्या है बे?” हम भी कम नहीं थे, कह दिया- “आप जैसे शूतिया।” जिया साहब एक पल के लिए रुके, ‘शूतिया’! “जी हां, अरबी में ‘च’ भी नहीं होता।” फिर बात समझ आते ही जूते पटकते हुए वहां से रुख्सत हो लिए।
इस क़िस्से के साथ हमारा इफ़्तार तो ख़त्म हो गया। मगर वह बात यहां कहां खत्म होती है। ऐसे ही नहीं लिखा गया है कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी। ज़िया साहब तो चले गए। पर अपने पीछे बहस छेड़ गए। काफी देर तक सोचते हुए मुझे उन भाषाविदों की याद आई, जो ये मानते हैं कि हिंद-आर्य भाषाओं की ‘स’ ध्वनि ईरानी भाषाओं की ‘ह’ ध्वनि में बदल जाती है। यही वजह है कि आज भी भारत के कई इलाकों में ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है।
इसी कारण ‘सप्त सिंधु’ पारसियों की भाषा में घुलकर ‘हप्त हिंदू’ में परिवर्तित हो गया। पारसियों का धर्मग्रंथ ‘अवेस्ता’ इसका प्रमाण है। इसीलिए ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को ‘हिंदू’ नाम दिया। तो ये ‘शूतिया’ भी उर्दू-अरबी की इसी गड्ड-मड्ड का नतीजा है। ‘शूतिया’ का हिंदी वर्जन ‘चूतिया’ हमारे समाज में बहुत ही प्रचलित है। किसी जमाने में इसे गाली मानते थे। पर अब शहरी अभिजात्य का यह मैनरिज्म है। हमारे यहां गालियों का भी अपना समाज होता है।
गालियों को लेकर बहुत सी भ्रांतियां जुड़ी हैं। मसलन ‘चूतिया’ शब्द आधुनिक समाज में अक्सर ही प्रयोग किया जाता है। ज़िया साहब इसी बात पर भड़क गए थे। हालांकि उनके संदर्भ में इसे ‘शूतिया’ कहा गया था, पर उन तक असली संदेश पहुंच चुका था। सच तो यही है कि ‘चूतिया’ शब्द भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने प्रवृत्तिगत संबोधनों में से एक है। इसका मतलब ये है कि सामने वाला व्यक्ति निरा गधा है।
इसी बात को कहने के लिए और भी शब्द हैं, मगर ‘चूतिया’ में जो मारक क्षमता है, वो किसी और में नहीं। शायद इसीलिए हम मौका मिलते ही इस शब्द का इस्तेमाल बिजली की तेजी से कर गुजरते हैं। ‘चूतिया’ की शाब्दिक उत्पत्ति संस्कृत के ‘च्युत’ से हुई है। ‘च्युत’ का अर्थ है, गिरा हुआ। गिर जाना या पतित हो जाना। आपने ‘अच्युत’ शब्द का प्रयोग खूब सुना होगा। अच्युत यानि अपने स्थान से न गिरने वाला। सो चूतिया उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने स्थान से गिर चुका हो। जो पतित हो चुका हो। जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी हो। इसे च्युत शब्द का अपभ्रंश भी कह सकते हैं।
हमारी सामाजिक परम्परा में गालियों का बहुत पुराना इतिहास है। ये एक जरिया भी हैं जिससे मानव मन के भीतर जमा हुआ गुस्सा, हताशा और अवसाद फूटकर बाहर निकलता है। यानि कि गालियां हमारे जीवन की ‘सेफ्टी वाल्व’ होती हैं, जो प्रेशर कुकर में बनी भाप को बाहर निकाल देती हैं और मानवीय धैर्य के कुकर को विस्फोट होने से बचाती हैं।
