बहुचर्चित पदोन्नति घोटाला: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्पष्ट नहीं
विसंगतिपूर्ण, विरोधाभाषी विश्लेषण तथा अस्पष्ट आदेश ने सबको चौंकाया
गंभीर मुद्दे के बावजूद जूनियर मोस्ट न्यायाधीश से लिखवाया गया आदेश
रेलवे बोर्ड ने जेट रफ्तार से निकाला आदेश के अनुपालन का दिशा-निर्देश
सीधी भर्ती अधिकारियों की अगली रणनीति क्या होगी, पर उत्सुकता कायम
प्रमोटी खेमे में संगोष्ठियों के साथ शुरू हुआ कथित जीत के जश्न का सिलसिला
सुरेश त्रिपाठी
सर्वोच्च न्यायालय ने सीधी भर्ती बनाम प्रोमोटी अधिकारियों के बहुचर्चित मामले में अपना अंतिम फैसला 7 सितंबर 2018 को सुना दिया. जस्टिस मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ द्वारा 10 दिनों तक चली लगभग 10 घंटो की मैराथन सुनवाई के बाद 35 पन्नों के आदेश अथवा दिशा-निर्देश में सिर्फ तकनीकी आधार पर इस महत्वपूर्ण मामले को निपटा दिया जाना सरकार और देश के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. यह मामला देश के सबसे बड़े एम्प्लॉयर ‘रेलवे’ से जुड़ा था और इसके दोनों पक्षों को न्याय देते हुए इसे संवैधानिक तरीके से हल करने की जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय की थी, परंतु सर्वोच्च अदालत को ऐसा करना उचित क्यों नहीं लगा, यह प्रश्न सभी के दिमाग में चल रहा है. चर्चा इस पर भी हो रही है कि क्या सर्वोच्च अदालत की भी कोई मजबूरी हो सकती है?
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में एन. आर. परमार मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश निर्गत हुआ था, जिस पर डीओपीटी ने वर्ष 2014 में ओएम निकालकर इसके अनुपालन के लिए सभी केंद्रीय मंत्रालयों को निर्देश जारी कर दिया था. नए नियम के लागू होने से सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को वरीयता में फायदा हो रहा था. रेलवे के सीधी भर्ती संकेत एवं दूरसंचार अधिकारी आर. के. कुशवाहा ने सीधी भर्ती वाले अधिकारियों की तरफ से बदले हुए नियम को रेलवे में लागू करने के लिए ज्ञापन दिए. परंतु रेलवे ने डीओपीटी और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार कर दिया.
यह पूरा मामला कैट पटना और हाई कोर्ट, पटना से होता हुआ सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने रेलवे को नए नियम पर अमल करने के लिए निर्देश जारी किए. अभी मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचारधीन ही था कि तभी रेलवे बोर्ड ने कैट और हाई कोर्ट के आदेश को मानकर एक नई वरीयता के निर्धारण का नियम बना डाला. परंतु रेलवे बोर्ड द्वारा संशोधित नियम से प्रमोटी अधिकारियों को फायदा हुआ. इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश अथवा निर्णय देने से सीधे-सीधे कन्नी काट ली है और आदेश दिया है कि रेलवे ने नए नियम बना दिए हैं, अब यदि किसी को ऐतराज हो, तो वह इस पर नया (फ्रेश) केस दायर करके उसको चैलेंज कर सकता है.
अदालत के सामने वास्तविक मामला यह था कि एन. आर. परमार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पहले जो आदेश दिया है कि ‘इंटर-से-सीनियरिटी निर्धारित करते समय सीधी भर्ती वाले अधिकारियों की वरीयता उनके भर्ती वाले वर्ष या रिक्ति वर्ष (वैकेंसी इयर) के आधार पर तथा प्रमोटियों को डीपीसी भेजने वाली तारीख के आधार पर निर्धारित की जाएगी. अर्थात प्रमोटी अधिकारियों को दी जाने वाली एंटी-डेटिंग सीनियरिटी तब अपने आप ही समाप्त हो जाएगी जब दोनों खेमों के अधिकारियों की वरीयता रिक्ति वर्ष के आधार पर तय की जाएगी.’ इस महत्वपूर्ण मुद्दे को अनिर्णीत रखते हुए या दरकिनार करते हुए अथवा सीधे-सीधे इससे कन्नी काटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने प्रस्तुत निर्णय में कहा कि आर. के. कुशवाहा ने एंटी-डेटिंग को सीधे चुनौती देकर इसके खिलाफ याचिका दायर नहीं की थी.
