April 25, 2020

आरक्षण का लाभ नीचे तक नहीं जाने दे रही क्रीमी लेयर –सुप्रीम कोर्ट

The Supreme Court of India

निर्वाचित सरकारों में आरक्षण के मौजूदा स्वरूप से उपजी विकृतियों से निपटने की इच्छाशक्ति नहीं है

प्रेमपाल शर्मा

सर्वप्रथम सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (22 अप्रैल 2020) की मुख्य बातें:

* आरक्षण की पात्रता सूची एससी/एसटी/ओबीसी की समीक्षा होनी चाहिए, ताकि नीचे तक इसका लाभ पहुंच सके।

* इन सभी वर्गों की सत्ता में भागीदारी और इनके साथ हुए भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण का प्रावधान शुरुआत में 10 वर्ष के लिए किया गया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समय-समय पर संशोधन तो हुए, लेकिन वर्गों की सूचियों की समीक्षा कभी नहीं हुई, जिससे लगातार आरक्षण का लाभ उठा रहे लोग इन सुविधाओं को अपने ही वर्ग में नीचे तक नहीं पहुंचने दे रहे।

* ऐसा लगता है कि निर्वाचित सरकारों में आरक्षण के मौजूदा स्वरूप से उपजी चुनौतियों, विकृतियों से निपटने की इच्छाशक्ति ही नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर विचार करने से पहले भारतीय न्यायपालिका के बारे में ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की किताब (An uncertain glory: India & it’s contradiction – भारत और उसके विरोधाभास) का एक अंश-

“भारतीय न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के विपरीत ज्यादा स्वतंत्र है। यहां न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच कोई द्वंद नहीं है। भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता ने अदालतों, खासकर उच्चतम न्यायालय को अपने फैसलों में क्षमता तथा न्याय के केंद्रीय मुद्दों पर स्वतंत्र एवं शक्तिशाली निर्णय करने में मदद की है। जैसे मौलिक अधिकारों की सुरक्षा, नीति निर्देशक सिद्धांतों में दिए गए आर्थिक तथा सामाजिक अधिकार, आदि.. चुनावी राजनीति में हार-जीत के प्रश्न और निहितस्वार्थ विधायिका, कार्यपालिका को ज्यादातर सही मुद्दों से भटकाकर लोकतंत्र का नुकसान ही करते हैं..।”

आरक्षण के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी सख्त टिप्पणी पहली बार नहीं की है। भारत सरकार के शासन में जितनी मुकदमेबाजी आरक्षण के प्रश्न पर हुई है और शायद संविधान में जितने संशोधन इस मुद्दे पर हुए हैं, दुनिया भर में भी शायद उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा। विद्वान लेखक ज्यां द्रेज-अमर्त्य सेन का निष्कर्ष इस बात को ही सिद्ध करता है कि देश के दूरगामी हितों को देखने की बजाय राजनीतिक सत्ताएं सही निर्णय लेने में कितनी कमजोर हैं।

इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने जोड़ा है कि जो भी आरक्षण है, संसद द्वारा स्वीकृत, वह वैसा ही बना रहेगा, लेकिन उसके सही हकदारों तक यह लाभ, यह सुविधाएं निश्चित रूप से पहुंचनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट भी इसी देश, इसी समाज का हिस्सा है। याद कीजिए 2016 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जोसेफ कुरियन ने कहा था कि, “जब क्रीमी लेयर का सिद्धांत ओबीसी पर लागू है, तो वह एससी-एसटी पर भी क्यों नहीं?” उन्होंने व्यक्तिगत अपना उदाहरण पेश करते हुए कहा था कि, “मेरे बेटे को मिलने वाली सुविधाएं और मेरे ड्राइवर को मिलने वाली सुविधाओं में बहुत अंतर है। एक जाति का होने के बावजूद भी मुझे या मेरे जैसे अमीरों को वह सुविधाएं क्यों मिलनी चाहिए?”