यदि समाज से गालियां हटा दी जाएं, तो समाज बीमार हो जाएगा। कह सकते हैं कि गालियों से ही समाज में स्वस्थ्य चित्त का निर्माण होता है। फिर, गाली क्या है? कुल जमा कुछ शब्दों का जोड़ ही तो है गाली। बिजली गुल होती है, तो लोग गाली पुराण का पाठ शुरू करते हैं कि इन बिजली वालों ने फिर लाइट गायब की.. इनकी.. उनकी..! नहाते हुए अगर नल का पानी चला जाए, तो फिर गालियों का डोज़ दूनी ही तेज़ी से निकलता है।
बात गाली पर हो और शर्त यह कि वह शालीनता की सीमा से बाहर न जाए, यह नट के डोर पर चलने जैसा है। अगर आप नाबालिग हैं या फिर आपको ऐसी बातों से परेशानी होती है, तो अच्छा होगा कि आप इस लेख को पढ़ना बंद कर कुछ और पढ़ें, क्योंकि गाली वैचारिक लिहाज़ से अपनी ताक़त दिखाने का ज़रिया भी है। आपका यह उद्देश्य तभी पूरा हो सकता हैं, अगर गाली सुनने वाले को बुरी भी लगे। गालियों से हमें यह भी मालूम पड़ता है कि हमारे समाज में किस चीज को बुरा माना जाता है। झगड़े की स्थिति में गाली एक रास्ता देती है। आप बजाए मारा-पीटी करने के, मुँह से कुछ कहकर अपनी नाराज़गी व्यक्त कर सकते हैं। यानि गाली लड़ाई का अहिंसक तरीक़ा भी है।
पिता के वैध होने न होने से ‘हरामी’ जैसी गाली बनती है। अधिकतर गालियां यौन अंगों और यौन सम्बंधों से जुड़ी हुई हैं। हमारी अधिकतर गालियां स्त्रियों की बात करती हैं। यानि आप का झगड़ा किसी से भी हो, गाली में अक्सर उसकी मां या बहन को ही पुकारा जाता है। यह स्थिति हमारे समाज में महिलाओं के प्रति बीमार मानसिकता का बोध कराती है। कटहल छीलना, घुईंया छीलना, और उखाड़ना भी हमारे समाज में गाली की श्रेणी में आता है। अगर किसी ख़ाली बैठे आदमी को पूरब में आप कह दें कि तू का कटहर छीलत हअउअ, या तूं का उखाड़त हऊअ, तो वह फौरन बुरा मान जायगा।
अगर नीयत साफ़ हो, तो गालियां जीवंत संस्कृति का प्रतीक भी बनती हैं। जैसे देश में हर दस कोस पर पानी और भाषा बदल जाती है, वैसे ही गालियों का भी व्याकरण बदलता है। मनोवैज्ञानिक रिचर्ड स्टीफ़ेंस का गालियों से पैदा होने वाली क्षमता के बारे में बेहद दिलचस्प दावा है। वो कहते हैं कि बात-बात पर गालियां देने वालों की दर्द बर्दाश्त करने की क्षमता ज़्यादा होती है। इसे साबित करने के लिए उन्होंने कॉलेज के छात्रों के साथ एक प्रयोग किया। उन्होंने बेहद ठंडे पानी में उनका हाथ डलवाया और कहा जो दिल में आए वो बोलो। प्रयोग में शामिल जिन छात्रों ने गाली-गलौज किया, वह ज़्यादा देर तक ठंडे पानी में हाथ रख पाए। स्पष्ट है कि गाली देने की वजह से ठंडे पानी से होने वाले दर्द को बर्दाश्त करने में उन्हें मदद मिली। इन लोगों के दिल की धड़कनें भी बढ़ गईं। मतलब इन छात्रों के लिए गाली देना एक तरह से पेनकिलर जैसा साबित हुआ।
गालियों को आप समाजवादी भी कह सकते हैं, क्योंकि यह अक्सर सामंती ताकतों के खिलाफ बकी जाती हैं। यानि गालियां हमारे लिए एक समतामूलक समाज का निर्माण करती हैं जिनमें सब बराबरी के दर्जे पर होते हैं।वंचित और शोषित का यह मनोवैज्ञानिक हथियार है। मार्क्स ने कभी सोचा भी न होगा कि वे बड़ी-बड़ी थ्योरी निकालकर भी सर्वहारा और बुर्जुवा के बीच की जिस खाई को नहीं पाट सके, भारतीय समाज ने उसे गालियों के जरिए कब का पाट रखा है।