आईए, इस पूरे मामले को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं-
A. सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को मिलेगा इस निर्णय का लाभ
1. सर्वोच्च न्यायालय ने एंटी-डेटिंग के नियम को चैलेंज करने का रास्ता खोल दिया है. आर. के. कुशवाहा ने कैट पटना से गुहार लगाई थी कि एन. आर. परमार मामले पर आए डीओपीटी के नियम के आधार पर उनकी वरीयता निर्धारित की जाए. उन्होंने अपनी याचिका में स्पष्ट रूप से कहा था कि वर्ष 2009 के बजाय 2007 से उनकी वरीयता निर्धारित की जाए, जिससे वर्ष 2014 में आए प्रमोटी अधिकारियों को 5 साल की एंटी-डेटिंग के बाद भी सभी की वरीयता उनके नीचे रहेगी. सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को रास्ता मिल गया है, जिस पर चलकर निकट भविष्य में वे अपने मकशद में कामयाब हो सकते हैं. एंटी-डेटिंग पर नई याचिका दायर करने पर उनको कामयाबी मिल सकती है. वैसे भी यह असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण एंटी-डेटिंग वर्ष 1954 से जारी है, इसे खत्म करने या करवाने के लिए कुछ तो मशक्कत करनी ही पड़ेगी.
2. अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डीओपीटी के नियम रेलवे पर मान्य नहीं होने के निर्णय से 50:50 प्रतिशत वाले मुद्दे पर चल रहे मामलों में सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को बहुत मदद मिलेगी.
3. सर्वोच्च न्यायालय ने आरबीई 33/2018 को भी संवैधानिक मान्यता नहीं दी है. सर्वोच्च अदालत ने अपनी विवेचना के दौरान यह कहा है कि इस बदले हुए नियम को किसी भी पक्ष ने चैलेंज नहीं किया है. अर्थात अपनी सुविधानुसार सीधी भर्ती वाले अधिकारी जब चाहें तब इसको चैलेंज कर सकते हैं.
4. आर. के. कुशवाहा मामले से सभी विभागों के युवा और जागरूक ग्रुप ‘ए’ वरिष्ठ अधिकारी भी संयुक्त उद्देश्य के लिए एक मंच पर एकत्रित हो रहे हैं. रेलवे के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि विभागवाद को भुलाकर इस मुद्दे पर सभी ग्रुप ‘ए’ अधिकारी एक स्वर में एक साथ आ रहे हैं. इस वजह से एफआरओए की जमीनी पकड़ भी बढ़ी है. पूरी स्थिति के मद्देनजर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब वह दिन दूर नहीं, जब रेलवे को लोभियों, दलालों और जोड़तोड़बाजों से मुक्त कराने में भी युवा अधिकारियों की अहम भूमिका होगी.
5. सर्वोच्च न्यायालय के प्रस्तुत फैसले के बावजूद अब भी रिव्यु पिटीशन का दरवाजा खुला हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आईआरईएम को ‘स्टेट्यूटरी’ बताए जाने और ‘रिक्रूटमेंट ईयर’ के बजाय ‘अलॉटमेंट ईयर’ को मान्यता देने तथा कैट पटना ने अपने आदेश में कहीं भी ऐसा नहीं कहा है, के विरुद्ध सीधी भर्ती अधिकारियों द्वारा रिव्यु पिटीशन दायर करके पूरे मामले में और भी स्पष्टता लाई जा सकती है.
