‘लोक’ की भाषा की भागीदारी के बिना क्या ‘लोकतंत्र’ संभव है?
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस-21 फरवरी पर विशेष!
देश का एक ऐसा अमीर वर्ग अपने स्वार्थ के लिए लगातार अंग्रेजी को कायम रखने में लगा हुआ है और नासमझ राजनेता भी वोट बैंक के दबाव में चुप्पी साधे हुए हैं। जिस सहजता से हम अपनी भाषा में सोचते हैं, रचनात्मकता सामने आती है, वह पराई भाषा में नहीं हो सकता!
यूनेस्को द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर मुद्दतों के बाद देश में इस बारे में अच्छी खबरें सुनाई दे रही हैं। सबसे अच्छी खबर यही कि पूरे देश के प्रशासन के लिए अधिकारियों का चुनाव करने वाली यूपीएससी में इस बार अपेक्षाकृत ज्यादा युवाओं ने साक्षात्कार आदि में मातृभाषा यानि हिंदी को चुना है। यहां प्रश्न हार या जीत का नहीं है, लेकिन एक स्वतंत्र राष्ट्र का प्रशासन उस स्वतंत्र राष्ट्र की भारतीय भाषाओं में चलाना उस आजादी को बचाने और बेहतर करने के लिए भी आवश्यक है।
ऐसे कई मोर्चों पर कुछ कदम आगे बढ़े हैं। जैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए छह भारतीय भाषाएं और अलग-अलग राज्यों के कई कॉलेज सामने आए हैं। मेडिकल की पढ़ाई भी आरंभ की जा रही है और अपनी भाषाओं में पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने का काम चल रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए प्रवेश परीक्षा भी 13 भाषाओं में आरंभ हो चुकी है, और वैसे ही मेडिकल की नीट परीक्षा भी।
सुप्रीम कोर्ट के लगभग 1000 महत्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुके हैं और नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक शिक्षा, और संभव हो तो स्कूली शिक्षा भी, मातृभाषा में आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन यह संभव तभी होगा जब पूरा समाज अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने और प्रशासन करने के महत्व को समझे। वैसे भी क्या लोक की भाषा की भागीदारी के बिना लोकतंत्र संभव है?
दुनियाभर के जीवों के बीच मनुष्य ही वह प्राणी है जिसके पास अपनी भाषा होती है। लाखों वर्षों में सैकड़ों देशों और उनके समाजों में हजारों भाषाओं के विविध रूप हैं। हर भाषा के एक-एक शब्द को बनने संवरने में हजारों साल लगते हैं और तभी वह उस राष्ट्र की चेतना का हिस्सा बनता है। इसे बाहरी दबावों से समाप्त नहीं किया जा सकता और अगर ऐसा कोई प्रयास होता है तो राष्ट्र और समाज बिखर जाते हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश का उदाहरण सामने है। पाकिस्तान ने बांग्लादेश पर उर्दू थोपने की कोशिश की और अंजाम सामने है।
आजादी के तुरंत बाद 1952 में बांग्लादेश के ढ़ाका विश्वविद्यालय में पराई भाषा थोपने के खिलाफ विद्रोह हुआ। सैकड़ों नौजवान शहीद हुए, लेकिन यह जंग जारी रही। 1971 में भाषा के मुद्दे पर ही बांग्लादेश का जन्म हुआ। अंततः वर्ष 1999 में यूनेस्को द्वारा दुनिया भर में अपनी-अपनी भाषाओं के प्रति लगाव पैदा करने और उनके महत्व को बताने के लिए मातृभाषा दिवस शुरू किया गया।
राष्ट्रों के विकास इस बात की गवाही देते हैं कि जहां अपनी भाषा में पढ़ाई, प्रशासन, रोजगार या रोजाना के कामकाज होते हैं, वे समाज बहुत तेजी से आगे बढ़ते गए। विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत सभी आसानी से ऊंचाईयों तक पहुंचे। लेकिन जिन समाजों या देशों को दूसरे देशों ने गुलाम बनाया, और अपनी भाषा थोपी, वे सदा के लिए पीछे रह गए। भारत समेत तीसरी दुनिया के सभी देश इस गुलामी के शिकार हैं जहां अंग्रेजी का वर्चस्व अभी भी बना हुआ है। भारत में हर साल सैकड़ों बच्चे अंग्रेजी के दबाव में आत्महत्या करते हैं। उनका बचपन रचनात्मकता लगातार गायब होती जा रही है। शिक्षा में आज जितनी बुराई है उसका 90% अंग्रेजी लादने की वजह से है। क्या जबरन विदेशी भाषा में पढ़ाना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है?
