November 8, 2024

सरकारी पेंशनर्स पर इतना मेहरबान क्यों हैं सरकार! कुछ प्रतिक्रियाएँ

मध्य रेलवे के रिटायर्ड डिप्टी एफए एंड सीएओ वासुदेव सिंह ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा, श्रीमान प्रेमपाल शर्मा जी जो पूर्व रेलवे स्टाफ कॉलेज वडोदरा (आजकल नाम बदलकर शायद नेशनल अकादमी ऑफ इंडियन रेलवे (#NAIR) कर दिया है) में प्रोफेसर थे, मैं भी उनके मातहत ट्रेनिंग करके आया हूँ, उनके इस लेख में कही गई सारी बातें सब पर लागू नहीं होती हैं। वह भी तो अच्छी खासी पेंशन ले रहे होंगे। उन्होंने भी तो उन सभी सुविधाओं को एंजॉय किया होगा जिसका उन्होंने अपने लेख में वर्णन किया है। क्यों नहीं आगे आकर अपनी अतिरिक्त पेंशन सरेंडर करने का ऑफर सरकार को दे दें। हाँ, यह सही है कि समाज में बहुत से लोग कठिन मेहनत मजदूरी करके पेट पालन कर रहे हैं और अन्य बुजुर्ग भोजन के लिए तथा युवा नौकरी पेशे के लिए मोहताज हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि अतिरिक्त पेंशन पर ही कुठाराघात कर दिया जाए। पेंशन किसी की मेहरबानी नहीं है, यह वह राशि है जो पेंशनर्स उनकी सेवा के दौरान उनके वेतन से की गई कटौती के बराबर सरकारी अंशदान के बजाय कमअधिक, मासिक किश्तों के रूप में दी जा रही है। अटल बिहारी वाजपाई जी की सरकार ने 2004 से राष्ट्रीय पेंशन योजना (#NPS) लागू किया था, उन नए एनपीएस पेंशनर्स से पूछिए क्या हालात हैं? माननीय शर्मा जी ने माननीय पॉलिटीशियंस के बारे में कुछ नहीं कहा, जो बगैर कुछ करेधरे के कईकई पेंशन ले रहे हैं। इनका कोई कंट्रीब्यूशन नहीं कटता है। त्रिपाठी जी, मेरे पास सरकार के लिए एक सुझाव हैक्यों सरकारी कर्मचारियों की सेवा अवधि 60 साल के बजाय 55 साल (#facewise) कर दी जाए और इस तरह से 50 लाख (लगभग) वर्किंग कर्मचारियों की 5 साल सेवा कम होगी जो 50 लाख x 5 साल=? उससे नई युवा पीढ़ी को मौका मिलेगा। एक बात और जो रिटायर किए जाएंगे हायर सैलरी पर होंगे और जो नए रिक्रूट होंगे वे न्यूनतम बेसिक पर लगेंगे।

नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे इम्प्लाइज यूनियन के उपाध्यक्ष विनीत मान ने लिखा, ऐसी सब बातें लिखने में ही अच्छी लगती हैं, क्योंकि लिखने वाले लेखक ख़ुद भारत सरकार के उच्चाधिकारी रहे हैं, पहले उन्हें अपनी पेंशन सरेंडर करनी चाहिए फिर लिखना चाहिए।

उपरोक्त दोनों वेटरंस के कथन पर प्रत्युत्तर में उपरोक्त शीर्षक के तहत लिखे गए लेख के लेखक प्रेमपाल शर्मा का कहना है, आभार दोस्तों! आपने पढ़ा और अपने विचार सामने रखे। बहुत संक्षेप में अपनी बात कहूँ तो सरकार पुरानी पेंशन पाने वालों को और ज्यादा क्यों देना चाहती है? क्या उनकी कोई डिमांड थी? मैं भी इस पेंशन को पा रहा हूं और मेरी अपनी समझ से वह पर्याप्त है। विशेषकर जब उड़ीसा में कोई ₹500 में अपनी बेटी को बेच देता है, बिहार में भूख से लोग मर रहे हैं.. आप सब विद्वान पढ़ेलिखे लोग हैं, देश की गरीबी को जानते हैं, तो एक ऐसे गरीबों के समुद्र में सरकार सरकारी कर्मचारियों पर अतिरिक्त मेहरबान क्यों हो रही है? क्या इसलिए कि दिल्ली में इलेक्शन रहा है कुछ रेवाड़ी बंटी जाए? नहीं!!! जब चारों तरफ लोग भूखे मर रहे हों, तो हमें सोचने की जरूरत होती है। मेरे दोस्तों मैं यहां अपनी आत्मकथा नहीं कहना चाहता, बस इतना कहना चाहता हूँ कि पर्याप्त पेंशन है, वरना लालच का तो कोई अंत होता ही नहीं है। हम जिस दुनिया में रहते हैं, हम उन सब को सुखी और प्रसन्न देखना चाहते हैं। चाहे वह घर पर काम करने वाली बाई हो, या कोई मजदूर हो। केवल पेंशन पाने वाले एक प्रतिशत लोगों का ही ध्यान नहीं रखा जाए। मैं उनकी कटौती की बात नहीं कर रहा। सभी को आदर सहित! रेलवे कॉलेज के दिनों की आपको याद है, मैं भी आप सबको याद करता हूँ! धन्यवाद !!”

इस विषय पर व्यापक सोच रखने और संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। यह कहना कि लेखक पहले आगे आकर अपनी पेंशन सरेंडर करे, यह न्यूनतम सोच का प्रतीक है, क्योंकि समाज और व्यवस्था के हित में वह संभवतः लेखक के व्यापक दृष्टिकोण को नहीं देख पा रहे हैं। सच बहुत कड़वा होता है, जो अधिकांश लोगों को पसंद नहीं आता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा व्यापक दृष्टिकोण के अभाव में देश के दूर-दराज गाँवों तक विकास की रोशनी स्वतंत्रता के 76 सालों बाद भी नहीं पहुँच पाई है। इसके लिए केवल सरकार या राजनेता दोषी नहीं हैं, बल्कि हम सब दोषी हैं, जो निजी हितों के आगे कुछ देखना ही नहीं चाहते हैं। इसी के चलते हम खानो-कोष्ठकों में बँटते रहे हैं, जिसके लिए आज उन्हीं राजनेताओं को आगे आकर कहना पड़ रहा है कि बँटोगे तो कटोगे! -संपादक