शिक्षा के नाम पर धंधा – धंधे में बदलती शिक्षा
शिक्षा समवर्ती सूची में है और इस अधिकार के नाते इसी सत्र से केंद्र सरकार इस धंधे पर लगाम लगा सकती है। मौजूदा केंद्रीय सरकार ने कई मोर्चों पर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय भी दिया है। उसके लिए यह कोई कठिन काम नहीं है!
हरियाणा के सोनीपत के एक स्कूल की खबर आपकी नजरों से गुजरी होगी, जिसमें पहली क्लास के बच्चे को लगभग ₹6000 में 45 किताबें दी गईं । अच्छी बात यह रही कि अभिभावकों ने शिक्षा अधिकारी से मिलकर विरोध जताया। लेकिन क्या यह अकेली घटना है? और क्या यह पहली बार हो रहा है?
शिक्षा में यह रोग चार दशक पहले दिल्ली जैसे महानगर और दूसरे शहरों में शुरू हुआ था जब सरकारी स्कूलों को गरियाते निजी स्कूल मैदान में आए और किताब कापी-किताबें, बच्चों की ड्रेस जैसी दर्जनों चीजें बच्चों को महंगे दामों में जबरदस्ती देने की शुरुआत हुई। अब तो अरबों-खरबों के इस धंधे की कल्पना ही नहीं की जा सकती। न जाने कितने निजी स्कूल एक ब्रांड के रूप में काम करते हैं जहां उनकी अपनी किताबें भी छपती हैं, ड्रेस भी बनती है।
दिल्ली के और एक निजी स्कूल की किताबें देखने का मौका मिला। हिंदी की किताब का नाम हिंदी पाठमाला है। चौथी क्लास की इस किताब की कीमत ₹410 है और पूरे बस्ते का बोझ ₹5000 से ज्यादा। आठवीं कक्षा की हिंदी व्याकरण की किताब की कीमत ₹575 है और पाठ्यक्रम की किताब ₹490, जबकि एनसीईआरटी की किताबें प्रत्येक सिर्फ ₹50 की है। इसी स्कूल में आठवीं कक्षा के बच्चे को जर्मन और इंग्लिश की पांच किताबें दी गई हैं।
चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास समेत ज्यादातर निजी स्कूलों में चेतन भगत से लेकर शेक्सपियर की कोई न कोई किताब भी जबरन दी जाती है। क्या सरकार को इन निजी स्कूलों की हरकतों का पता नहीं है? क्या दिल्ली में बैठे अभिभावकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों ने इसके खिलाफ कभी आवाज उठाई? जब एनसीईआरटी की हिंदी की किताब समेत समाज विज्ञान, गणित सभी की कीमत ₹50 से ज्यादा नहीं है, तो ये निजी स्कूल यह किताबें 10 गुना कीमत पर क्यों दे रहे हैं? और उसमें भी घटिया सामग्री!गलत सूचनाएं!
लगभग 10 वर्ष पहले केंद्र सरकार ने कुछ आदेश निकाले थे कि निजी स्कूल जो भी किताबें देंगे वह सब उनकी वेबसाइट पर होनी चाहिए और यदि उसमें संविधान के मूल्यों के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री पाई गई तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। बीच में केंद्रीय स्तर पर पाठ्य पुस्तक बोर्ड बनाने की भी बात की गई थी।
बातें तो वर्ष 1992 में प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में बनी समिति ने बस्ते के बोझ को कम करने के लिए भी एक विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, लेकिन जैसे संविधान एक पवित्र कपड़े में बांधकर रख दिया गया है, हमारे सारे आदेश, शिक्षा समितियों की सिफारिशों के साथ भी यही हाल हो रहा है।
दिल्ली सरकार का ही उदाहरण लें तो स्पष्ट आदेश हैं कि बच्चों को कोई सामग्री स्कूल नहीं देगा और अपनी वेबसाइट पर स्कूल के नजदीक के बुक सेलर ड्रेस आदि के टेलीफोन नंबर भी प्रदर्शित करेंगे। स्कूल की ड्रेस भी 3 वर्ष से पहले नहीं बदली जाएगी, लेकिन स्कूल की ड्रेस और किताब समेत हर साल कोई न कोई टोटका परिवर्तन करके बच्चों से वसूली की जाती है।
दिल्ली सरकार ने अप्रैल के महीने में निजी स्कूलों को चेतावनी जरूर दी है, लेकिन सरकार और निजी स्कूल दोनों को पता है कि यह हर साल की सामान्य रवायत है और शायद ही इसका कोई अंजाम निकलता हो।इसका सबसे बुरा खामियाजा भुगतना पड़ता है गरीब तबके को जिसे एनसीईआरटी की कहीं बेहतर किताबों के बदले 10 गुनी कीमत घटिया किताबों के लिए देनी पड़ती है।
अब तो नई शिक्षा नीति भी आए 3 वर्ष हो गए। उसमें भी बार-बार यह कहा गया है कि बच्चों पर किताबों के बोझ को कम किया जाएगा और प्राथमिक शिक्षा अपनी भाषा-बोली में दी जाएगी, तो हरियाणा और दिल्ली समेत देश के प्राइमरी स्कूलों के बस्ते में यह अंग्रेजी का कचरा क्यों भरा जा रहा है? यह अंग्रेजी संस्कृति कौन से महान विश्व गुरु पैदा करेगी?
