रेलमंत्री पीयूष गोयल का अनौचित्यपूर्ण निर्णय
पीयूष गोयल को पार्टी से ज्यादा आईपीएस की चिंता है?
समस्त आरपीएफ स्टाफ में व्याप्त हुआ भारी असंतोष
सरकार के चाटुकारों को मिल रहा है निर्णय में विलंब का लाभ
सुरेश त्रिपाठी
रेलमंत्री पीयूष गोयल ने शुक्रवार, 5 अक्टूबर को एक अत्यंत अनावश्यक, गैरजरूरी और अनौचित्यपूर्ण निर्णय के तहत रेल मंत्रालय से मान्यताप्राप्त ऑल इंडिया आरपीएफ एसोसिएशन में रिटायर्ड पदाधिकारियों की मान्यता समाप्त कर दी. निश्चित रूप से रेलमंत्री ने यह नितांत अनावश्यक निर्णय आईपीएस लॉबी के दबाव में आकर लिया है, जिसकी आंख की किरकिरी सिर्फ यू. एस. झा बने हुए हैं. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में तत्कालीन रेलमंत्री द्वारा रेलवे के अन्य मान्यताप्राप्त संगठनों की ही भांति आरपीएफ एसोसिएशन में भी उसके संविधान के अनुरूप इसके दो शीर्ष पदों – अध्यक्ष एवं महामंत्री – पर रिटायर्ड आरपीएफ कर्मियों के चयन की अनुमति आरपीएफ कर्मियों को प्रदान की थी.
ज्ञातव्य है कि तत्कालीन रेलमंत्री द्वारा दी गई उक्त अनुमति के दो आधार थे. एक, यह कि कार्यरत आरपीएफ कर्मी आरपीएफ अधिकारियों (डीजी एवं अन्य) के समक्ष पूरी निर्भीकता और आत्मविश्वास के साथ वार्तालाप करने की स्थिति नहीं हो सकता है. दूसरा, यह कि वर्ष 2010 में ही एसोसिएशन ने अपनी वार्षिक सर्वसाधारण सभा और जनरल काउंसिल की बैठक में सर्वसम्मति से अध्यक्ष एवं महामंत्री के पदों पर रिटायर्ड आरपीएफ कर्मियों को चयनित किए जाने संबंधी संविधान संशोधन पारित कर दिया था. इस संशोधन को रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज ने भी अनुमोदित किया था, जिसके आधार पर अब तक एसोसिएशन के उक्त दोनों शीर्ष पदाधिकारियों को जीएम और बोर्ड की बैठकों में आमंत्रित किया जाता रहा है.
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एसोसिएशन के संविधान के अनुसार एसोसिएशन के किसी खास उद्देश्य अथवा नाम (शीर्षक) जैसे किसी प्रकार के बड़े बदलाव से संबंधित संशोधन को ही रेल प्रशासन (डीजी) की संस्तुति की आवश्यकता है. यानि उपरोक्त संशोधन को डीजी की संस्तुति की कोई जरूरत नहीं थी. इसका एक तात्पर्य यह भी है कि बल सदस्यों को ही यह अधिकार है कि उन्हें अपना संगठन किस प्रकार चलाना है, किसे अपना पदाधिकारी नियुक्त करना है, यह वही तय करेंगे, न कि आरपीएफ प्रशासन (डीजी). इसके अलावा रेलवे ऐक्ट की धारा 2(34) और आरपीएफ ऐक्ट की धारा 10 के अनुसार ‘आरपीएफ कर्मी’ भी पूरी तरह से ‘रेलकर्मी’ हैं. रिटायर होने के बाद भी यदि वे एसोसिएशन के किसी पद पर रहते हुए किसी प्रकार के कदाचार में दोषी पाए जाते हैं, तो उसकी भरपाई उनकी पेंशन से करने का अधिकार रेल मंत्रालय (भारत सरकार) के पास सुरक्षित है. इस संदर्भ में यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विगत दो-तीन वर्षों के दौरान तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद एसोसिएशन अथवा बल सदस्यों द्वारा प्रशासन या सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार का कोई आन्दोलन अथवा धरना-मोर्चा नहीं किया गया, जबकि इस दरम्यान जितने भी डीजी आए-गए, सबने बल सदस्यों सहित एसोसिएशन को भी परेशान करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी.