6. रेलवे में कुल 10 हजार ग्रुप ‘ए’ की जगह वर्तमान में 14 हजार अधिकारी हैं. जाहिर है कि प्रतिवर्ष भारी संख्या में ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों का चयन होने से सीधी भर्ती वाले नए युवा अधिकारियों को पदोन्नति में काफी मुश्किलें आने वाली हैं. इसलिए इस बात की प्रबल संभावना है कि भविष्य में भी सीधी भर्ती और प्रमोटी अधिकारियों के बीच बंदरबांट की यह लड़ाई सतत जारी रहने वाली है. इसलिए इस ‘कुशवाहा मामले’ ने सभी ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों को अग्रिम सचेत कर दिया है कि अब उनके सामने ‘करो या मरो’ की स्थिति आ चुकी है.
7. प्रमोटी खेमे की तरफ से बार-बार यह सवाल किया जा रहा था कि आर. के. कुशवाहा सिगनल विभाग से ताल्लुक रखते हैं, तो सिर्फ एक अधिकारी की वजह से अन्य विभागों में चल रहे वरीयता के नियम को कैसे चैलेंज किया जा सकता है? ऐसे सभी मूलभूत सवाल अब भविष्य में नहीं उठेंगें, क्योंकि युवा अधिकारियों को अब कानूनी दावपेंच समझ में आने लगे हैं. अतः अब विभागवार एक-दो अधिकारी भी पक्षकार बनकर ऐसे बुनियादी सवालों से निजात पा सकेंगे.
B. प्रोमोटी संगठन मना रहा है दिखावे का जश्न
प्रमोटी नेतृत्व द्वारा कहीं प्रेस कांफ्रेंस, कहीं मोटी-मोटी हेडलाइंस में विजय पताका की अभिव्यक्ति, कहीं बैठकें, तो कहीं संगोष्ठियां या वक्तव्य आयोजित करके और अखबारों में अपनी फोटो छपवाकर हर तरफ शो-बाजी तथा दिखावा किया जा रहा है. जबकि आर. के. कुशवाहा ने वर्ष 2015 में कैट, पटना में केस दायर किया था, तब से लेकर 7 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय का आदेश आने तक न सिर्फ वास्तविक तथ्यों को छिपाया गया, बल्कि इससे पूरे ग्रुप ‘बी’ खेमे यानि प्रमोटियों को कितना नुकसान हुआ है, इससे अनभिज्ञ प्रमोटी अधिकारी अपने मिथ्याचारी नेतृत्व की मिथ्याचारिता पर किस कदर सम्मोहित हैं, इसका आकलन करना भी आवश्यक है.
1. अगस्त 2016 में रेलवे बोर्ड द्वारा नियम में बदलाव से ग्रुप ‘बी’ यानि प्रमोटी कुनबे को 6 साल पर सीनियर स्केल में मिलने वाले प्रमोशन से हाथ धोना पड़ा.
2. आर. के. कुशवाहा मामले पर आरबीई 33/2018 के आने से कैनोटेशन के आधार पर ग्रुप ‘ए’ में मिलने वाली वरीयता से भी प्रमोटी कुनबे को बहुत बड़ा नुकसान हुआ.
3. सर्वोच्च न्यायालय ने 35 पेज के अपने हालिया निर्णय अथवा दिशा-निर्देश के किसी भी पैरा में एंटी-डेटिंग के नियम को वैध नहीं माना है. ऐसे में प्रमोटी खेमे को कौन सा ताज मिल गया है कि वह खुशी के मारे बाबला हो रहा है? इस निर्णय के जरिए तो सर्वोच्च न्यायालय ने सीधी भर्ती वाले अधिकारियों को साफ रास्ता दिखा दिया है कि ऐसा करके आओ, तब उनके पक्ष में मामले की नए सिरे से सुनवाई हो सकती है.
4. आरबीई 33/2018 के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि इसको किसी पार्टी ने चैलेंज नहीं किया है, इसलिए अदालत इस मुद्दे पर नहीं जा रही है. रही बात मानने की, तो रेलवे ने बनाया है, ऐसे में इसे मानना या न मानना उसके (रेलवे) विवेक पर निर्भर करता है. परोक्ष रूप से सर्वोच्च न्यायालय का यही यही संकेत है कि इस आरबीई 33/2018 की वैलिडिटी भी अदालत में चैलेंज की जा सकती है. ऐसे में यह समझ से परे है कि प्रमोटी खेमा किस बात का जश्न मना रहा है?
