संवाद से मुंह क्यों चुरा रहे हैं डीजी/आरपीएफ?
डीजी/आरपीएफ की पैंतरेबाजी पर चुप क्यों हैं रेलमंत्री और रेलवे बोर्ड?
एसोसिएशन की मीटिंग्स पर बार-बार पैंतरा क्यों बदल रहे हैं डीजी/आरपीएफ?
क्या डीजी की हिम्मत है आरपीएफ एसोसिएशन की मान्यता खत्म करने की?
सुरेश त्रिपाठी
महानिदेशक, रेलवे सुरक्षा बल (डीजी/आरपीएफ) धर्मेंद्र कुमार अगले महीने सेवानिवृत्त हो रहे हैं. ऐसे मौके पर ‘रेल समाचार’, रेलवे की व्यापक सुरक्षा व्यवस्था और बल सदस्यों के कल्याण एवं उनकी भलाई के कई मुद्दों पर संवाद स्थापित करने हेतु उनसे मुलाकात करने का इच्छुक था. इसके लिए 10/11 जुलाई को दो दिन में लगातार करीब 12 बार से ज्यादा डीजी/आरपीएफ धर्मेंद्र कुमार को उनके मोबाइल पर संपर्क किया गया कि वह कोई उपयुक्त समय बता दें. परंतु उन्होंने एक बार भी कॉल रेस्पोंड नहीं की.
इसके बाद ‘रेल समाचार’ द्वारा उन्हें एक एसएमएस भेजकर निवेदन किया गया कि यदि उन्हें कोई समस्या नहीं है, तो व्यवस्था के हित में मुलाकात के लिए अपने कीमती समय और व्यस्त कार्यक्रम में से दो मिनट का समय दें. इसका भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. जबकि कुछ महीने पहले इसी संदर्भ में जब उन्हें कॉल किया गया था, तब वह लखनऊ में थे और तब उन्होंने कहा था कि अगली बार अवश्य मुलाकात करेंगे. अब वह इससे मुकर गए हैं, तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वह ‘रेल समाचार’ का सामना करने अथवा मीडिया के साथ मुलाकात और किसी प्रकार का संवाद स्थापित करने से अपना मुंह चुरा रहे हैं.
व्यापक जनहित के मुद्दों पर मीडिया से मुलाकात और चर्चा करने से किसी वरिष्ठ नौकरशाह को क्यों मुंह चुराना चाहिए? आखिर उन्हें किस बात की आशंका है? वह बात और मुलाकात क्यों नहीं करना चाहते? ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन से संवादहीनता के मुद्दे पर, बल सदस्यों के कल्याण, उत्पीड़न और प्रताड़नाओं के मुद्दों पर आखिर डीजी/आरपीएफ चर्चा करने से क्यों बच रहे हैं? क्या इसलिए कि वह सेवानिवृत्ति से पहले किसी प्रतिनियुक्ति की जुगाड़ में हैं और इसीलिए किसी प्रकार के विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं अथवा उन्होंने मुंबई में दिए गए मंत्री के एक फालतू बयान की आड़ में अपनी मनमानी करते हुए बल सदस्यों के उत्पीड़न और ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन को खत्म करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखना चाहते हैं?
डीजी/आरपीएफ ऐसा जानबूझकर शायद इसलिए कर रहे हैं कि कहीं उनकी पोल न खुल जाए, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के बारे में मंत्री को गुमराह करके एसोसिएशन से संबंधित बयान उन्होंने और आईपीएस लॉबी ने ही दिलवाया था. जबकि उक्त बचकाने बयान के बाद मंत्री ने दिल्ली पहुंचकर न सिर्फ आरपीएफ एसोसिएशन के वरिष्ठ पदाधिकारियों को बुलाकर उनसे मुलाकात की थी, बल्कि अपने उक्त बयान के लिए माफी भी मांगी थी. इस बात के गवाह वह लोग हैं जिन्हें मंत्री ने उक्त मुलाकात के लिए अपना मध्यस्थ बनाया था. अब मंत्री तो सार्वजनिक रूप से अपने बयान का खंडन करने से रहा, इसी का फायदा डीजी/आरपीएफ ने बल सदस्यों के मनमाने उत्पीड़न और ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन को नेस्तनाबूद करने के लिए उठाया है.
