अनिश्चितकालीन रेल हड़ताल स्थगित?

तारीख दर तारीख आगे बढ़ती हड़ताल : श्रमिक संगठनों से हुआ कर्मचारियों का मोह भंग

सरकारी कर्मचारियों को डराने और श्रमिक नेताओं पर लगाम कसने में कामयाब रही सरकार

सुरेश त्रिपाठी

केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन और फिटमेंट फ़ॉर्मूले पर और एक समिति के गठन के एक सामान्य आश्वासन पर 6 जुलाई को केंद्रीय श्रमिक संगठनों की राष्ट्रीय संयुक्त संघर्ष समिति (एनजेसीए) ने अनिश्चितकालीन रेल हड़ताल को स्थगित कर दिया. एनजेसीए द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि केंद्रीय वित्तमंत्री ने एक बयान जारी करके कहा है कि उपरोक्त दोनों मुद्दों पर एक समिति का गठन किया जाएगा, जो कि अपनी रिपोर्ट चार महीने में सरकार को सौंपेगी. इससे उनकी प्रमुख मांगों का उचित समाधान हो गया है और उम्मीद है कि समिति द्वारा उक्त दोनों मुद्दों पर श्रमिकों के हितों को ध्यान में रखकर पुनरीक्षण रिपोर्ट सौंपी जाएगी. अतः सरकार के इस आश्वासन पर अनिश्चितकालीन हड़ताल को फिलहाल स्थगित किया जाता है.

हालांकि इससे पहले 30 जून को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर वित्तमंत्री अरुण जेटली, रेलमंत्री सुरेश प्रभु और रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा के साथ हुई केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं की बैठक में ही यह तय हो गया था कि रेल हड़ताल नहीं होगी. ‘रेलवे समाचार’ ने ‘रेल हड़ताल की संभावना क्षीण’ शीर्षक से इस बारे में लिखा भी था. इसके अलावा लाखों रेलकर्मियों सहित तमाम केंद्रीय कर्मचारियों को भी यह पता था कि अंत-अंत तक हड़ताल या तो वापस ले ली जाएगी, या फिर किसी तथाकथित सम्मानजनक समझौते के तहत हड़ताल को स्थगित कर दिया जाएगा. हुआ भी यही है. हालांकि 29 जून को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में मंजूरी और उसी दिन सरकार द्वारा सातवें वेतन आयोग को लागू किए जाने की घोषणा के बाद तमाम केंद्रीय कर्मचारियों की अपेक्षाएं भंग हुईं और वे हड़ताल के पक्ष में पूरी तरह से एकजुट हो गए थे.

इससे अगले वर्ष उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही भाजपा के लिए फिलहाल किसी राज्य की विधानसभा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण महाराष्ट्र में मुंबई महानगर पालिका के चुनाव के मद्देनजर न सिर्फ सरकार के हाथ-पांव फूल गए, बल्कि केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं को भी हड़ताल के पक्ष में उनकी अपेक्षा से अधिक समर्थन मिल गया. हड़ताल के समर्थन में रेलवे सहित तमाम केंद्रीय कर्मचारियों के भारी उत्साह को देखते हुए जहां सरकार को अपनी राजनीतिक जमीन हिलती हुई नजर आ रही थी, वहीं केंद्रीय श्रमिक संगठनों की हालत भी उनके गले में फंसे गुड़ भरे हंसिए जैसी हो गई, जिसे उन्हें न उगलते बन रहा था, न ही निगलते, क्योंकि जिस तरह कर्मचारियों का असंतोष फूट पड़ा और वह मैदान में उतर आए, उसे देखते हुए केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं को अब हड़ताल से भागने का कोई अवसर नहीं था.

वेतन आयोग को लागू किए जाने की घोषणा के बाद रेलवे सहित लगभग सभी केंद्रीय संगठनों से जुड़े सरकारी कर्मचारियों द्वारा देश भर में और रेलवे के लगभग सभी जोनों और मंडलों में आए दिन प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री तथा जस्टिस ए. के. माथुर आदि के पुतले जलाए जाने लगे. यहां तक कि बकायदे उनकी शव यात्राएं भी निकाली गईं. यह भी प्रचार किया गया कि ‘भाजपा नीत सरकार ने पहले पुरानी पेंशन योजना छीनकर सभी केंद्रीय कर्मचारियों का भविष्य अंधकारमय बना दिया, और अब वेतन भी छीनने पर अमादा है, यदि 2019 में पुनः भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया गया, तो यह सरकारी कर्मचारियों की नौकरी भी छीन लेगी.’ इसके साथ ही यह प्रचार करके वित्तमंत्री अरुण जेटली की जबरदस्त खिंचाई की गई, कि ‘यह वही अरुण जेटली हैं, जो विपक्ष में रहते हुए कहा करते थे कि इस देश में एफडीआई उनकी लाश पर से गुजर कर ही आ पाएगी, और अब यही जेटली साहब देश के हर क्षेत्र में शत-प्रतिशत एफडीआई, पीपीपी और आउटसोर्सिंग के सबसे बड़े पैरोकार बन गए हैं.’ इसके अलावा सातवें वेतन आयोग के चेयरमैन रहे जस्टिस ए. के. माथुर द्वारा एक साक्षात्कार में रेलवे में ‘सफेद चादर’ न मिलने और सरकारी कर्मचारियों के काम नहीं करने के बयान पर बिफरे रेलकर्मियों ने ‘ईश्वर उन्हें जल्दी ही सफेद चादर (कफ़न) ओढ़ाए’ की प्रार्थना करके उनका जबरदस्त मजाक बनाया.