5. डीओपीटी का ऑफिस मेमोरेंडम (ओएम) रेलवे पर लागू नहीं होता है, इस बात का प्रमोटी नेतृत्व को जो बड़ा गुमान हो रहा है, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस दिशा-निर्देश से प्रमोटी खेमे को बहुत बड़ा नुकसान होने वाला है, क्योंकि डीओपीटी के ओएम के आधार पर ही वर्ष 2001 से 2009 के बीच में सीधी भर्ती के कोटे में दो तिहाई की भारी कटौती की गई थी, जिस पर अनेकों केस विभिन्न अदालतों में लंबित हैं. सर्वोच्च न्यायालय के प्रस्तुत फैसले के आलोक में अब उन पर निर्णय आ जाएगा, जिससे हजारों-हजार की संख्या में प्रमोटी अधिकारियों को अपनी वरीयता से हाथ धोना पड़ सकता है. फिर भी दिग्भ्रमित प्रमोटी खेमा जश्न मनाने में मशगुल है, यह अत्यंत आश्चर्यजनक है.
6. अब जहां तक बात सर्वोच्च अदालत द्वारा आईआरईएम को वैधानिक (स्टेट्यूटरी) मान लेने की है, तो इससे प्रमोटी अधिकारियों को कोई खास लाभ मिलने वाला नहीं है. जबकि सीधी भर्ती वाले अधिकारियों के लिए यह तो अब और भी अच्छा हो गया है कि वे मूलभूत अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का हवाला देते हुए सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जा सकेंगे. अर्थात इस प्रकार कैट से उनका पिंड छूट गया. इसमें भी प्रमोटी अधिकारियों द्वारा जश्न मनाने का क्या औचित्य है?
7. प्रमोटी नेतृत्व ने जानबूझकर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होने दी. यह तो सर्वज्ञात है कि सर्वोच्च न्यायालय में प्रमोटी अधिकारी ही पिटीशनर थे, न कि सीधी भर्ती वाले अधिकारी. ऐसे में आरबीई 33/2018 का नियम, जो कैट पटना और हाई कोर्ट, पटना के आदेशों के कंप्लायंस में बनाया गया था, यदि प्रमोटी खेमे के पक्ष में है, तो वह सर्वोच्च न्यायालय से यह केस वापस ले सकता था, जिससे केस ‘इंफैचुअस’ हो जाता और अपने आप ही एसएलपी ड्राप हो जाती. परंतु प्रमोटी नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया तथा केस के नाम पर धन उगाही करता रहा.
8. इसी प्रकार प्रमोटी नेतृत्व ने ही कैट पटना में आर. के. कुशवाहा मामले में इंटरवीन किया था. उसको बखूबी यह खबर थी कि इस मामले में एंटी-डेटिंग को चैलेंज नहीं किया गया है. फिर भी उसने इस पर पूरे प्रमोटी खेमे को गुमराह करके रखा तथा कैट पटना के ओए की प्रति किसी भी प्रमोटी के हाथ नहीं लगने दी. इसी वजह से उसने प्रमोटी खेमे में एंटी-डेटिंग खत्म हो जाने के शगूफे को प्रचारित करके डिमोशन होने की डरावनी अफवाह फैला रखी थी. फलस्वरूप संगठन भय दिखाकर प्रमोटी अधिकारियों से धन उगाही करता रहा. ये दोनो बातें सर्वोच्च न्यायालय की विवेचना से स्पष्ट होती हैं.
C. रेलवे बोर्ड ने दिया खुल्लमखुल्ला प्रमोटियों का साथ
रेलवे की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत हुए सरकारी वकील एएसजी मनिंदर सिंह की दलीलों को यहां निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1. सभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों पर रेलमंत्री के हस्ताक्षर ले लिए गए थे. ‘ट्रांजेक्शन ऑफ बिजनेस रूल’ का हवाला देकर कोर्ट को लगातार गुमराह करने की कोशिश की जाती रही कि रेलमंत्री प्रेसिडेंट का पॉवर एंजॉय करते हैं, अर्थात रेलमंत्री ने जहां-जहां हस्ताक्षर किए हैं, वे भी दस्तावेज अपने आप ही प्रेसिडेंसिएल पॉवर से निर्गत माने जाएंगे. इसलिए ऐसे किसी भी मुद्दे पर अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती.
