October 14, 2019

ब्लैक लिस्टेड कंपनी को बोगस एफिडेविट पर दिया गया टेंडर

Tender document of proposed Deoband-Roorkee new rail line

उ.रे. कंस्ट्रक्शन ने बिना भूमि अधिग्रहण किए ही टेंडर जारी किया

कांट्रैक्टर पर बाकी 45 करोड़ की रॉयल्टी, जिम्मेदारी से कतरा रही रेलवे

शिकायत/आरटीआई के बावजूद कांट्रैक्टर को किया 20 करोड़ का भुगतान

सुरेश त्रिपाठी

उत्तर रेलवे कंस्ट्रक्शन का कामकाज बहुत ही अजब-गजब रहा है, खासतौर पर ‘महान’ बी. डी. गर्ग के कार्यकाल में। इस बारे में ‘रेलसमाचार’ ने कई बार प्रकाश डाला है। एक विभागीय अनुमान के अनुसार बताया जाता है कि यदि बी. डी. गर्ग के कार्यकाल में हुए तमाम टेंडर्स की जांच-पड़ताल की जाए, तो उत्तर रेलवे कंस्ट्रक्शन में करीब दस हजार करोड़ का घोटाला उजागर हो सकता है। बहरहाल, यहां जिस टेंडर की बात है, तो वह 150 करोड़ से ज्यादा का टेंडर है, जिसके तहत देवबंद से रूढ़की के बीच नई रेलवे लाइन बिछाई जानी है। इसमें रेल लाइन का अर्थ वर्क, एम्बैंक्मेंट, ब्लैंकेटिंग, कम्पैक्शन, वायब्रटॉरी रोलिंग करने, एलएचएस/आरयूबी/सब-वे, प्लेटफार्म वाल्स, प्लेटफार्म सरफेसिंग, प्लेटफार्म शेल्टर्स, वॉटर बूथ इत्यादि का निर्माण करने के साथ ही बलास्ट की आपूर्ति और अन्य संबंधित कार्य किए जाने हैं।

टेंडर डॉक्युमेंट के अनुसार इसकी कुल विज्ञापित लागत 1500821220.25 रुपये है। इसकी क्लोजिंग डेट 06.10.2017 थी, जबकि इसकी टेक्निकल बिड 04.01.2018 को और फाइनेंसियल बिड 27.02.2018 को खोली गई थी। फाइनली यह एक बड़ा और महत्वपूर्ण टेंडर गाजियाबाद की मनिकोन-इंफ्राटेक जेवी नामक फर्म को मिल गया, जो कि मौके के अनुसार अपने पार्ट्नर और प्रोप्राइटर बदलने के लिए जानी जाती है। यह कहना है गाजियाबाद की सुश्री प्रियंका जैन का। सुश्री प्रियंका जैन ने इस टेंडर में हुई कई प्रकार की गड़बड़ियों को उजागर करते हुए 27 सितंबर 2019 (प्राप्ति दि. 30.09.2019)  को एक लिखित विस्तृत शिकायत मुख्य प्रशासनिक अधिकारी/निर्माण, उत्तर रेलवे, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली को सौंपी है।

सुश्री जैन ने इससे पहले इस टेंडर से संबंधित तमाम जानकारी आरटीआई के तहत भी मांगी थी, जिसे देने में डिप्टी सीई/सी/अंबाला द्वारा पहले बहुत आनाकानी की गई और गुमराह भी किया गया। दि 15.12.2018 को दी गई आरटीआई रिप्लाई में डिप्टी सीई/सी/अंबाला ने कहा कि टेंडर कंडीशन में कांट्रैक्टर अर्थ वर्क आदि से संबंधित रॉयल्टी रिसिप्ट्स जमा करने जैसा कोई प्रावधान नहीं है। जबकि दि. 31.08.2019 को दी गई जानकारी में उन्होंने उत्तराखंड सरकार को रेलवे की तरफ से लिखे गए पत्र की संख्या का उल्लेख करते हुए स्वीकार किया है कि कांट्रैक्टर को उत्तराखंड राज्य सरकार से अनुमति प्राप्त अप्रूव्ड जमीन पर की गई माइनिंग/रॉयल्टी रिसिप्ट जमा कराने को कहा गया है।