हमारे यहां बसंतोत्सव की पुरानी परम्परा रही है। बारह महीनों में एक महीना हम बसंतोत्सव मनाकर अपना कलुष गालियों के जरिए ही बाहर करते थे। यह सब समयबध्द होता था। समाज में सबसे वरिष्ठ से लेकर सबसे कनिष्ठ तक सब इसका हिस्सा हुआ करते थे। तुलसीदास जी कह गए हैं- को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥ देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना।।
उन परंपराओं में ये गाली एक समय विशेष के खांचे में बंधी रहती थी, पर यहां तो ये सिलसिला अंतहीन हो गया। अब तो गाली शास्त्रार्थ रुकने का नाम ही नहीं लेता है। गाली पहले इन्सानी प्रवृतियों के लिए अनुमन्य थी। पर अब यह व्यक्तियों को दी जाने लगी है। वह भी सिर्फ़ उन्हें अपमानित करने के लिए।
हालांकि यह भी समाज का एक सच है कि जिसे हम गाली समझते हैं, अगर उसका सहज इस्तेमाल हो, उसके पीछे कोई एजेंडा न हो, तो वही गाली आनंदकारी हो सकती है। हम अक्सर ही लोगों को आपस में गालियों का इस्तेमाल करते और उसके बाद ठठ्ठा मारकर हंसते हुए देखते हैं। ऐसे विरले ही लोग हैं, जिन पर माता सरस्वती प्रसन्न होती हैं और उनके मुंह से गालियों का उच्चारण सुनते ही बनता है। गजब रस की धार बहती है!
हम अपने मुहल्ल्ले के हीरू सरदार से गालियां सुनते थे। वे गालियों के जरिए क्या आनंद की बरसात करते थे! गालियां एक बेतरतीब जीवन शैली की परिचायक हैं। गालियां न देना एक तरतीब है। गाली एक शब्द नहीं, वह प्रतीक है, व्यवस्थाओं से परेशान व्यक्ति की आवाज का। गाली कुछ लोग आदतन भी देते हैं। हंसते-हंसते भी देते हैं। उनके लिए यह मनोरंजन है, आमोद-प्रमोद का साधन है। ऐसा मानने वाले भी हैं कि जो व्यक्ति जितनी गाली देता है, वह दिल का उतना साफ होता है क्योंकि गालियों के उच्चारण में सारे भावों का विरेचन हो जाता है। सारे अच्छे-बुरे भाव निकल गए। दिल में कुछ भी नहीं रह जाता। हम एकांत में गाली देकर स्वयं को खाली कर सकते हैं। यानि गाली देना एक थेरेपी है। मेडिटेशन है। कैथारसिस है।
गालियां अगर प्यार से दी जाएं, तो जीते-जी जन्नत मिलने का अहसास देती हैं। गालिब चचा लिख गए हैं- “कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब, गालियां खा के बे-मज़ा न हुआ।” यानि “दुश्मन के होंठ इतने मीठे थे कि गालियां खाकर भी दिल का ज़ायका खराब नहीं हुआ।”
गालियों का साहित्य में विशेष स्थान है। काशीनाथ सिंह का बहुचर्चित उपन्यास “काशी का अस्सी” इस मामले में मानक की तरह देखा जाता है। इस उपन्यास को पढ़ते समय आपको गालियों की महिमा और उनके भीतर समाए रिश्तों को जोड़कर रखने वाले उर्वरक दोनों का पता चलेगा।