महात्मा गांधी, प्रेमचंद, रविंद्र नाथ टैगोर ने आजादी के संघर्ष के दिनों में ही इस बात का अहसास कर लिया था कि अंग्रेजी आजाद भारत की भाषा नहीं हो सकती। वह ऐसी हिंदुस्तानी होगी जिसमें हिंदी उर्दू अंग्रेजी फारसी मराठी राजस्थानी सबके शब्द होंगे। भाषा बहता नीर की तर्ज पर। महात्मा गांधी तो अपनी भाषा के इतने प्रबल पक्षधर थे कि पूरी पाश्चात्य संस्कृति को भी नकारने में उन्हें कोई गुरेज नहीं था। उन्होंने बार-बार कहा है कि मेरी पढ़ाई के लगभग 10 वर्ष अंग्रेजी को सीखने में चले गए और ऐसा ही देश की सारी पीढ़ियों के साथ हो रहा है।
नई शिक्षा नीति में इस बात को रेखांकित तो अवश्य किया गया है लेकिन इतनी निष्ठा और ईमानदारी के साथ उस पर अमल करना अभी भी बाकी है। देश के उच्च शिक्षा संस्थान विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालय जेएनयू, दिल्ली, अंबेडकर, जामिया मिलिया आदि भारतीय भाषाओं के सबसे बड़े विरोधी साबित हो रहे हैं। देश का एक ऐसा अमीर वर्ग अपने स्वार्थ के लिए लगातार अंग्रेजी को कायम रखने में लगा हुआ है और नासमझ राजनेता भी वोट बैंक के दबाव में चुप्पी साधे हुए हैं। जिस सहजता से हम अपनी भाषा में सोचते हैं, रचनात्मकता सामने आती है, वह पराई भाषा में नहीं हो सकता।
अंतर्राष्ट्रीय भाषा दिवस पर हमें दुनिया भर के अनुभवों से यही सीखने-सिखाने की आवश्यकता है। आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के लिए अपनी भाषा-बोलियों में एक आत्मविश्वास से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। गांधी जी के शब्दों को ही उधार लें, तो अंग्रेजी या कोई भाषा एक खिड़की की तरह हो सकती है, मुख्य दरवाजा नहीं। आईए, हम सब मिलकर बिना दूसरों की भाषा से नफरत किए अपनी भाषाओं का सम्मान करें और शिक्षा तथा रोजाना के कामों के लिए इसे अपनाएं। अंतर्राष्ट्रीय भाषा का उद्देश्य भी भाषा के माध्यम से लोगों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।
यूपीएससी में अंग्रेजी का नशा उतार पर!
फिलहाल केंद्रीय लोक सेवा आयोग (#UPSC) में सिविल सर्विसेज परीक्षा के साक्षात्कार चल रहे हैं। अगर #DAF (Detailed Application Form submitted to UPSC) पर यकीन किया जाए – बहुत विश्वस्त सूत्रों के हवाले से – तो अपनी भाषा यानि हिंदी में साक्षात्कार देने वालों की संख्या में 10 साल के बाद बहुत संतोषजनक वृद्धि हुई है। 2011 में C-SAT के चरण में ही तत्कालीन सरकार द्वारा अंग्रेजी लादने से भारतीय भाषाओं पर कहर ढ़ा दिया था, जिसे 2014 में बड़ी कठिनाई से हटाया गया। लेकिन तब तक बहुत बड़ा नुकसान हो चुका था। अब अपनी भाषाओं की तरफ- मातृभाषा में आत्मविश्वास लौट रहा है। अब आवश्यकता स्कूल/कॉलेज के स्तर पर प्रोत्साहित करने की है।
कुछ और निष्कर्ष: हिंदी माध्यम में साक्षात्कार चुनने वाले सबसे ज्यादा राजस्थान महाराष्ट्र, गुजरात के बच्चे हैं। हिंदी के नाम पर राष्ट्रीय राजनीति करने वाले और फिजी, सूरीनाम, मारीशस आदि देशों में विश्व हिंदी दिवस मनाने/दावत उड़ाने वाले गंगा घाटी यानि बिहार, दिल्ली, यूपी के सबसे कम! उसका कारण दिल्ली, यूपी, बिहार में भारतीय भाषाएं 11वीं 12वीं में बिल्कुल गायब हो चुकी हैं। विशेषकर विज्ञान के अमीर पब्लिक स्कूल के विद्यार्थियों के बीच। इन राज्यों के नए-नए धनाढ्य जोर-जोर से और बेशर्मी से अंग्रेजी के पक्ष में हो चुके हैं।
हिंदी क्षेत्र में राजस्थान प्रथम – और उनकी सरकार महात्मा गांधी को अंगूठा दिखाते हुए उनके नाम पर महात्मा गांधी इंग्लिश मीडियम स्कूल जनता पर लाद रही है! इसलिए दोस्तों केवल अंग्रेजी की किताबें ही नहीं पढ़िए, हिंदी/भारतीय भाषाओं की भी पढ़िए! यूपीएससी हौआ नहीं है! अंग्रेजी को जमाने में 70 साल लगे हैं तो उसे उखाड़ने में थोड़ा समय तो लगेगा! और उम्मीद पर दुनिया कायम है!
मातृभाषा दिवस जिंदाबाद ! जिंदाबाद !!
#प्रेमपाल_शर्मा, दिल्ली, संपर्क: 99713 99046