आरक्षण: दलितों को दलित बनाए रखने की साजिश-2
पूर्व चीफ जस्टिस द्वारा जातिगत आधार पर पद के दुरूपयोग का शर्मनाक उदाहरण
न्यायाधीशों का विचलन, गिरती गरिमा और असंवैधानिक प्रावधानों का सुरक्षा कवच
सुरेश त्रिपाठी
पदोन्नति में आरक्षण की मांग करने वाले राजनेताओं और लोकसेवकों को उनके पद से बर्खास्त करके उनके विरुद्ध फौजदारी मुकदमे दर्ज कराने के संबंध में ‘समता आंदोलन समिति’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पारासर नारायण शर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा है. उन्होंने इस पत्र में एक सटीक बात यह कही है कि पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के तहत दलितों को दलित बनाए रखने तथा देश को तोड़ने की साजिश की जा रही है. श्री शर्मा ने अपने इस लंबे पत्र में प्रधानमंत्री से विनम्र निवेदन करते हुए पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य उनके संज्ञान में लाने और उनसे उन्हें अवगत कराने का प्रयास किया है.
न्यायाधीशों का विचलन, न्यायपालिका की लगातार गिरती गरिमा:
पदोन्नति में आरक्षण की अन्यायपूर्ण, अविधिक और असंवैधानिक व्यवस्था के विरूद्ध सुनवाई करते समय या निर्णय देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायधीश भी उक्त जातिवादियों की लॉबी के दवाब में विचलित हो जाते हैं, अज्ञात भय से ग्रस्त रहते हैं और ऐसे कार्य करने लगते हैं, जिनसे न्यायपालिका की गरिमा लगातार गिरती जा रही है. यहां प्रस्तुत हैं इसके कुछ उदाहरण-
1. असंवैधानिक प्रावधानों को न्यायधीशों का सुरक्षा कवच- इंदिरा साहनी प्रकरण में यह स्पष्ट निर्णय दिया गया था कि पदोन्नति में आरक्षण असंवैधानिक है, यह संविधान की मूलभूत संरचना के खिलाफ है. तथापि, इसके साथ ही यह निर्देश भी दिए गए कि इस व्यवस्था को पांच साल तक चालू रखा जाए. पूरे विश्व में शायद यह पहली घटना है, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक, विभेदकारी, अन्यायपूर्ण व्यवस्था को पांच वर्ष तक चालू रखने के निर्देश दिए हैं.
2. जाति आधारित पिछड़ेपन को न्यायाधीशों द्वारा स्थायी किया जाना- इंदिरा साहनी प्रकरण सहित अन्य अनेक प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों ने यह निर्णय दिया कि पिछड़ेपन का आधार जाति हो सकती है. यह भी निर्णय दिया गया कि क्रीमीलेयर का सिद्धांत अजा/अजजा (एससी/एसटी) पर लागू नहीं होता. केवल इस एकमात्र आधार पर ही सरकारी नौकरी प्राप्त अगड़े एवं संपन्न अजा/अजजा वर्ग के लोकसेवक पदोन्नति में आरक्षण मांग रहे हैं. सर्वोच्च पदों पर पहुंचकर भी यह पिछड़े बने हुए हैं. आजाद भारत के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी अजा/अजजा का एक भी व्यक्ति अगड़ा नहीं हो पाया है. विश्व में भारत पहला देश है जहां के राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, मंत्री, सांसद, विधायक, उच्चाधिकारी और करोड़पति लोग भी जाति के आधार पर पिछड़ों और वंचितों का लाभ हड़प रहे हैं. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि किसी न्यायालय या न्यायाधीश, राजनेता, राजनीतिक दल अथवा सरकार में इतना नैतिक साहस नहीं है, जो इस घोर अन्याय को रोक सके!
3. न्यायाधीशों के विरोधाभासी निर्णय- आर. के. सभरवाल के प्रकरण में संविधान पीठ द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि निर्धारित कोटे (15% अजा एवं 7.5% अजजा) तक अजा/अजजा लोकसेवकों के पदोन्नत पद भर जाने के बाद रिप्लेसमेंट सिद्धांत लागू किया जाए. अर्थात जिस वर्ग का पद खाली हो, वह उसी वर्ग से भरा जाए, ताकि कभी भी किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व कम या अधिक नहीं हो. इसके विपरीत एम. नागराज प्रकरण में यह निर्णय दिया गया कि यदि संख्यात्मक आंकड़ों के आधार पर अजा/अजजा लोकसेवकों को पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व एवं सकल प्रशासनिक दक्षता की सुरक्षा जैसे अनिवार्य कारण स्थापित नहीं किए जाते हैं, तो राज्य को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान बनाने का कोई अधिकार नहीं है. चौंकाने वाली बात यह है कि इसी निर्णय में आर. के. सभरवाल के निर्णय का अनुपालन करना भी अनिवार्य बताया गया था, जबकि दोनों निर्णय प्रकटतः विरोधाभासी हैं.