मशहूर साहित्यकार राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में गालियों की भरमार मिलती है। उन्होंने इसे खुलकर स्वीकार किया है। अपने उपन्यास “ओस की बूंद” की भूमिका में वे लिखते हैं- “मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे, तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा। यदि वे गालियां बकेंगे, तो मैं अवश्य ही उनकी गालियां भी लिखूंगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूं कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊं।” उन्होंने यह लिखते हुए इस उपन्यास की भूमिका को खत्म किया कि “यदि आपने कभी गाली सुनी न हो, तो आप ये उपन्यास न पढ़िए। मैं आपको ब्रश करवाना नहीं चाहता।”
उर्दू के महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी बात-बात में गालियां बकने के लिए मशहूर थे। शरीर में तरल द्रव्य की मात्रा का लेवल बढ़ते ही उनके मुंह से गालियां फूल की तरह बरसने लगतीं थीं। वे गालियां बकते हुए कब कविता और शायरी की ओर मुड़ जाते थे, किसी को समझ ही नही आता था। एक बार का दिलचस्प किस्सा है। वे मुंबई (तब बंबई) में फिल्म अभिनेत्री नादिरा के घर पर ठहरे हुए थे। उस रोज़ उन्होंने सुबह-सुबह लगा ली और शुरू हो गए। घबराई नादिरा ने तुरंत मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई को बुलावा भेजा। इस्मत पहुंचीं, तो फिराक अचानक से उनसे अदब और साहित्य की बातें करने लगे। वे उनसे उर्दू साहित्य की बारीकियों पर चर्चा करने लगे। नादिरा ने थोड़ी देर तक उनकी तरफ़ देखा और फिर बोलीं, “फ़िराक़ साहब आपकी गालियां क्या सिर्फ़ मेरे लिए थीं?” फ़िराक़ ने जवाब दिया, “अब तुम्हें मालूम हो चुका होगा कि गालियों को कविता में किस तरह बदला जाता है।”
हालांकि इस बात से मेरी असहमति रही है कि गालियों का जेंडर तय कर दिया जाए। गालियों को स्त्री विरोधी बना देना एक सामाजिक विसंगति है, जो समाज के अधोपतन के साथ प्रचलित हो गईं। हम ऐसी बहुत सी गालियां बकते हैं जो स्त्री की यौनिकता पर चोट करती हैं। ये पूरी तरह से स्त्री विरोधी गालियां हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गालियों का भी लिंग होता है।
उदाहरण के लिए पुर्तगाली और स्पैनिश की गालियां हैं- ‘वाका’ और ‘ज़ोर्रा’। इसका शाब्दिक अर्थ लोमड़ी और गाय होता है। मगर जब किसी महिला को ये गालियां दी जाती हैं, तो इसका मतलब ‘ख़राब चरित्र की महिला’ से होता है। इसके उलट जब यही गालियां पुरुषों को दी जाती हैं, तो इसका अर्थ ‘चालाक’ और ‘ताकतवर सांड’ हो जाता है। गालियों का ये लिंग विभाजन बेहद खतरनाक माना जाता है।
ताइवान में आम महिलाओं को ‘फुआ बा’ यानि ‘बर्बाद औरत’ और मॉडर्न महिलाओं को इंटरनेट पर ‘मुज्हू’ यानि ‘मादा सुअर’ के नाम से गाली दी जाती है। जितने अलग तरह के समाज हैं, उतनी ही अलग तरह की गालियां हैं। पूर्वीं एशियाई देशों में जानवरों के नाम पर गालियों का कोहराम मचा हुआ है। चीन में हालांकि आजकल कोरोना वाले चमगादड़ों का टेरर है मगर वहां कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ‘कछुआ’ को बहुत बुरी गाली मानते हैं। इसी तरह थाईलैंड में किसी को हिय्या (मॉनिटर लिजार्ड) कहना आपके शरीर की अस्थियों को चटका सकता है। अफ्रीकन द्वीप मेडागास्कर में डोंद्रोना (कुत्ता) और अम्बोआ राजाना (कुत्ते का बच्चा) सबसे खतरनाक गाली मानी जाती है।