2. जब अदालत ने पूछा कि आर. के. कुशवाहा को किस वर्ष की रिक्ति के विरुद्ध चयन किया गया है, तो इस पर एएसजी मनिंदर सिंह कभी 2008 बोलते थे, तो कभी 2009. अदालत द्वारा जब वैकेंसी इयर पर दस्तावेज मांगा गया, तो बगलें झांकते हुए एएसजी की तरफ से अदालत के सामने इस पर अनभिज्ञता जताई गई.
उपरोक्त दोनों मुद्दों पर रेलवे के गोल-मोल जवाब से सर्वोच्च न्यायालय को दाल में कुछ काला होने की गंध आ गई थी. शायद यही वजह रही होगी कि अदालत ने अपने पूरे आर्डर को ही खुला छोड़कर अथवा चूं-चूं का मुरब्बा बनाकर अपना पिंड छुड़ा लिया.
D. पूरे मामले पर कन्नी काटता नजर आ रहा है सर्वोच्च न्यायालय!
इस पूरे 35 पेज के अंतिम निर्णय को बार-बार पढ़ने के बाद एक ही बात समझ में आती है कि दोनों में से किसी भी पक्ष को इससे कोई खास राहत नहीं मिली है. सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो. देश की सबसे बड़ी अदालत होने के नाते यह कई मामलों पर स्वतः संज्ञान लेकर देश हित में ‘प्रिंसिपल’ का निर्धारण करती रही है. परंतु इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का किसी स्पष्ट नतीजे पर न पहुंचना अथवा खामोश रहना किसी के भी गले से नहीं उतर रहा है. पीठ के सीनियर जस्टिस मदन बी. लोकुर का अचानक खामोश हो जाना अथवा इससे विरक्त होना किसी को पच नहीं रहा है.
उपरोक्त को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1. प्रमोटी संगठन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एसएलपी दायर कर हाई कोर्ट, पटना के आदेश पर स्टे मांगा गया था, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे स्टे नहीं दिया. अधिकांशतः सर्विस मैटर पर अदालतें पहले स्टे देती हैं, फिर विस्तृत सुनवाई करती हैं.
2. दिसंबर 2017 में प्रमोटी संगठन ने जब डिमोशन के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई थी, तब भी सर्वोच्च न्यायालय ने एडहाक सहित कंफर्म्ड जेएजी प्राप्त कर चुके प्रमोटी अधिकारियों को भी कोई प्रोटेक्शन नहीं दिया था.
3. जस्टिस लोकुर को निष्पक्ष और तेज-तर्रार माना जाता है. इससे पहले भी उन्होंने एंटी-डेटिंग के विरुद्ध अनेक आदेश निर्गत किए हैं. पूरे पैनल में जस्टिस लोकुर के सबसे वरिष्ठ होने और एक अन्य सीनियर जस्टिस (एस. अब्दुल नज़ीर) के होते हुए प्रस्तुत ऑर्डर सबसे जूनियर जस्टिस दीपक गुप्ता से क्यों लिखावाया गया? यह सवाल कई आशंकाएं पैदा करता है.
4. सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान यह बात भी सामने आ गयी थी कि रेलवे जिस ए. के. निगम केस का हवाला देकर एंटी-डेटिंग को जायज बता रही है, वह आज की तारीख में नियम-बाह्य (ओवर रुल्ड) हो चुका है. ए. के. निगम केस में निर्णय को मुरलीधर केस पर दिए गए आदेश का आधार बनाया गया था, जिसको पी. सुधाकर राव केस में तीन जजों की बेंच द्वारा जस्टिस लोकुर ने ही ओवर रूल करते हुए वर्ष 2013 में एंटी-डेटिंग को आर्टिकल 14 और आर्टिकल 16 के खिलाफ बताया था.
5. सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में यह भी था कि वर्ष 1954 में रेलवे ने जिस समय एंटी-डेटिंग के नियम को लागू किया था, उस समय प्रमोटी अधिकारियों के लिए कोटा सिर्फ 25% था. इसलिए उन्हें समान स्तर (ऐट-पार) पर लाने के लिए एंटी-डेटिंग का प्रावधान किया गया था. परंतु यह कोटा समय के साथ बढ़कर पहले 33.33%, फिर 40% और अंततः 50% हो गया है. फिर भी एंटी-डेटिंग का नियम जारी है, जो पूरी तरह पक्षपातपूर्ण है.
6. अदालत को सभी केंद्रीय मंत्रालयों की सूची भी सौंपी गई थी, जिसके विश्लेषण के दौरान सर्वोच्च अदालत को यह पता चल गया था कि जिस भी मंत्रालय में सीधी भर्ती वाले और प्रमोटी अधिकारियों के बीच 50:50 प्रतिशत का कोटा है, वहां एंटी-डेटिंग का नियम लागू नहीं है. इसके बावजूद सर्वोच्च अदालत ने इतने महत्वपूर्ण मामले पर स्पष्ट निर्णय देने से कन्नी काट ली, तो इसे क्या कहा जाएगा?
7. सर्वोच्च न्यायालय को यह भी बताया गया था कि रेलवे के प्रमोटी अधिकारियों की तुलना स्टेट सर्विसेज से आए अधिकारियों से नहीं की जा सकती है, क्योंकि दोनों में बुनियादी अंतर है. रेलवे के प्रमोटी अधिकारी (बिना किसी तकनीकी या प्रशासनिक योग्यता लिए) ग्रुप ‘सी’ से ग्रुप ‘बी’ में आते हैं और तब ग्रुप ‘ए’ बनते हैं, जबकि स्टेट सर्विसेज में पीएससी द्वारा सीधा चयन 5400 ग्रेड-पे पर किया जाता है तथा इनका कोटा भी आईएएस एवं पीसीएस में सिर्फ 33.33% होता है. इसलिए राज्यों के अधिकारियों को एंटी-डेटिंग का लाभ दिया जाता है. सब कुछ जानते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय ने यदि इस पूरे मामले को पूरी गंभीरता से नहीं लिया, तो इसे क्या कहा जाना चाहिए?
8. जस्टिस दीपक गुप्ता को फैसला लिखने की इतनी जल्दी थी कि जहां वह एक पैरा (नं. 23) में आरबीआई 33/2018 में बताए गए आईआरईएम को वैधानिक (स्टेट्यूटरी) होने का दर्जा देते हैं, तो वहीं अगले ही पैरा (नं. 24) में उन्होंने इसे एक झटके में ‘स्टेट्यूटरी स्टेट्स’ बता दिया है! जबकि पूर्व में भी सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों में आईआरईएम को ‘नॉन-स्टेट्यूटरी’ बताया गया है. उल्लेखनीय है कि किसी भी प्रावधान को ‘स्टेट्यूटरी’ बनाने के लिए कानून मंत्रालय की सहमति लेना आवश्यक होता है, जो कि आरबीई 33/2018 को निर्गत करते समय रेलवे बोर्ड द्वारा नहीं ली गई थी. ऐसे बुनियादी यथार्थ को दरकिनार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय सभी को चौकाने वाला है.
इस निर्णय के संदर्भ में ‘रेल समाचार’ ने इंडियन रेलवे प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन के अध्यक्ष एवं महामंत्री और इस मामले के प्रथम पक्षकार प्रभात रंजन सिंह के बजाय उनके सर्वेसर्वा और प्रमुख प्रवक्ता तथा उनके एडवाइजर जितेंद्र सिंह से जब उनका पक्ष जानने की कोशिश की, तो उनका कहना था कि यह जजमेंट बहुत अच्छा है, क्योंकि हमने जो समझौता किया था, उसे यह जजमेंट अप्रूव करता है. उन्होंने क्या समझौता किया था, यह पूछने पर जितेंद्र सिंह का कहना था कि समझौता यह किया था कि जो नया रूल बना था कि एंटी-डेटिंग पर हमारा कोई कमेंट नहीं है और हम शुरू से कह रहे थे कि कैट ने एंटी-डेटिंग पर कुछ नहीं कहा है, यही सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि यह तो कहीं मुद्दा ही नहीं था. उन्होंने कहा कि इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कैट और हाई कोर्ट को डांट भी लगाई है कि बिना मांगे हुए चीजों को क्यों डील किया और इस पर वह अपने दायरे से बाहर क्यों चले गए. उनका यह भी कहना था कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रेलवे डीओपीटी के किसी नियम को माने या न माने, यह उसके विवेक पर है. इस पर डीओपीटी ने भी लिखकर दिया है कि रेलवे पर उसका नियम लागू नहीं होता है.