4. भारत के मुख्य न्यायधीश द्वारा जाति के आधार पर पद का दुरूपयोग- एम. नागराज के प्रकरण में कुल 79 याचिकाओं, एसएलपी एवं अपीलों की सुनवाई करने के बाद अंत में यह निर्णय दिया गया कि हमने जो कानून निर्धारित किया है, उसके आधार पर अलग-अलग राज्यों के विवादित नियमों/प्रावधानों की असंवैधानिकता उपयुक्त बेंच द्वारा अलग से निर्णीत की जाएगी. यह सर्वविदित तथ्य है कि इसके बाद जस्टिस के. जी. बालकृष्ण (जो अनुसूचित जाति वर्ग के थे) भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, जिन्होंने दुराशयपूर्वक लगभग साढ़े तीन साल तक उपरोक्त 79 याचिकाओं को लटकाए रखा और अंततः सेवानिवृति से पहले सभी याचिकाओं को संबंधित राज्यों के हाईकोर्ट को स्थानांतरित कर गए, ताकि याचिकाकर्ताओं को एम. नागराज प्रकरण के निर्णय का लाभ न मिल सके. मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्ण द्वारा जातिगत आधार पर अपने पद का दुरूपयोग करने तथा विपरीत भेदभाव का यह सबसे दुखद और शर्मनाक उदाहरण है. परिणामतः सभी याचिकाकर्ता बिना पदोन्नति पाए ही सेवानिवृत हो गए. यहां तक कि एम. नागराज स्वयं भी, जिनके नाम से ये निर्णय विख्यात है, इस निर्णय का लाभ नहीं ले पाए और बिना पदोन्नति पाए ही सेवानिवृत हो गए.
5. न्यायाधिपति/मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायपालिका की अवमानना करने वाले मुख्य सचिव एवं कार्मिक सचिव को बचाया जाना-राजस्थान हाईकोर्ट ने बजरंग लाल शर्मा और सूरजभान मीणा के प्रकरणों में दिए गए हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का अनुपालन नहीं करने के कारण जब 15 महीनों की लंबी सुनवाई के बाद राज्य के मुख्य सचिव और कार्मिक सचिव को अवमानना का दोषी ठहराते हुए तीन दिन में निर्णयों का अनुपालन करने या सजा भुगतने के निर्देश दिए, तो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अलतमस कबीर ने स्थगन आदेश देकर सुनवाई के बाद 6 महीने तक आदेश सुरक्षित रखकर अंततः दोषी अधिकारियों को बरी कर दिया तथा दो महीनों का अतिरिक्त समय देते हुए उक्त निर्णयों की पालना के निर्देश दिए. यह दो महीने अगस्त 2012 के बाद से आज तक पूरे नहीं हुए हैं, जबकि अवमानना याचिकाएं अभी भी हाई कोर्ट में लंबित हैं.
6. चार असंवैधानिक संविधान संशोधनों को अप्रत्यक्ष रूप से निरस्त किया गया- पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित 77वें, 81वें, 82वें एवं 85वें संविधान संशोधनों को एम. नागराज के प्रकरण में न्यायाधीशगण प्रत्यक्षतः निरस्त करने का निर्णय नहीं दे पाए तथा तीन अनिवार्य कारणों को संख्यात्मक आंकडों से स्थापित करने की शर्त पर संवैधानिक घोषित कर दिया. अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से निरस्त किया, क्योंकि ये सर्वविदित तथ्य है कि पदोन्नति में आरक्षण को जिन आधारों पर इंदिरा साहनी के प्रकरण में नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने निरस्त किया था, वे सभी आधार आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं. यह भी बार-बार प्रमाणित हो चुका है कि उक्त तीन अनिवार्य कारणों को संख्यात्मक आंकड़ों के आधार पर कोई भी राज्य स्थापित या साबित कर ही नहीं सकता, क्योंकि भारतीय संविधान वंचित अजा/अजजा और राष्ट्रवादी लोकसेवकों के साथ धोखाधड़ी और विश्वासघात की अनुमति नहीं देता है.
7. पदोन्नति में आरक्षण संबंधी याचिकाओं के त्वरित निपटारे में न्यायधीशों की अरूचि- यह भी सर्वविदित तथ्य है कि कैट, उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित सैकड़ों याचिकाएं लंबित हैं. अनेक संविधान पीठों के निर्णयों की अवहेलना प्रमाणित होने के बावजूद न्यायाधीशगण इन याचिकाओं के निपटारे में रूचि नहीं ले रहे हैं. यह याचिकाएं वर्षों तक लंबित रहती हैं. याचिकाकर्ता न्याय की उम्मीद लिए ही सेवानिवृत हो जाते हैं.
8. अनेक उदाहरण- पदोन्नति में आरक्षण संबंधी याचिकाओं में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा किस तरह बार-बार अन्यायपूर्ण और भेदभावपूर्ण विस्मयकारी निर्णय देकर न्यापालिका की गरिमा को गिराया गया है, इसके अनेक उदाहरण अरुण शौरी की पुस्तक ‘आरक्षण का दंश’ में देखे जा सकते हैं. क्रमशः