29 जून के बाद सभी केंद्रीय कर्मचारियों, जिनमें सबसे आगे रेलकर्मी ही थे, द्वारा लगातार धरना-मोर्चा, आंदोलन करने सहित केंद्रीय मंत्रियों के पुतले फूंकने और उनकी शव यात्राएं निकालने के कार्यक्रम जोर पकड़ते जा रहे थे. इसके साथ ही भाजपा और सरकार के विरुद्ध सोशल मीडिया में भी दुष्प्रचार की भारी बाढ़ आ गई. इस संपूर्ण परिदृश्य को देखकर सरकार और सभी सरकारी महकमों की चूलें हिलने लगी थीं. तभी कुछ सरकारी बिचौलियों के माध्यम से अचानक 30 जून की देर शाम को चार केंद्रीय मंत्रियों और केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं की बैठक आमंत्रित कर ली गई और प्रचारित यह किया गया कि ऐसा प्रधानमंत्री की पहल पर किया गया है, क्योंकि 7 जुलाई को प्रधानमंत्री लंबी विदेश यात्रा पर जाने वाले हैं और वह इससे पहले हड़ताल को लेकर कोई निश्चित समाधान चाहते हैं. जबकि इससे पहले दो साल तक केंद्र सरकार ने किसी भी केंद्रीय श्रमिक संगठन या उनके नेताओं को तनिक भी तवज्जो नहीं दी थी. इस बीच हड़ताल होनी चाहिए, या नहीं, इसको लेकर मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने दो बार रेलकर्मियों से मतदान करवाया. दोनों बार 96 से 98 प्रतिशत रेलकर्मियों के हड़ताल के पक्ष में मतदान किए जाने का दावा किया गया, जबकि यह मतदान कैसे हुआ, कैसे कराया गया, इसका असली सच सभी रेलकर्मी जानते हैं. हालांकि रेलकर्मियों का मोह अपने श्रमिक संगठनों से तभी भंग हो गया था, जब उन्होंने सरकार की मात्र एक अपील पर बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनजर हड़ताल को तीसरी बार टाल दिया था.

इस बीच सरकार के तेवर भी बहुत कड़े नजर आए. उसके निर्देश पर रेलवे सहित सभी सरकारी महकमों ने न सिर्फ हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया, बल्कि हड़ताल विरोधी विभिन्न कानूनों का हवाला देकर इसके तहत कर्मचारियों को दो साल की सजा और जुर्माना आदि बता दिए जाने से तमाम कर्मचारी कुछ हद तक बिखरे, मगर टूटे नहीं थे. इसके अलावा सरकार द्वारा सभी कर्मचारियों की छुट्टियां रद्द कर दी गईं, जो कर्मचारी छुट्टी पर थे, उनकी छुट्टियां रद्द करके उन्हें ड्यूटी पर रिपोर्ट करने का आदेश दिया गया. सभी सरकारी एवं रेलवे अस्पतालों के डॉक्टरों को कड़े निर्देश जारी किए गए कि वे किसी भी सरकारी कर्मचारी को मेडिकल छुट्टी पर न रखें. किसी भी कर्मचारी को आकस्मिक अवकाश भी नहीं दिए जाने के आदेश सभी संबंधित विभागीय अधिकारियों को दे दिए गए. पुलिस फोर्स सहित सभी फोर्सेज को सतर्क और किसी भी विपरीत स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहने को कह दिया गया था. सरकार की इस सब तैयारी के मद्देनजर केंद्रीय श्रमिक संगठनों के सभी नेताओं को भी इस बात का बखूबी अंदाजा हो गया था कि उनका जो होगा, सो तो होगा ही, परंतु हड़ताल होने पर बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों का उत्पीड़न होगा, हजारों कर्मचारियों को अपनी नौकरियां भी गंवानी पड़ सकती हैं. इसलिए यह हड़ताल न हो, इसके लिए सरकार के साथ वह भी प्रयासरत हो गए. हालांकि कर्मचारी तो अब यह भी कह रहे हैं कि उनके बजाय श्रमिक नेताओं को ही अपने अस्तित्व का सबसे बड़ा खतरा था.