जानकारों का कहना है कि एक के बाद एक ऐसे अनौचित्यपूर्ण कदम उठाकर केंद्र सरकार और रेलमंत्री वैधानिक संस्थाओं और समाज के विभिन्न वर्गों को नाराज कर रहे हैं. रेलमंत्री पीयूष गोयल के इस अनावश्यक कदम से रेलवे के अन्य सभी मान्यताप्राप्त संगठनों में भी भय का वातावरण व्याप्त हो गया है. उनके इस एक गलत निर्णय के कारण उनकी पार्टी को अगले महीने होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसका असर देखने को मिलेगा, जबकि अगले छह महीनों में होने वाले लोकसभा चुनावों में पूरे देश में पार्टी को लगभग पचास लाख वोटों का नुकसान हो सकता है. उनका कहना है कि कोई भी समझदार केंद्रीय मंत्री ऐसे मौके पर ऐसा कोई कदम उठाने से निश्चित रूप से परहेज करता. रेलवे बोर्ड के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि श्री गोयल को पार्टी से ज्यादा आईपीएस की चिंता है, क्योंकि वह पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें (आईपीएस) हटाने की बात मत करो, उससे पहले वह हमें ही हटा देंगे!
रेलमंत्री पीयूष गोयल के इस निर्णय से आरपीएफ के 70 हजार जवानों में सरकार के प्रति भारी रोष और असंतोष व्याप्त हो गया है. उनका कहना है कि वर्तमान व्यवस्था में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. सरकार पर नौकरशाही हावी हो गई है. दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार अजय तिवारी ने ट्वीट करके कहा है कि आरपीएफ एसोसिएशन के पदाधिकारियों को लगातार परेशान किया जा रहा है और उन्हें कर्मचारी हित के काम नहीं करने दिए जा रहे हैं. उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि एक सभ्य समाज में हम यह किस प्रकार के भारत का निर्माण कर रहे हैं? उन्होंने एक अन्य ट्वीट में कहा कि रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) को जबरन कुचला जा रहा है. यह मेहनतकश वर्गों, श्रमिकों और कर्मचारियों तथा उनके संगठनों के प्रति सरकार के व्यवहार को दर्शाता है.
श्री तिवारी के साथ ही दिल्ली के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार शेखर घोष ने भी ट्वीटर पर लिखा है कि रेलमंत्री पीयूष गोयल ने अपने इस एक गलत निर्णय के कारण सिर्फ पार्टी का ही नहीं, बल्कि रेलवे का भी भारी नुकसान किया है. उन्होंने लिखा है कि रेलवे में अधिकारियों को डरा-धमकाकर पार्टी के चहेतों को बड़े-बड़े टेंडर दिलाने का धंधा बहुत जोरों पर चल रहा है. जो अधिकारी नहीं डरता, या उनका कहा नहीं मानता, उसे कहीं दूर-दराज ट्रांसफर कर देते हैं. उन्होंने यह भी लिखा है कि एक सज्जन इस मामले को लेकर सीबीआई में जा रहे हैं, तब यही आईपीएस अधिकारी, लालू प्रसाद यादव की ही तरह, सत्ता से हटने के बाद पीयूष गोयल को भी बांस करेंगे. उन्होंने यह भी लिखा है कि उक्त निर्णय से ढ़ाई-तीन लाख मत कम आंके गए हैं, अब यह करोड़ों में कम होंगे. श्री घोष ने यह भी लिखा है कि मोदी जी की बस्ती में आग लगती है, तो लगे, इससे पीयूष गोयल को कोई लेना-देना नहीं है. गोयल ने अपने मंत्री पद का फायदा उठाते हुए पहले एक वरिष्ठ पत्रकार को रेलवे बीट से हटवाया और एक अधिकारी को आनन-फानन में ट्रांसफर करके कपुरथला भेज दिया है. उस अधिकारी की गलती सिर्फ इतनी है कि उनके कहने पर उसने अनैतिक टेंडर देने से मना कर दिया था.
बहरहाल, यह लड़ाई यही खत्म हो गई है, ऐसा मानना फिलहाल जल्दबाजी होगी. पीयूष गोयल और उनके आईपीएस भी यदि यही मान रहे हैं, तो वह भारी मुगालते में हैं. कानून के अनुसार आईपीएस को आरपीएफ से बाहर रखने का मामला अभी भी दिल्ली हाई कोर्ट में विचाराधीन है. अब यह ताजा मामला भी उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनने वाला है. सरकार की यह सरासर असफलता और अकर्मण्यता ही कही जाएगी कि कानून संसद में पास किया जाता है, मगर उसे लागू करवाने की गुहार अदालत से करनी पड़ती है. तथापि सारा मामला शीशे की तरह एकदम साफ होने के बावजूद अदालत उस पर निर्णय लेने में अनावश्यक देरी कर रही है, जिसका लाभ सरकार और उसके चाटुकारों को मिल रहा है.