सबसे पहले उन्होंने स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 2017 के अवसर पर ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन की सितंबर में होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की अनुमति देने से यह कहकर मना कर दिया कि बंदोबस्त के परिप्रेक्ष्य में बल सदस्यों को नहीं छोड़ा जा सकता है. इसके बाद 26 जनवरी 2018 के मौके पर आतंकवादी गतिविधियों एवं हमले की आशंका के बहाने उन्होंने आगरा में होने वाली आरपीएफ एसोसिएशन की बैठक को स्थगित करा दिया. इसके बाद हर साल 7,8,9 जनवरी को नियत समय पर होने वाली एसोसिएशन की वार्षिक सर्वसाधारण बैठक को यह कहकर आगे बढ़ा दिया कि इसे फरवरी मध्य के बाद रखा जाए, क्योंकि संभावित आतंकवादी गतिविधियों के चलते फिलहाल बैठक के लिए बल सदस्यों को स्पेयर नहीं किया जा सकता है.
फोटो परिचय : केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनके कार्यालय में आरपीएफ कर्मियों की समस्याओं पर चर्चा करते हुए ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. रेड्डी और राष्ट्रीय महामंत्री यू. एस. झा.
फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई, जून बीत गया और अब जुलाई का महीना भी बीत रहा है, मगर अब एसोसिएशन की बैठक नहीं होने देने के लिए डीजी/आरपीएफ ने एक नया और बचकाना बहाना यह गढ़ लिया है कि एसोसिएशन ने अपने संविधान में उल्लेखित नियमों का उल्लंघन किया है और उसमें किए गए संशोधन पर सक्षम प्राधिकार (डीजी/आरपीएफ) की संस्तुति नहीं है. जबकि यह सच नहीं है. एसोसिएशन के संविधान की एक प्रति ‘रेल समाचार’ के पास भी मौजूद है और इसके अनुसार तथाकथित सक्षम प्राधिकार की संस्तुति की आवश्यकता सिर्फ संस्था के नाम में किए जाने वाले किसी प्रकार के संशोधन, परिवर्तन अथवा उद्देश्यों में किसी बड़े बदलाव पर ही होती है. यह बात सोसाइटीज ऐक्ट, 1960 के प्रावधानों से भी प्रमाणित होती है.
परंतु डीजी/आरपीएफ ने इसे ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन की कार्यकारिणी में पदों की संख्या और उन पर चयनित या नामांकित होने वाले पदाधिकारियों से जोड़ दिया है, जिसका उन्हें स्थापित नियमों के अंतर्गत कोई अधिकार प्राप्त नहीं है. ऐसा लगता है कि वह अपने कार्यकाल तक ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन की कोई बैठक नहीं होने देने की ठान चुके हैं. यदि ऐसा नहीं है, तो वह एसोसिएशन के चयनित पदाधिकारियों सहित मीडिया से संवाद स्थापित करने से क्यों बच रहे हैं? और रेलवे बोर्ड उनकी इस मनमानी पर कोई लगाम क्यों नहीं लगा पा रहा है?
फोटो परिचय : पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु के साथ उनके कार्यालय में आरपीएफ कर्मियों की समस्याओं पर चर्चा करते हुए ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. रेड्डी और राष्ट्रीय महामंत्री यू. एस. झा. उनके साथ हैं एनएफआईआर के अध्यक्ष गुमान सिंह और महामंत्री एम. राघवैया एवं अन्य पदाधिकारीगण.
संशोधित आरपीएफ ऐक्ट, 1985 के प्रावधान के अनुसार जिस दिन से उक्त ऐक्ट प्रभावित हुआ था, उस दिन से आरपीएफ में किसी बाहरी अधिकारी (आईपीएस) की प्रतिनियुक्ति को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया था. प्रावधान के अनुसार उस समय आरपीएफ में जो भी बाहरी अधिकारी नियुक्त था, उसे संसद द्वारा पारित उक्त कानून में सिर्फ दो ही विकल्प दिए गए थे. इसके अनुसार उसे या तो उसके पैतृक कैडर में वापस भेज दिया जाना था अथवा जबरन रिटायर कर दिया जाना था. इसके साथ ही उक्त कानून में यह भी प्रावधान है कि उसके लागू होने के समय यदि आरपीएफ में कोई संगठन कार्यरत है, तो वह भी यथावत और पूर्ववत कार्यरत रहेगा.