अब जब वेतन आयोग की घोषणा के बाद उससे उपजे भारी असंतोष के कारण अनिश्चितकालीन रेल हड़ताल के पक्ष में रेलकर्मियों सहित सभी केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों ने उत्स्फूर्त समर्थन घोषित कर दिया, तब पुनः श्रमिक नेताओं द्वारा सरकार के एक सामान्य आश्वासन या बिना किसी पुख्ता घोषणा के ही चौथी बार हड़ताल को स्थगित कर देने या उससे भाग खड़े होने पर उन्होंने अपनी बची-खुची गरिमा और भरोसे को भी पूरी तरह से गंवा दिया है. अब चार महीने बाद तथाकथित समिति द्वारा उपरोक्त दोनों मुद्दों पर क्या अनुशंसा की जाएगी, और क्या वास्तव में श्रमिक नेता अपने कर्मचारी साथियों को कुछ दिला पाने में समर्थ हो सकेंगे, इस बारे में फिलहाल न तो कुछ नहीं कहा जा सकता है, और न ही संबंधित नेतागण कुछ कहने की स्थिति में रह गए हैं. उन्होंने ‘गोपनीय’ – ‘अगोपनीय’ चिट्ठियों के माध्यम से सभी कर्मचारियों और क्षेत्रीय नेताओं को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद तो ज्ञापित कर दिया है, मगर किसी नेता ने अब तक कोई सार्वजनिक सभा लेने की घोषणा नहीं की है. जबकि उन्हें अपनी इस ‘जीत’ के लिए सार्वजनिक तौर पर सभाएं करके सभी सरकारी कर्मचारियों एवं सभी क्षेत्रीय नेताओं का शुक्रिया अदा करने उनके सामने आना चाहिए था.

वेतन आयोग लागू किए जाने की घोषणा के साथ ही सरकार ने श्रमिक संगठनों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे ‘एनपीएस’ के मामले को एक अन्य समिति के हवाले करके उस पर श्रमिक संगठनों को कुछ भी हरकत करने से पहले ही सीमित या प्रतिबंधित कर दिया था. इस अत्यंत ज्वलंत मुद्दे पर पिछले 12 सालों में कोई उचित समाधान नहीं निकाला जा सका, जिससे सभी केंद्रीय श्रमिक संगठन पहले से ही न सिर्फ कर्मचारियों के दबाव में हैं, बल्कि उनका कोपभाजन भी बन रहे हैं. अब न्यूनतम वेतन और फिटमेंट फ़ॉर्मूले पर एक और समिति बनाए जाने से वह बहुत हताश और निराश हुए हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि पांचवें और छठवें वेतन आयोग की विसंगतियों का भी जब अब तक कोई उचित समाधान करा पाने में यह संगठन कामयाब नहीं हो पाए, तो इन समितियों से इन्हें शायद ही कुछ हासिल हो पाएगा.

तथापि, यह ठीक है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना अधिकार हासिल करने का हक है और इसके लिए धरना-मोर्चा एवं आंदोलन करने का भी अधिकार है. परंतु पिछले करीब दो-ढ़ाई साल के दरम्यान सरकारी कर्मचारी धरना-मोर्चा आंदोलन करने सहित सातवें वेतन आयोग से उन्हें क्या मिलने वाला है, आदि को लेकर जिस तरह से अपने गुणा-भाग करने में लगे हुए थे, इनमें कार्यालयीन कर्मचारी ही ज्यादातर लिप्त थे, उससे बड़े पैमाने पर मानव घंटों एवं कार्य दिनों का नुकसान हुआ है, जो कि एक राष्ट्रीय क्षति ही कही जाएगी, इस बारे में सरकार को अवश्य सोचना चाहिए. यदि साकार समय रहते सार्वजनिक एवं कर्मचारी हित के फैसले कर ले, तो न सिर्फ इस भारी राष्ट्रीय क्षति से बचा जा सकता है, बल्कि इसे राष्ट्र के विकास की तरफ मोड़ा जा सकता है, जो कि वर्तमान केंद्र सरकार का एजेंडा भी है.इसके साथ सभी श्रमिक संगठनों को भी कर्मचारी हितों की अपनी पारंपरिक भूमिका को निभाने के साथ ही अब इस बारे में सोचना चाहिए कि इस राष्ट्रीय क्षति को रोककर इसे किस तरह राष्ट्र निर्माण की तरफ मोड़ा जाए. इसके लिए उन्हें सर्वप्रथम प्रशासनिक भ्रष्टाचार और जोड़तोड़ से दूर रहना होगा और राष्ट्र एवं कर्मचारी हितों के लिए निष्पक्ष एवं विशुद्ध रूप से काम करना होगा.