April 7, 2019

एमआरएस की नियुक्ति, कलंक से बच गया रेल प्रशासन!

200 करोड़ की हो रही थी डील, 50 करोड़ दिए गए एडवांस?

आंकड़ों की बाजीगरी दिखाने में रेलवे के पांच मंत्रियों ने गंवाए पांच साल

व्यक्तिगत लोकप्रियता के चक्कर में रे.बो.निजाम को ‘माया मिली, न राम’

सुरेश त्रिपाठी

रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) ने डीजी/आरपीएफ की नियुक्ति में जैसी चुस्ती-फुर्ती दिखाई और पद खाली होने से दो दिन पहले ही नए डीजी/आरपीएफ की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया, वैसी चुस्ती-फुर्ती मेंबर रोलिंग स्टॉक की नियुक्ति में नहीं दिखाई थी और इसे उसने पूरे दो महीनों तक लटकाए रखा था. 20 सितंबर को ‘रेल समाचार’ की ट्वीट के बाद जब पीएमओ ने इस मामले का संज्ञान लिया, तब आनन-फानन में उसी दिन न सिर्फ पांच जोनल महाप्रबंधकों की नियुक्ति के आदेश जारी कर दिए गए, बल्कि मेंबर रोलिंग स्टॉक (एमआरएस) की नियुक्ति का प्रस्ताव भी उसी दिन पीएमओ को भेजा गया. यह फाइल एसीसी से 28 सितंबर को क्लियर हुई और उसी दिन राजेश अग्रवाल की नियुक्ति का आदेश एसीसी सहित रेलवे बोर्ड से भी जारी किया गया. श्री अग्रवाल ने तत्काल अपना नया पदभार ग्रहण कर लिया.

हालांकि राजेश अग्रवाल से वरिष्ठ दो महाप्रबंधक – ए. के. गुप्ता, जीएम/द.प.रे. और सुधांशु मणि, जीएम/आईसीएफ – थे, तथापि दोनों महाप्रबंधकों का पर्याप्त कार्यकाल बाकी नहीं था. श्री गुप्ता 30 सितंबर को सेवानिवृत्त हो गए, जबकि श्री मणि 31 दिसंबर को रिटायर होने वाले हैं. पहले यह कहा गया कि 30 सितंबर से पहले यदि श्री अग्रवाल की नियुक्ति की जाएगी, तो श्री गुप्ता को बोर्ड मेंबर का दर्जा देते हुए उन्हें उसके अनुरूप वेतनमान देना पड़ेगा. यही बात श्री मणि के मामले में भी भी लागू होती थी. हालांकि सब जानते हैं कि यह न सिर्फ एक ढ़कोसला था, बल्कि जानकारों को दिग्भ्रमित करने की एक समझी-बूझी रणनीति भी थी, क्योंकि जूनियर को ‘अपेक्स लेवल’ पर पदोन्नत करने से पहले उसके सीनियर को ‘अपेक्स ग्रेड’ देना ही पड़ता है, यह नियमानुसार निर्धारित परंपरा है. इसीलिए एसीसी ने भी श्री अग्रवाल की नियुक्ति को हरी झंडी दिखाते हुए श्री गुप्ता और श्री मणि को अपेक्स ग्रेड दिए जाने की मंजूरी दी है. श्री गुप्ता अपेक्स ग्रेड के साथ रिटायर हो गए हैं, जबकि सीवीसी क्लेअरेंस मिलने के बाद यह ग्रेड श्री मणि को भी जल्दी ही मिल जाएगा.