इंडोनेशियन द्वीप जावा में ‘आसु’ (कुत्ता) और ‘अनक कम्पांग’ (सड़क का बच्चा) सबसे भयानक गालियां हैं। उत्तरी इंडोनेशिया में सबसे बुरी गाली ‘ताई लोसो’ (गंदी टट्टी) को कहा जाता है। मलय और उत्तरी सुमात्रा में पुकिमाई कहने पर आपका कई दिनों का मरम्मत का कोटा एक ही दिन में पूरा हो सकता है। नेपाल के काठमांडू शहर के नेवारी भाषी समाज में खिच्यु व्ह्हत (कुत्ते का पति) को बहुत बुरी गाली माना जाता है। यूरोप और अमेरिका में काले लोगों के लिए प्रयुक्त ‘नीग्रो’, ‘सेवेज’, स्पेनिश में ‘मुलाटो’, हिन्दी/उर्दू में ‘हब्शी’ शब्द गालियों की श्रेणी में आते हैं।
लेखिका और पत्रकार मेलिसा मोर अपनी किताब- ‘HOLY S**T: A Brief History of Swearing’ में बेहद ही दिलचस्प अंदाज में गालियों की कथा को बयां करती हैं। उनकी ये किताब द गार्जियन की बेस्ट सेलर लिस्ट में शामिल रही है। वे लिखती हैं कि लोग तीन कारणों से ये काम करते थे। कैथॉरसिस यानि विरेचन यानि भीतर के अंतर्मन में जमे हुए कचरे को उड़ेलकर खुद को शुद्ध कर लेना। दर्द और कुंठा को दूर करने और खुशी को जाहिर करने के लिए! इससे बेहतर और सरल उपाय और कोई नहीं हो सकता।
ये भी एक सच है कि ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के पहले संस्करण में ‘Fuck’ शब्द मिलता ही नहीं है क्योंकि वे इसे बुरा शब्द मानते थे। अंग्रेजी साहित्य में पहली बार इस शब्द के इस्तेमाल का साहर सर डेविड लिंडेसी ने किया। उन्होंने वर्ष 1535 में इसका इस्तेमाल किया। यानि गालियों का समाज की सतह पर प्रयोग करना खासा दुस्साहसिक रहा है। पिछली सदी की शुरुआत तक ब्रिटेन के कुलीनों में ‘Bloody’ बहुत ही बुरा शब्द माना जाता था। कई महान लेखकों को इसका इस्तेमाल करने पर आक्षेप सहना पड़ा।
वर्ष 1914 में जब अंग्रेजी के विश्व विख्यात साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटक ‘प्यग्मलिओन’ में एक पात्र ने इस शब्द का इस्तेमाल किया तो लंदन के ‘सभ्य-समूह’ ने इस शब्द (Bloody) का जमकर विरोध किया। ब्रिटिश समाज में हलचल मच गई। 18वीं-19वीं सदी तक आते-आते FUCK के अर्थ सर्वव्यापी हो गए। लेखक बी मर्फी ने वर्ष 2009 में ‘She’s a Fucking Ticket’ में इसका विस्तार से ब्योरा दिया है।
सो गालियों का इतिहास और भूगोल दोनों ही बेहद दिलचस्प और समृद्ध है। इनका बेवजह बुरा मानना निरर्थक है। गांव के गलियारे से निकलकर कस्बों की उहापोह से आगे बढ़ती हुई गालियां शहरों और महानगरों को छूते हुए राष्ट्रीय फलक तक फैल चुकी हैं। पर गालियों की भी अपनी एक मर्यादा होती है, जो व्यक्ति, समाज, स्थान और काल, इन चारों की सीमाओं से बंधी होती है। इन सीमाओं का सम्मान करें। मर्यादाओं का मान रखें। गालियों का प्रयोग जीवन में रस घोलने के लिए करें। फेसबुक पर कटुता फैलाने के लिए नहीं!
*लेखक : हेमंत शर्मा, प्रबंध संपादक, इंडिया न्यूज