निजी स्कूलों की ऐसी मनमानी क्या सत्ता के समर्थन के बिना चल सकती है? दिल्ली का ही उदाहरण है तो लगभग 4000 स्कूलों में से 2000 निजी हाथों में हैं और वर्षों से खुलेआम ऐसी मनमानी हो रही है। जो अभिभावक अपने धोबी, सब्जी वाले और अपने घरेलू काम करने वाले के साथ रोज मोलभाव करता है, इन स्कूलों के आसपास उसका डरा हुआ चेहरा एक अलग कहानी कहता है।
सबसे बड़ा अनर्थ यह शुरू हुआ है कि निजी स्कूलों का यह धंधा अब देश के गांव-गांव में भी पहुंच गया है। उत्तर प्रदेश के गांव के स्कूल में सारी सुविधाएं होते हुए भी इन स्कूलों की मार्केटिंग और प्रचार तंत्र इतना मजबूत है कि किसान अपना आधा पेट काटकर छोटे-छोटे वाहनों में इतनी कम उम्र के बच्चों को इतनी दूर पढ़ने के नाम पर धकेल रहे हैं।लेकिन अफसोस उनकी आंखें तब खुलती हैं जब पांच-दस वर्षों के बाद बच्चों को न हिन्दी आती न अंग्रेजी।
यहां तक कि उनके बस्ते में जिस अंग्रेजी की किताबें भरी होती हैं उनकी समझ में न आने के कारण वे किताबों से सदा के लिए दूर हो जाते हैं।ये उनकी समझ में आएंगी भी कैसे क्योंकि उनके पढ़ाने वालों को ही अंग्रेजी नहीं आती और प्रसिद्ध शिक्षाविद कृष्ण कुमार जी की बातों का सहारा लिया जाए तो, “यदि शिक्षकों को अंग्रेजी आ रही हो, या आई होती तो वह पहले ही कहीं शहर में नौकरी पा जाते!”
दोष सरकार और धंधेबाज स्कूलों का है उससे कम मां-बाप का भी नहीं है। गांव के गरीब किसानों को तो माफी दी जा सकती है, लेकिन शहर में बैठे पेंशन पा रहे सरकारी कर्मचारी अमीरों का क्या किया जाए जो हर पल संविधान में बराबरी और न्याय की दुहाई देते हैं, लेकिन ऐसे किसी अन्याय के खिलाफ कभी आवाज नहीं निकालते? उनको जबरन विदेशी भाषाएं थोपी जाएं तब भी आवाज नहीं निकलती, उनसे 10 गुना पैसे किताबों के नाम पर ले लिए जाएं तब भी चुप रहते हैं।
समस्याएं किस समाज में नहीं होतीं, लेकिन जब समाज ऐसी कायरता में जीने लगता है वहां ऐसे ही धंधे फलते-फूलते रहेंगे। नतीजा दुनिया की सबसे युवा आबादी के पास न कोई स्किल है, न रोजाना की जिंदगी का कोई और हुनर। और उन्हें जाति-धर्म के चक्रव्यूह में झोंका जा रहा है। उससे ज्यादा अफसोसजनक है कि हर रंग की हर सरकार इस धंधे में लिप्त है। मुक्तिबोध की अंधेरे में कविता को याद करते हुए रात के जुलूस में डोमा जी उस्ताद राजनीतिज्ञ बुद्धिजीवी सभी एक बैंड में शामिल हैं। और इस बैंड का नाम है- शिक्षा का धंधा।
शिक्षा समवर्ती सूची में है और इस अधिकार के नाते इसी सत्र से केंद्र सरकार इस धंधे पर लगाम लगा सकती है। मौजूदा केंद्रीय सरकार ने कई मोर्चों पर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय भी दिया है। उसके लिए यह कोई कठिन काम नहीं है!
प्रेमपाल_शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव भारत सरकार, दिल्ली।
संपर्क : 99713 99046