दूसरे शब्दों में जब तक सिर्फ जाति के इस इकहरे पैमाने से आरक्षण मिलता रहेगा, तो वह नीचे तक कभी नहीं पहुंचेगा। वर्ष 2006 में नागराज के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्य पीठ ने प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए भी कुछ ऐसी ही शर्तें कही थीं। जैसे कि यदि उस श्रेणी में उनका प्रतिनिधित्व पूरा नहीं होता हो और उससे आगे उनके पिछड़ेपन का कोई मानदंड भी बनाया जाए।

इसी प्रकार वर्ष 2018 में जरनैल सिंह के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर के सिद्धांत को एससी-एसटी पर भी लागू करने की बात दोहराई थी। फिर क्या हुआ? क्यों नहीं हुआ? सुप्रीम कोर्ट को इसीलिए यह दोहराना पड़ा है कि सरकारों में आरक्षण की चुनौतियों से निपटने की इच्छाशक्ति ही नहीं है।

ज्यादातर अंग्रेजी शासकों और शासन की बुराईयां करते हुए (मुगल वंश और मुस्लिम शासकों को बचाते हुए) हमारे इतिहासकार बार-बार “फूट डालो और राज करो” के जुमले को दोहराते रहते हैं, लेकिन उससे 100 गुना ज्यादा इस जुमले को आजादी के बाद भारतीय राजनीति में दुरुपयोग किया गया है। शासन की कमजोर इच्छाशक्ति हर क्षेत्र में झलकती है। वह शिक्षा हो, समानता की बातें हों, गरीबी हटाओ या लोकतंत्र के सभी स्तंभ। मुद्दे को फिर से जाति व्यवस्था की तरफ लाते हैं-

डॉ भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी दोनों की ही भूमिका ऐतिहासिक है। डॉ अंबेडकर का आग्रह था कि जब तक सामाजिक बराबरी नहीं होती, राजनीतिक आजादी का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन गांधी जी का यकीन था कि राजनीतिक आजादी से ही सामाजिक बराबरी और दूसरे निर्णय भारतीय बेहतर ले सकते हैं।

इसीलिए जिन वर्गों को, जातियों को सैकड़ों सालों तक वंचित रखा गया, उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए, उनके लिए आरक्षण की सुविधा संविधान में दी गई और विधायिका में भी। पूना पैक्ट से ही सवर्णों में आरक्षण शब्द से चिढ़ लगातार रही है, क्योंकि उनके संस्कारों, वर्ण व्यवस्था में समानता बहुत दूर की चिड़िया रही है। केवल नारों तक सीमित। व्यवहार से कोसों दूर। लेकिन कुछ शिक्षा के प्रसार, विकास की योजनाएं, शहरीकरण, ग्लोबलाइजेशन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण इत्यादि बातों के चलते सवर्णों को यह अहसास होने लगा कि मनुष्य-मनुष्य के बीच जाति-गोत्र का भेदभाव वाकई कलंक है। सख्त कानून भी बनाए गए ऐसे भेदभाव के खिलाफ और परिवर्तन की बयार शुरू भी हो गई।

निश्चित रूप से अभी इसे गांव-देहात तक जाने में और समय लगेगा, इसीलिए 10 वर्ष की अवधि को बार-बार बढ़ाने की जरूरत भी पड़ी है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सवर्णों-दबंगों को यह समझने की जरूरत है कि जब तक वे अपने को ऊंची जाति, श्रेष्ठता या जाति में यकीन करते रहेंगे, तब तक इस देश में आरक्षण भी रहेगा।इसलिए जाति के खिलाफ लड़ने की पहली जिम्मेदारी सवर्ण समाज की है।

जैसे वक्त के साथ नदी मैली होती जाती है और इसीलिए उसे साफ करने की जरूरत पड़ती है, वैसा ही बहुत सारे नियमों-परंपराओं-व्यवस्थाओं में होता है। संविधान में संशोधन भी तो इसी चेतना से होते हैं और इसीलिए आरक्षण की सूची उनके नियमों में पुनर्विचार की तुरंत जरूरत है।