यह सारा इतिहास सर्वज्ञात है कि इसके बाद तत्कालीन डीजी/आरपीएफ ने किस तरह से उक्त दोनों प्रावधानों को निकालकर और रेल मंत्रालय से गजट नोटिफिकेशन नहीं होने देकर सरकार और पूरी व्यवस्था को गुमराह किया. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वर्ष 1985 से लेकर आज तक की तमाम सरकारें उक्त जोड़तोड़बाज डीजी का कुछ नहीं उखाड़ पाईं हैं. इसके साथ ही रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) भी आज तक आईपीएस के सामने दुम हिलाकर अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ता का परिचय देता आ रहा है.
फोटो परिचय : पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु के साथ आरपीएफ कर्मियों की समस्याओं पर चर्चा करते हुए ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन के राष्ट्रीय महामंत्री यू. एस. झा और यात्री सेवा समिति के सदस्य डॉ. अशोक त्रिपाठी एवं मोहम्मद इरफ़ान अहमद.
‘रेल समाचार’ का मानना है कि कानून बनाकर उसे लागू करवाने की संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार और अदालत के साथ ही संबंधित मंत्रालय की भी होती है. परंतु यहां यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि इस मामले में कानून बनने से लेकर अब तक की न सिर्फ सभी सरकारें असफल रही हैं, बल्कि रेल मंत्रालय भी आईपीएस के सामने दुम हिलाता रहा है. जबकि अपनी भूमिका से परे जाकर ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन इस कानून के संबंधित प्रावधानों को लागू करवाने के लिए लगातार आग्रही रही है.
परंतु आज करीब 33 साल बीत चुके हैं, मगर अब भी सरकार और रेल मंत्रालय उक्त कानून के संबंधित प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने से कन्नी काट रहे हैं. इसका मतलब सिर्फ यही निकाला जा सकता है कि सरकार और रेल मंत्रालय आईपीएस के दबाव में आकर और उनके हित में ही उक्त कानूनी प्रावधानों को लागू करने से बच रहे हैं. कानून और व्यवस्था के साथ यह धोखाधड़ी इसलिए हो रही है, क्योंकि सरकार में शामिल राजनेताओं/मंत्रियों सहित पक्ष-विपक्ष के लगभग सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार अथवा सत्ता के दुरुपयोग में आकंठ डूबे हुए हैं. यदि ऐसा नहीं है, तो सवाल यह उठता है कि वह फिर क्यों आईपीएस से डर रहे हैं?
ऐसी स्थिति में किसी को तो सामने आना ही था. इसलिए ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन ने सामने आकर उक्त कानून को लागू करवाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया और दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल करके आरपीएफ संशोधित ऐक्ट, 1985 की दोनों संबंधित धाराओं को लागू किए जाने की मांग की. अदालत, सरकार और रेल मंत्रालय, सबको बखूबी पता है कि उक्त कानून एकदम स्पष्ट है, उसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है. इसके साथ ही उन्हें यह भी पता है कि संविधान का आर्टिकल-33 आरपीएफ पर लागू नहीं होता है. सरकार के मांगे जाने पर ही पूर्व सॉलिसिटर जनरल के. के. वेणुगोपाल ने इस बारे में अपनी लिखित ओपिनियन भी दी है. तथापि अदालत को निर्णय लेने में शायद इसलिए कठिनाई हो रही है, क्योंकि कानून को लागू करने का स्पष्ट निर्णय देकर संबंधित न्यायाधिकारी सरकार और आईपीएस का कोपभाजन नहीं बनना चाहते हैं, अन्यथा उनकी अन्य क्या मजबूरी हो सकती है?
हालांकि ‘रेल समाचार’ का यह भी मानना है कि ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन को इस अदालती पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए था और स्वयं को बल सदस्यों के हितों एवं कल्याण के कार्यों तक ही सीमित रखना चाहिए था, जो कि उसका घोषित उद्देश्य भी है. यह जिम्मेदारी देश के किसी अन्य जागरूक नागरिक को उठानी चाहिए थी. इसके कारण सरकार और प्रशासन का उससे नाराज होना लाजिमी है. लगातार गरियाए जाने के कारण आईपीएस अधिकारी तो उससे स्थाई रूप से नाराज हैं ही. तथापि ‘रेल समाचार’ का मानना है कि यह सारी प्रक्रिया अथवा लड़ाई सैद्धांतिक और कानूनी है. इसके चलते सरकार और प्रशासन एवं संगठन दोनों पक्षों के बीच संवादहीनता की स्थिति नहीं होनी चाहिए. संवाद हर हाल में जारी रहना चाहिए, जिससे दैनंदिन समस्याओं का निपटारा तो होता ही है, बल्कि दीर्घ समय में सभी कठिन समस्याओं का भी हल निकल जाता है.