सुश्री जैन ने अपनी उपरोक्त शिकायत में कहा है कि देवबंद-रूढ़की नई रेल लाइन के काम में कांट्रैक्टर द्वारा कई प्रकार की गड़बड़ियां की गई हैं। उन्होंने सीएओ/सी को लिखा है कि आपको कई बार अवगत कराया गया है कि यह कांट्रैक्टर कई विभागों में ब्लैक लिस्टेड है और इसने टेंडर प्राप्त करने हेतु गलत एवं फर्जी पेपर लगाए हैं तथा गलत एफिडेविट देकर रेलवे को गुमराह किया है। उन्होंने साफ लिखा है कि यह कांट्रैक्टर मौके के अनुसार किसी को भी अपना पार्ट्नर और प्रोप्राईटर बना देता है। उन्होंने लिखा है कि दि. 31.08.2019 के विभागीय पत्र से उन्हें पता चला कि इस कांट्रैक्टर ने 481197 घनमीटर का अवैध खनन कर लिया है, जिस पर इस कांट्रैक्टर ने 7.50 करोड़ रुपये की रॉयल्टी राज्य सरकार को नहीं भरी है और यह रिकवरी कांट्रैक्टर पर बनती है।

उन्होंने लिखा है कि उनके द्वारा इस बात को कई बार रेलवे के संज्ञान में लाने की कोशिश की गई कि यह कांट्रैक्टर उत्तराखंड सरकार की रॉयल्टी नहीं दे रहा है। इसके जवाब में डिप्टी सीई/सी/अंबाला ने दि. 15.12.2018 के पत्र के माध्यम से कहा कि रेलवे विभाग में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे वह कांट्रैक्टर से रॉयल्टी रिसिप्ट के बारे में कुछ पूछें। तथापि अपने अथक प्रयास से उन्हें दि. 31.08.2019 का पत्र मिला, जिसमें यह कहा गया है कि रेलवे द्वारा कांट्रैक्टर से उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) मांगा गया है। जबकि इसी बीच कांट्रैक्टर को राज्य सरकार की रॉयल्टी चुकाए बिना ही जो बीस करोड़ का भुगतान कर दिया गया, उसका जिम्मेदार कौन होगा? क्योंकि कांट्रैक्टर और रेलवे दोनों की इस कोताही के चलते पेनाल्टी सहित राज्य सरकार की कुल करीब 45 करोड़ रुपये की देनदारी कांट्रैक्टर पर बनती है।

सुश्री जैन ने अपनी शिकायत में सीएओ/सी/उ.रे. से यह भी मांग की है कि इस मामले की जल्द से जल्द जांच करके डिप्टी सीई/सी/अंबाला की जिम्मेदारी तय करते हुए उनके विरुद्ध सख्त विभागीय कार्यवाही की जाए, जिन्होंने टेंडर डॉक्युमेंट में बाकायदे प्रावधान होने के बावजूद सिर्फ कांट्रैक्टर के कहने पर जांच किए बिना ही रेलवे की तरफ से खुद को जिम्मेदार न होना बताया, जिसके कारण आज कांट्रैक्टर पर इतनी बड़ी रिकवरी देय हुई है और राज्य सरकार के सरकारी राजस्व का भारी नुकसान हुआ है। उन्होंने टेंडर को तुरंत रद्द करते हुए कांट्रैक्टर को अविलंब ब्लैक लिस्ट करके उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज किए जाने की भी मांग की है।

उल्लेखनीय है कि टेंडर डॉक्युमेंट के पेज नं 37 पर ‘टैक्सेस’ के अंतर्गत इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र/राज्य सरकार के सभी तरह के टैक्स चुकाने की जिम्मेदारी टेंडरर (कांट्रैक्टर) की होगी। इसके अलावा टेंडर ओपनिंग की तारीख को टेंडरर रेलवे अथवा केंद्र/राज्य सरकार के किसी भी मंत्रालय/विभाग/पीएसयू आदि से ब्लैक लिस्टेड नहीं होना चाहिए। इसी पेज पर नीचे क्रम संख्या-9 में इस बात का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि यदि कांट्रैक्टर जानबूझकर इसकी गलत जानकारी देता है और बाद में इसका पता चलता है, तो न सिर्फ तुरंत टेंडर टर्मिनेट कर दिया जाएगा, बल्कि कांट्रैक्टर को भी ब्लैक लिस्ट किया जाएगा।