पहले केवल सीधी भर्ती में आरक्षण था, फिर पदोन्नति में भी हुआ। फिर शिक्षा संस्थानों में भी। अगले पड़ाव में ओबीसी के लिए हुआ और पिछले दिनों 50% की सीमा को लांघते हुए 10% आर्थिक पिछड़ेपन के लिए भी। कुछ राज्यों में, जिनमें तमिलनाडु कर्नाटक आदि शामिल हैं, आरक्षण 70% को भी पार कर चुका है।

लेकिन इस बहस के शुरू होते ही दोनों पक्ष तलवार लेकर खड़े हो जाते हैं। न किसी को पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू याद आते, जिनका बार-बार कहना था कि कार्यकुशलता और दक्षता की कीमत पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। और न डॉ भीमराव अंबेडकर, जो इसे केवल 10 वर्ष तक रखना चाहते थे और उनकी सदिच्छा थी कि तब तक समाज बराबरी के स्तर पर पहुंचने की उम्मीद है।

आरक्षण के मुद्दे पर मंडल कमीशन के दौर में भी देशव्यापी बहसें लगातार चली हैं। और ऐन उसी वक्त कुछ लोग अमेरिका, जापान आदि देशों में एफर्मेटिव ऐक्शन की बातें करते हैं गलत तथ्य और आंकड़े देते हुए। शायद ही दुनिया का कोई देश हो जो शासन-प्रशासन से लेकर शिक्षा संस्थानों में जाति, उपजाति, जनजाति, अगड़े, पिछड़े, अति पिछड़े जैसे खानों में बंटा हो। धर्म और क्षेत्र के खानों को भी मिला दिया जाए, तो वाकई एक भानुमति का पिटारा। निश्चित रूप से यह खाने समाज के हर हिस्से में और मजबूत हुए हैं।

कुछ बुद्धिजीवी इन्हें आईडेंटिटी की तलाश के नाम पर महिमामंडित करते हैं और उसी तर्क से राजनीतिज्ञ भी यथास्थितियों को बनाए रखने में ही सामाजिक न्याय की चादर ओढ़े रहते हैं। अंजाम धीरे-धीरे शासन-प्रशासन और भी पतन की तरफ बढ़ रहे हैं। पचास के दशक में जो शिक्षा सभी के लिए बराबर थी, अब वह गरीबों की पहुंच से और दूर हो गई है। उसी प्रकार स्वास्थ्य सुविधाएं भी। कुछ लोगों का कहना है कि निजीकरण की तरफ इसी आक्रोश में देश और इसकी संस्थाएं और बढ़ रही हैं।

पिछले 20 वर्षों से आरक्षण की बहस का एक नया रूप सामने आया है। जैसे पहले सवर्ण लोग जाति व्यवस्था को बनाए रखने के पक्ष में तर्क देते थे (कुछ अभी भी देते हैं) वैसे ही आरक्षण से लाभ पाए व्यक्ति भी (इसे क्रीमी लेयर भी कह सकते हैं) यानि जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नौकरियों में, पदों पर आने के बाद ठीक हो गई है। इससे उनकी सामाजिक हैसियत भी बढ़ी है। अब वे इन सुविधाओं को वैसे ही बरकरार रखना चाहते हैं जैसे किसी वक्त सवर्ण, जिन्हें अक्सर ब्राह्मणवाद कहकर पुकारा जाता है, अपनी हैसियत को बनाए रखना चाहते थे। इसलिए आरक्षण के प्रश्न पर किसी भी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जैसे ही कोई निर्णय आता है, वे हाय-हाय करते हुए सड़कों पर उतर आते हैं। यह बार-बार हो रहा है। लोकतंत्र तथा सारी संस्थाओं और व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ाते हुए। ताजा उदाहरण बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में नियुक्तियों के रोस्टर का था।