आरपीएफ सहित समस्त केंद्रीय बलों पर अपना वर्चस्व अथवा आधिपत्य बनाए रखने पर आईपीएस अधिकारी आखिर क्यों अड़े हुए हैं? आईपीएस की इसी अड़ीबाजी के कारण ही दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस गीता मित्तल ने मामले की सुनवाई के दौरान उपरोक्त कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि आखिर अन्य सेवाओं के अधिकारी कहां जाएंगे? यहां एक बार पुनः उल्लेखनीय है कि कानून लागू करने की वास्तविक लड़ाई न तो ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन की है, और न ही किसी जागरूक नागरिक की, बल्कि यह लड़ाई वास्तव में यूपीएससी से चयनित होकर आए अकर्मण्य आरपीएफ अधिकारियों की है, जो कि आईपीएस के सामने हमेशा भीगी बिल्ली बने रहते हैं और नपुंशकों की भांति चाहते हैं कि उनकी लड़ाई कोई और लड़े, मगर उसका फायदा उन्हें मिले!
वर्तमान स्थिति में अदालत ने आरपीएफ अधिकारियों को भी उक्त मामले में एक पक्षकार के रूप में शामिल होने और अपना पक्ष रखने की अनुमति दे दी है. इससे पूर्व, पूरी सदाशयता दर्शाते हुए याचिकाकर्ता ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन ने आईपीएस एसोसिएशन को भी इसमें एक पक्षकार बनने पर अपनी सहमति पहले ही दे दी थी. कोई निर्णय देने के बजाय एकल पीठ ने मामला बड़ी पीठ को रेफर कर दिया. इससे पहले मामले को जस्टिस गीता मित्तल की बेंच से हटा दिया गया था. मामले में अनिर्णय का शिकार रही एकल पीठ भी नियमानुसार बड़ी पीठ में शामिल है. यह सही है कि अदालत की अपनी प्रक्रिया होती है, तथापि संपूर्ण वस्तुस्थिति शीशे की तरह एकदम साफ होने के बावजूद अदालत को निर्णय लेने में देरी हो रही है, तो इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए, क्योंकि इधर डीजी/आरपीएफ की मनमानी लगातार जारी है और वह एक सामान्य सिपाही के स्तर पर उतरकर बल सदस्यों का उत्पीड़न करने पर आमादा हैं.
अब 29 जून 2018 को जारी हुए रेलवे बोर्ड के एक आदेशानुसार मेंबर ट्रैफिक से हटाकर डीजी/आरपीएफ को सीआरबी ने अपने मातहत ले लिया है. हालांकि रेलवे के सर्वोच्च पदाधिकारी (सीआरबी) के मातहत होने से भी डीजी/आरपीएफ की मनमानी पर कोई अंकुश लग पाएगा, इसमें संदेह है, क्योंकि जिस तरह डीजी/आरपीएफ ने तमाम बल सदस्यों को तितर-बितर करने का आदेश जारी किया है, उसे सीआरबी ने अब तक स्टे नहीं किया है. इसके अलावा डीजी/आरपीएफ ने अपने लगभग डेढ़ साल के लंबे कार्यकाल के दौरान आरपीएफ बैरक्स को सुव्यवस्थित करने के लिए क्या किया कि सीआरबी को खुद उन्हें व्यवस्थित करने का आदेश जारी करना पड़ा? इस बारे में जवाब-तलब करते हुए डीजी/आरपीएफ को क्यों नहीं एक मेजर पेनाल्टी चार्जशीट जारी की जानी चाहिए? रेलवे बोर्ड अथवा सीआरबी ने अब भी यदि आरपीएफ के मामले में अपना रुख स्पष्ट नहीं किया और अन्य रेलकर्मियों के समकक्ष समस्त बल सदस्यों के हितों और कल्याण के लिए डीजी/आरपीएफ की नकेल नहीं कसी, तो उसकी इस विभागीय फोर्स में भारी असंतोष को पनपने से नहीं रोका जा सकेगा.