एमआरएस पद पर नई नियुक्ति में पूरे दो महीने की देरी के पीछे असली कारण वास्तव में मंत्री की एक जिद थी. मंत्री जी एक महाप्रबंधक को सेवा-विस्तार देकर एमआरएस बनना चाहते थे. उन्होंने इस संदर्भ में एक प्रस्ताव भी पीएमओ को भेजा था, परंतु महाप्रबंधक स्तर पर सेवा-विस्तार देने से पीएमओ ने इंकार करते हुए उनका प्रस्ताव बैरंग वापस कर दिया था. तथापि मंत्री जी अपनी जिद पर अड़े रहे, जबकि पीएमओ के इंकार के तुरंत बाद रेलवे बोर्ड ने राजेश अग्रवाल, जीएम/एमसीएफ के साथ टी. पी. सिंह, जीएम/उ.प.रे. और एल. सी. त्रिवेदी, जीएम/पू.म.रे. का नया प्रस्ताव बनाकर रेलमंत्री को फाइल सौंप दी थी. जब डेढ़ महीने से यह फाइल रेलमंत्री की टेबल पर पड़ी धूल फांक रही थी, तभी 20 सितंबर को ‘रेल समाचार’ ने पांच महीनों से पांच महाप्रबंधकों की नियुक्ति नहीं होने और एमआरएस का पद भी खाली हुए दो महीने बीत जाने का संदर्भ देते हुए प्रधानमंत्री सहित पीएमओ एवं अन्य सभी संबंधित अथॉरिटीज को एक ट्वीट करके इन उच्च-स्तरीय पदों के लंबे समय से खाली होने पर सवाल उठाया. इस ट्वीट का संज्ञान लेते हुए पीएमओ के निर्देश पर यह सारी प्रक्रिया पूरी हुई.

सूत्रों का कहना है कि असल में एमआरएस की नियुक्ति में देरी का कारण ‘डील’ में हो रही देरी थी. कुछ जानकारों सहित अत्यंत विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से 18 सितंबर को ‘रेल समाचार’ को पता चला कि वास्तव में हैदराबाद स्थित एक कंपनी इस पूरी डील के पीछे है, क्योंकि वह एक अधिकारी विशेष को एमआरएस बनवाना चाहती है. इसके लिए उसने कथित रूप से 100 करोड़ की बोली लगाई हुई है, मगर मांग 200 करोड़ की हो रही है. इसलिए पूरा मामला अटका हुआ है. अपुष्ट तौर पर जानकारों का यह भी कहना है कि 50 करोड़ ठिकाने पर पहले ही पहुंचा दिए गए थे. इस पूरे प्रकरण पर गहरी नजर रखने वाले कुछ जानकारों का कहना है कि यह हैदराबादी कंपनी बहुत बड़े पैमाने पर रेलवे में काम कर रही है और इसके पास वर्तमान में हजारों करोड़ के टेंडर हैं. उनका यह भी कहना है कि इस कंपनी को सालाना लगभग 2000 करोड़ की कंपनी बनाने में संबंधित अधिकारी का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

एमआरएस की नियुक्ति के ताजा प्रकरण ने लोगों को ‘महेश कुमार बनाम पवन बंसल’ कांड की याद दिला दी, जिसमें तत्कालीन रेलमंत्री पवन बंसल का मंत्री पद असमय बलि चढ़ गया था. तब बोर्ड मेंबर बनने के लिए सिर्फ 10 करोड़ का कथित लेनदेन होने की बात कही गई थी, मगर ताजा प्रकरण में 100 से 200 करोड़ की कथित डील होने और 50 करोड़ एडवांस पहुंचने की बात सुनकर लोगों के होश फाख्ता हो गए. ‘रेल समाचार’ की तत्संबंधी ट्वीट के बाद कई तरफ से इसकी सफाई में स्पष्टीकरण देकर यह बताने की कोशिश की गई कि ‘संबंधित अधिकारी ऐसा-वैसा नहीं है, वह ऐसा कोई काम नहीं कर सकता, उसका संबंधित कंपनी के साथ कोई संबंध नहीं है.’ मगर संबंधित कंपनी और अधिकारी ने इस पूरे मामले में चुप्पी साधे रखी. जबकि इस मामले में थोड़ा और दरयाफ्त किए जाने पर बताया गया कि उक्त कंपनी वास्तव में संबंधित अधिकारी की ही है?