हम सभी जानते हैं कि मेडिकल कॉलेज में प्रवेश करने और फिर उसमें प्राध्यापक बनने के लिए एक न्यूनतम योग्यता की जरूरत होती है। मौजूदा नियमों के अंतर्गत वहां के रेडियोलॉजी या दूसरी उच्च तकनीकी शाखा में आरक्षण का अनुपात बदल गया, यानि कि किसी शाखा में शत-प्रतिशत सवर्ण यानि पांडे, गुप्ता, ठाकुर और किसी में अनुपात से ज्यादा एससी-एसटी, ओबीसी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए अपने निर्णय में कहा कि सभी विभागों में भारत सरकार द्वारा निर्धारित आरक्षण की प्रतिशतता होनी चाहिए। ऐसे मामले रेलवे और दूसरे विभागों में भी इससे पहले आते रहे हैं और इसीलिए 14 प्वाइंट रोस्टर की बजाए पोस्ट बेस्ड रोस्टर सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के द्वारा पूरे देश में लागू किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने भी बहुत लंबी बहस के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को सही माना। यानि एससी-एसटी, ओबीसी का प्रतिशत तो वही रहेगा लेकिन उसकी गणना विभागवार की जाए। पूरे यूनिवर्सिटी की एक साथ नहीं।लेकिन प्रशासनिक दक्षता, शैक्षणिक योग्यता इन सारी चीजों को ठोकर लगाते हुए तर्क इसी बात पर चलते रहे कि एक-दो पोस्टें इधर जाएंगी या उधर कमी हो जाएगी।

जैसा अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज कहते हैं, राजनीतिज्ञों ने अपने वोट बैंक की खातिर इसमें हस्तक्षेप किया और पहले अध्यादेश निकालकर यथास्थिति लौटआई। और फिर संसद से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को उलटवा दिया। यह उस सरकार ने किया जो शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद द्वारा बदलवाने के खिलाफ दशकों तक रोना रोती रही।

एससी-एसटी, ओबीसी ऐक्ट के मामले में भी ज्यां द्रेज और अमृत सेन की बात सही निकली और सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता को वैसा ही संसद ने झटका दिया। हम कैसे धीरे-धीरे संस्थाओं की आजादी और उनके अंत की तरफ बढ़ रहे हैं यह अफसोसजनक और शर्मनाक है। सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसे सैकड़ों मामले पूरे विवरणों के साथ लाए गए हैं जिनमें आरक्षण का लाभ चंद जातियां और चंद व्यक्ति ही लगातार उठाते जा रहे हैं।

कुछ मोटे-मोटे ताजा उदाहरणों को ही सामने रखकर बात करते हैं- तीन वर्ष पहले टीना डाबी ने सिविल सेवा परीक्षा में टॉप किया था। बहुत खुशी की बात थी और एक महिला के नाते और ज्यादा खुशी की बात। लेकिन सबसे पहले टिप्पणी एक तत्कालीन सांसद की आई कि “एससी लड़की ने टॉप किया है।” यह शर्मनाक था, जहां व्यक्ति को जाति के ऐसे खाने से नापा-तोला जाए। लेकिन इसके क्रीमी लेयर पक्ष की तरफ विचार करने की जरूरत है। टीना डाबी के माता-पिता दोनों क्लास वन सर्विस में इंजीनियर रहे हैं आरक्षण के कोटे के तहत। न चाहते हुए भी टीना डाबी को उसका फायदा मिलेगा। और यदि वे चाहें तो उनकी अगली संतानों को भी मिलेगा।

सन 50 के बाद सैकड़ों आरक्षित वर्ग के मेधावी लोक सेवाओं में आए हैं। उनकी क्षमताओं पर यहां बात करने का आवश्यकता नहीं है। इनमें से कई कलेक्टर, डायरेक्टर, एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, जनरल मैनेजर, प्रोफेसर, वाइस चांसलर, संसद सदस्य हैं। कई पिछले 40-50 वर्षों से चाणक्यपुरी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या लुटियन दिल्ली के बंगलों में रह रहे हैं। जैसा जोसेफ कुरियन ने कहा कि “यदि आरक्षण का लाभ इन्हीं के बच्चों को मिलता रहा, तो वह कभी भी सबसे नीचे के पायदान पर नहीं पहुंच सकता।”