इस मामले में ‘रेल समाचार’ ने इस पूरे मामले के मुद्दई आर. के. कुशवाहा से भी उनका पक्ष जानने के लिए संपर्क किया, तो उनका सिर्फ यही कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय से निर्गत आदेश में अनेकों विरोधाभासी बातें कही गई हैं, जो बिल्कुल ही किसी की समझ से परे हैं. परंतु एंटी-डेटिंग के बारे में कुशवाहा का कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपनी स्पष्ट राय दी है कि वैकेंसी वर्ष से पहले किसी की भी वरीयता निर्धारित नहीं की जा सकती है, चाहे वह सीधी भर्ती का अधिकारी हो या प्रमोटी. अर्थात वर्ष 2013-14 वैकेंसी इयर के प्रमोटी अधिकारियों की वरीयता वर्ष 2009 में नहीं दी जा सकती है. उनका यह भी कहना है कि तकनीकी कारणों से सर्वोच्च अदालत का यह निर्णय उनके यानि सीधी भर्ती वाले अधिकारियों के पक्ष में नहीं है. आगे की रणनीति के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका एफआरओए संगठन और उनके सभी युवा ग्रुप ‘ए’ अधिकारी आपसी संपर्क में हैं, जैसी सबकी राय बनेगी, वैसा किया जाएगा.
अंत में यही लगता है कि रेलवे बोर्ड के साथ प्रमोटी संगठन के जोड़तोड़ और गठजोड़ का खेल अभी लंबा चलने वाला है. यह तथ्य जितेंद्र सिंह से हुई बातचीत और उनकी गतिविधियों से भी स्पष्ट हो रहा है. जानकारों का कहना है कि ‘यह तो साफ है कि सुप्रीम कोर्ट में भी रेलवे बोर्ड ने प्रमोटियों का खुल्लमखुल्ला साथ दिया है. इसके अलावा सरकार और रेल मंत्रालय के साथ प्रमोटी संगठन का गठजोड़ भी सर्वज्ञात है, जिसकी परछाईं सुप्रीम कोर्ट के प्रस्तुत निर्णय पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही है. अब यदि किसी सुविचारित योजना के तहत सभी सीधी भर्ती वाले अधिकारी संगठित होकर रेलवे पर चल रही इन कुरीतियों का संवैधानिक रूप से मुकाबला करते हैं, तो सफलता अवश्य मिल सकती है. अन्यथा इस आपसी लड़ाई का नुकसान दोनों पक्षों को हो रहा है और आगे भी होने वाला है.’
इस पूरे प्रकरण का अंजाम दोनों में से चाहे जिसके भी पक्ष में हो, लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई है, वह यह कि रेलवे बोर्ड का असली चेहरा सबके सामने आ गया है. तथापि अब स्थापना मामलों (एस्टेब्लिशमेंट मैटर्स) में सभी अधिकारियों की दिलचस्पी पर्याप्त रूप से बढ़ी है. इसके परिणामस्वरूप रेलवे में हुए अरबों रुपये के इस अधिकारी पदोन्नति घोटाले की पृष्टभूमि और इसका लगातार जारी रहना भी अब सबकी समझ में आ गया है. इसके फलस्वरूप प्रमोटी अधिकारियों की तरह सीधी भर्ती वाले अधिकारी भी अब लामबंद होने लगे हैं. अधिकारियों के बीच यह एक लंबी जंग का संकेत है. अंततः यही कहा जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस पूरे प्रकरण की दशा और दिशा वही पक्ष तय करेगा, जो सच्चाई और दृढ़ निश्चय के साथ मैदान में डटा रहेगा.