शिक्षा में भारतीय भाषाओं के बढ़ते कदम
यूजीसी के आदेश का स्वागत है परंतु केवल आदेश से काम नहीं चलेगा, केंद्र सरकार को इसके कार्यान्वयन के लिए भी एक रेगुलेटरी बॉडी बनानी होगी! यह हिंदी या किसी भाषा को किसी पर लादने या थोपने का प्रश्न नहीं है, प्रादेशिक भाषाओं में भारतीय भाषाओं को शिक्षा शोध प्रशासन न्यायालय में उस लोक का हक दिलवाना है जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं!
भारतीय भाषाओं में पढ़ने लिखने वालों को यूजीसी ने एक और उपहार दिया है। यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों से स्थानीय भाषाओं में शिक्षा उपलब्ध कराने को कहा है, और साथ ही विद्यार्थियों को यह सुविधा भी दी है कि फिलहाल भले ही वह अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हों, लेकिन यदि चाहें तो परीक्षा अपनी मातृ भाषाओं में दे सकते हैं।
यह वास्तव में महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया से लेकर डॉ दौलत सिंह कोठारी की आत्मा आजादी के 75वें वर्ष में बहुत संतोष अनुभव कर रही होगी। बीएचयू के स्थापना वर्ष 1916 में महात्मा गांधी ने अपनी भाषाओं में पढ़ाने पर जोर दिया था और इसी विश्वविद्यालय के 25 वर्ष पूरा होने पर 1941 में उन्होंने छात्रों से अपील की थी कि यदि उनकी भाषा में पढ़ाई नहीं होती तो वे इसके लिए आंदोलन करें!
राम मनोहर लोहिया भी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अंग्रेजियत के सख्त खिलाफ थे और लगातार अपनी भाषाओं के लिए संघर्षरत रहे। उनका तो यह भी मानना था कि अंग्रेजी ही भ्रष्टाचार की जननी है, क्योंकि जब जनता की समझ में नहीं आता कि क्या लिखा गया है, कचहरी में क्या बहस हो रही है, यह सब मिलकर उसको गुमराह करते हैं और अंततः भ्रष्टाचार।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक शिक्षाविद डॉ कोठारी ने 1966 में शिक्षा आयोग के चेयरमैन के रूप में सिफारिश की थी, उसमें सबसे महत्वपूर्ण संस्तुति यही थी कि न केवल स्कूली शिक्षा, बल्कि उच्च शिक्षा भी अपनी भाषाओं में दी जाए और सभी के लिए समान शिक्षा हो। लेकिन इस बीच यह सपना इतना कमजोर होता गया कि निजी स्कूलों में डंके की चोट पर हिंदी बोलना भी अपराध घोषित कर दिया गया।
अफसोस की बात स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की दुहाई देने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर प्रशासक वकील जज सब टुकुर-टुकुर देखते रहे। यहां तक कि सैम पित्रोदा जैसे कांग्रेसी-भक्त पूरे देश को अंग्रेजी में रंगने के लिए तरह-तरह की योजनाएं देते रहे जिसे आगे चलकर मनमोहन सिंह ने नेहरू से भी दस कदम आगे बढ़कर अंग्रेजी को इस रूप में सराहा कि अंग्रेजी भारत की उद्धारक रही है। गुलामी का जुआ ढ़ोते-ढ़ोते एक गुलाम कैसे उसका बखान करने लगता है, यह उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
लेकिन हर स्वाभिमान देश की आत्मा कभी न कभी जागती है और अब शायद उसका समय भाषा के मामले में तो आ ही गया है। पिछले कुछ सालों में ऐसे अनेक कदम उठाए गए हैं जिससे गांव के पिछड़े लोग अपनी भाषा के बूते आगे बढ़ सकते हैं।
क्या टैलेंट केवल अंग्रेजी वालों में होता है? बिल्कुल नहीं! कोठारी समिति ने वर्ष 1979 में इसी स्थापना से सिविल सेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की शुरुआत कराई थी। जितनी उम्मीद की जानी थी उतनी प्रगति तो नहीं हुई, लेकिन पिछले दिनों उस दिशा में लगातार प्रगति हो रही है।
हाल ही में अर्धसैनिक बलों में भर्ती के लिए केंद्र सरकार ने कर्मचारी चयन आयोग से 13 भाषाओं में भर्ती परीक्षा कराने का फैसला किया है और ऐसा ही फैसला कर्मचारी चयन आयोग बैंकिंग सेवा और रेलवे की सेवाओं के लिए तीन वर्ष पहले किया गया था।
रेलवे में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और दूसरी भाषाओं में भर्ती परीक्षा में शुरुआत कई वर्षों से हो चुकी है। न केवल नौकरियों की परीक्षाएं बल्कि मेडिकल इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में भी भारतीय भाषाएं लगातार आगे बढ़ रही हैं। मेडिकल की नीट परीक्षा भी 6 भाषाओं से शुरू होकर अब 13 भाषाओं में हो रही है।