जानकारों का कहना है कि ‘रेल समाचार’ की ट्वीट के बाद जब उक्त कथित डील का पूरी तरह से पर्दाफास हो गया, तब आनन-फानन में एमआरएस की पोस्टिंग का प्रस्ताव पीएमओ को भेजा गया और यह जताने की कोशिश की गई कि देरी का कारण प्रक्रियागत था. तथापि जानकारों का यह भी कहना है कि संबंधित अधिकारी को रिटायरमेंट के बाद मंत्री का सलाहकार बना लिए जाने और इसकी एवज में एडवांस लिए गए कथित 50 करोड़ को एडजस्ट करने का आश्वासन दिया गया है! इस जानकारी से रेलवे के तमाम अधिकारियों और कर्मचारियों की आंखें फटी हुई हैं, तथापि उन्हें इस पर कोई बहुत बड़ा आश्चर्य नहीं हो रहा है. हालांकि उनका कहना है कि राजेश अग्रवाल ने भी अपनी पोस्टिंग के लिए अपने राजनीतिक संपर्कों का इस्तेमाल किया है, मगर जहां तक ‘रेल समाचार’ को जानकारी मिली है, श्री अग्रवाल इसके लिए एमसीएफ छोड़कर एक दिन के लिए भी दिल्ली नहीं गए थे.

प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर मंच से ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ की घोषणा करते हुए भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की दुहाई देते हैं. उनके इस सुर में सुर मिलाते हुए रेलवे बोर्ड का वर्तमान निजाम भी पिछले एक साल से रेलवे की प्रत्येक सभा-संगोष्ठी में नैतिकता और शुचिता की दुहाई देता रहा है, जबकि उसके द्वारा किए गए जूनियर अधिकारियों के ट्रांसफर भी मंत्री स्तर पर सिफारिशों अथवा लेनदेन के चलते फौरन रद्द होते रहे. जानकारों का मानना है कि पिछले चार-पांच सालों के दरम्यान रेलवे में भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ा है, जिसका अंदाजा उपरोक्त मात्र एक प्रकरण से बखूबी लगाया जा सकता है. जबकि रेलवे बोर्ड स्तर के 350 करोड़ के मात्र एक टेंडर की ‘फेवरेबल कंडीशन’ बनाने के लिए 10 करोड़ का लेनदेन होने की पक्की खबर है. यही नहीं, ईएनएचएम और ओबीएचएस के जो टेंडर अब तक पांच-सात करोड़ तक के हुआ करते थे, वह अब न्यूनतम 15-20-25 करोड़ के हो गए हैं, जिनकी कंडीशंस को न सिर्फ पार्टी सांसदों की चहेती फर्मों के अनुरूप बनाया गया है, बल्कि ऐसे लगभग सभी टेंडर्स में पांच से सात करोड़ की ‘ओवर-बजटिंग’ भी की गई है.

इस मामले में न सिर्फ जानकारों का कहना है, बल्कि जमीनी स्तर पर यह सत्य प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है कि उपरोक्त प्रकार के टेंडर्स के माध्यम से सिर्फ रेल राजस्व की पार्टीगत लूट चल रही है. इसके अलावा सबसे ज्यादा कदाचारी एक बोर्ड मेंबर को मंत्री द्वारा ‘ईमानदारी का तमगा’ दिए जाने से भी इस सत्य को बखूबी समझा जा सकता है. पी. के. रोड, नई दिल्ली स्थित सेंट्रल हास्पिटल, उत्तर रेलवे का अतिरिक्त प्रशासनिक दायित्व दिल्ली मंडल के एक सीनियर डीईएन को दिया गया है, जिसकी प्रतिदिन की ऊपरी कमाई करीब एक से डेढ़ लाख रुपये मानी जाती है, जबकि रेलवे में अधिकारियों की इफरात है. यह भी सर्वज्ञात है कि लगभग प्रत्येक अधिकारी और कर्मचारी की मनचाही ट्रांसफर/पोस्टिंग, यहां तक कि इन्हें रद्द करने का सौदा भी, संबंधित पद की ऊपरी कमाई के आकलन के साथ होता है. ऐसे सैकड़ों मामले जब ‘रेल समाचार’ के संज्ञान में आए हैं, तब ऐसा कैसे हो सकता है कि यह सब रेलवे बोर्ड के वर्तमान निजाम के संज्ञान में न हो ! तात्पर्य यह है कि प्रधानमंत्री के अनुरूप भ्रष्टाचार को दूर करने और जमीनी काम करने के बजाय सिर्फ लफ्फाजी करने और आंकड़ों की बाजीगरी दिखाने में रेलवे के पांच मंत्रियों (डी. वी. सदानंद गौड़ा, सुरेश प्रभु, पीयूष गोयल, मनोज सिन्हा और राजेन गोहेन) ने साढ़े चार साल गंवा दिए हैं.