इस संदर्भ में यहां उल्लेखनीय है कि नगर आयुक्त, नगर निगम, कानपुर द्वारा दि. 21.04.2010 को आयुक्त, नगर निगम, कानपुर मंडल, कानपुर को लिखे गए पत्र के अनुसार इस कांट्रैक्टर को काम में कोताही बरतने /धीमी गति से करने, काम में लापरवाही करने, समय से अनुबंध न कराने, नगर निगम की छवि धूमिल करने और जनहित को ध्यान में रखकर तेजी से काम न करने इत्यादि आरोपों में ब्लैक लिस्ट किया गया था। तथापि कांट्रैक्टर ने गलत/फर्जी हलफनामा देकर रेलवे को गुमराह करके टेंडर हासिल किया। जाहिर है कि इस मामले में संबंधित रेल अधिकारियों की भी मिलीभगत से इंकार नहीं किया जा सकता।

उपरोक्त तमाम तथ्यों के मद्देनजर स्पष्ट है कि इस मामले में संबंधित रेल अधिकारियों द्वारा नवंबर 2017 में केंद्र सरकार द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण कानून का जानबूझकर उल्लंघन किया गया। इस कानून के अनुसार केंद्र सरकार (रेलवे) ने निर्णय लिया था कि भूमि अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया पूरी हुए बिना अब नई रेल लाइन बिछाने की कोई भी परियोजना शुरू नहीं की जाएगी। यह निर्णय इसलिए लिया गया था ताकि जमीन की अनुपलब्धता के कारण कोई भी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट अधर में न अटके। इस नई नीति के अंतर्गत रेलवे ने भूमि अधिग्रहण होने तक अथवा एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर रेलवे को जमीन देने के लिए राज्य सरकारों से लिखित गारंटी प्राप्त नहीं होने तक टेंडर जारी करने या नई परियोजना पर काम शुरू करने पर प्रतिबंध लगा दिया था।

नई नीति में कहा गया है कि रेलवे ने भूमि अधिग्रहण पूरा होने के बाद ही किसी नई रेल लाइन परियोजना का टेंडर जारी करने या वास्तविक काम शुरू करने का निर्णय लिया है। पुरानी नीति में ऐसी किसी परियोजना को शुरू करने के लिए केवल 70% भूमि अधिग्रहण पूरा होने की शर्त थी, जिसके चलते भूमि की अनुपलब्धता होने या निर्धारित जमीन के मुकदमेबाजी में फंसे होने के कारण अक्सर परियोजना बीच में ही अटक जाती थी अथवा उसके पूरा होने में काफी विलंब हो जाता था, जिससे उसकी लागत कई गुना तक बढ़ जाती थी।

पुरानी नीति में यह भी स्पष्ट नहीं था कि अधिग्रहीत भूमि का रेखीय (लीनियर) होना जरूरी है। ऐसे में जब वास्तविक काम शुरू होता था, तब असली समस्याएं सामने आती थीं। आंशिक काम तो शुरू हो जाता था, मगर अगले खंड के लिए तब तक भूमि उपलब्ध नहीं हो पाती थी।अब नई नीति के अनुसार यदि राज्य सरकारें नई रेल लाइन चाहती हैं, तो इसके लिए उन्हें पहले भूमि उपलब्ध करानी होगी, क्योंकि पर्याप्त भूमि उपलब्ध नहीं होने पर रेलवे को भारी नुकसान उठाना पड़ता है और हर साल ऐसे विलंब के कारण रेलवे की लागत में लगभग 15 से 20% की वृद्धि हो जाती है।

बहरहाल, प्रस्तुत मामले में अब रेल प्रशासन को यह देखना है कि जब नई भूमि अधिग्रहण नीति के अनुरूप पर्याप्त भूमि उपलब्ध नहीं थी, तब यह टेंडर कैसे और क्यों जारी किया गया? संबंधित अधिकारी ने टेंडर कंडीशन के अनुसार कांट्रैक्टर से पहले ही राज्य सरकार की रॉयल्टी से संबंधित एनओसी क्यों नहीं मांगी? शिकायतकर्ता को गुमराह करने का उसका क्या औचित्य था? बिना रॉयल्टी रिसिप्ट जमा कराए कांट्रैक्टर को करीब 20 करोड़ का भुगतान क्यों किया गया? पूरे मामले की गहराई से जांच करने के बाद संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करते हुए उनके विरुद्ध उचित दंडात्मक कार्यवाही सुनिश्चित की जानी चाहिए।