न्यायालय कोर्ट कचहरी में भी कुछ कदम पड़े हैं और इसका प्रमाण है 2 महीने पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ द्वारा महत्वपूर्ण निर्णय को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने का फैसला। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 3 वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे महत्वपूर्ण फसलों की वेबसाइट का उद्घाटन किया था।
इन्हीं सब का परिणाम है कि क्षेत्रीय हाई कोर्ट भी अपनी भाषाओं में निर्णय देने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं। हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने अपना निर्णय मलयालम भाषा में पहली बार लिखा है। उत्तर भारत के निचले स्तर के न्यायालयों प्रयागराज पटना जयपुर से हिंदी में निर्णय की खबर उत्साह जगाती है।
लेकिन अभी भी दिल्ली दूर है और इसका कारण शिक्षा में भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी प्रांतों में हिंदी के प्रति उपेक्षा का भाव है और इसे रोकना होगा। लगभग पूरे दक्षिण भारत में उनकी प्रादेशिक भाषाएं दसवीं तक अनिवार्य हैं और लगभग 80% बच्चे 12वीं कक्षा में भी चाहे वे विज्ञान ही क्यों न पढ़ रहे हों, अंग्रेजी के साथ-साथ प्रादेशिक भाषा जैसे कन्नड़ मलयालम तमिल तेलुगू मराठी पढ़ते हैं। लेकिन उत्तर भारत में बहुत निराशाजनक स्थिति है।
दिल्ली के निजी स्कूलों में 12वीं में तो हिंदी पढ़ाई ही नहीं जाती, नौवीं दसवीं में भी अंग्रेजी के साथ दूसरी भाषा जर्मन फ्रेंच जापानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है और महंगी-महंगी किताबें देकर। दिल्ली की राज्य सरकार सहित केंद्र सरकार क्यों इस पक्ष से आंखें मूंदे बैठी है?अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं को पढ़ाने के बूते ही शिक्षा निजी क्षेत्र में एक धंधा बनती जा रही है।
पिछले दिनों फिनलैंड में शिक्षकों को भेजने की खबर थी। फिनलैंड की शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है अपनी भाषाओं में शिक्षा देने का। क्या दिल्ली सरकार उसे शुरू भी कर पाई है? उल्टे मुख्यमंत्री दिल्ली के बच्चों को अंग्रेजी सिखाने की योजनाएं टेलीविजन पर बताते हैं।
फिनलैंड की शिक्षा का इतना ही महत्वपूर्ण पक्ष योग्य शिक्षकों की भर्ती का है, जिन्हें मनोविज्ञान, बाल विज्ञान, विषय ज्ञान, के कई परीक्षणों से गुजरना होता है और हमारे देश में बंगाल में शिक्षकों की भर्ती का उदाहरण हो या हरियाणा में चौटाला की जेल जाने की खबरें या आए दिन शिक्षकों की भर्ती में नकल के मामले! केवल विदेश में चंद लोगों को शिक्षा के नाम पर घुमक्कड़ी करने भेजने से शिक्षा का स्तर नहीं सुधर सकता।
विदेशी विश्वविद्यालयों की शुरुआत कहीं अंग्रेजी की दौड़ को और तेज न कर दे, इसलिए सरकार और समाज दोनों को सचेत रहने की आवश्यकता है।
इन्हीं सब कारणों से शिक्षा का स्तर लगातार गिरता गया है। बच्चों में रचनात्मकता और ज्ञान के प्रति नवोन्मेष भी समाप्त हो रहा है। महात्मा गांधी का कथन याद करें कि विदेशी भाषा का दबाव रट्टू तोता तो बना सकता है मगर रचनात्मकता को बाहर नहीं ला पाता। यहां तक कि उदारवाद का झंडा फहराते जेएनयू, जामिया, दिल्ली जैसे संस्थानों में हिंदी और भारतीय भाषाएं लगभग नदारद हैं। एक तरफ गरीब, जनवादी विश्वविद्यालय का दावा तो दूसरी तरफ अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को ही जड़ से खत्म करने का माहौल।
इसलिए यूजीसी के केवल आदेश से काम नहीं चलेगा, केंद्र सरकार को इसके कार्यान्वयन के लिए भी एक रेगुलेटरी बॉडी बनानी होगी। यहां पुनः यह बात रेखांकित करने की आवश्यकता है कि यह हिंदी या किसी भाषा को किसी पर लादने या थोपने का प्रश्न नहीं है, प्रादेशिक भाषाओं में भारतीय भाषाओं को शिक्षा शोध प्रशासन न्यायालय में उस लोक का हक दिलवाना है जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं!
#प्रेमपाल_शर्मा, शिक्षाविद, साहित्यकार और पूर्व संयुक्त सचिव भारत सरकार। संपर्क: 99713 99046.