व्यवहार में देखा जाए तो मेरे गांव के अनुसूचित जाति के छीतरमल, ननुआ, छोटू आदि की हालत अभी भी वैसी ही बनी हुई है। वहां न वे सवर्ण जातियों की ज्यादती से पूरी तरह मुक्त हो पाए और न उन तक इस शहरी क्रीमी लेयर ने आरक्षण का कोई लाभ पहुंचने दिया।

मैं कोई नई बात नहीं कह रहा, इंदिरा साहनी वाले मामले में ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर का सिद्धांत इसीलिए लागू किया गया था, जिससे कि वाकई जरूरतमंद और जिनको लाभ मिलना चाहिए, उन तक लाभ पहुंचे। लेकिन वहां भी क्रीमी लेयर को एक लाख से बढ़ाकर आठ लाख कर दिया गया है। अब इसे और भी आगे बढ़ाने की तैयारी चल रही है। यह फिर भारतीय लोकतंत्र के लिए दु:खद होगा।

जब कोरोना वायरस में लाखों मजदूर सड़कों पर भूखे मर रहे हों, न उन्हें स्कूल जाने की सुविधा, न सिर पर कोई छत। इन्हीं गरीबों की दुहाई देते हुए उस क्रीमी लेयर को कुछ जातियां तो लागू ही नहीं होने दे रहीं तथा कुछ उसकी सीमाओं को और ऊपर उठाती जाने के लिए लगातार लामबंद रहती हैं। हिंदी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध के शब्दों में, “रात के अंधेरे में इन सभी जातियों, सवर्ण समेत, की क्रीमी लेयर के उस्ताद मिल बैठकर लोकतंत्र को चूस रहे हैं।”

और जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकारों में आरक्षण की चुनौतियों/बीमारियों से निपटने की इच्छाशक्ति ही नहीं बची। जो नौकरशाह न्यायपालिका की बुराइयों की तरफ उंगली उठाते हैं, सुप्रीम कोर्ट का इशारा उनकी तरफ भी है कि वह प्रशासन के सही निर्णय लेने में सबसे ज्यादा डरपोक और नाकारा साबित हुए हैं। सरकार को सही सलाह देना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। हर बार फुटबॉल को सुप्रीम कोर्ट के पाले में डाल देने से समस्याएं हल नहीं होने वालीं। सुप्रीम कोर्ट इस बात को भी दर्जनों बार रेखांकित कर चुका है।

संविधान की मूल संरचना, धर्म की व्याख्या, सूचना का अधिकार, हर धर्म की महिला के हक और अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हर बार आगे बढ़कर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा की है। क्रीमी लेयर खुद आगे आकर सुझाव दे, तो सोने में सुहागा होगा। सवर्णों की सी कट्टरता से बचें ! अपने भाईयों की खातिर ही सही !!

हमारी मांग ! सरकार तुरंत तीन कदम उठाए:

1. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार एससी-एसटी में आरक्षण के लिए पात्रता सूची की समीक्षा हो और पैमाना यानि क्रीमी लेयर उन्हीं के वर्गों की खातिर तुरंत लागू हो।

2. ओबीसी की क्रीमी लेयर, जो फिलहाल आठ लाख प्रतिवर्ष है, को घटाकर चार लाख किया जाए।

3. पूरे समाज में जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए शर्मा, पांडे, मिश्रा, ठाकुर, गुप्ता, चौधरी जैसे प्रचलित जातिवादी नाम-उपनाम (सरनेम) पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाए। जाति सूचक शब्द लगाना अपराध माना जाए।

सुप्रीम कोर्ट को एक बार फिर बधाई ! निष्पक्षता ! साफगोई ! और साहस के लिए !!

#प्रेमपाल शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय। संपर्क: 99713 99046.