शिक्षा और शोध की नई उड़ान
शोध की गुणवत्ता के लिए यूजीसी को सबसे पहले शिक्षकों की भर्ती के प्रश्न को सुलझाना होगा जिससे राजनीतिक दखलंदाजी की कोई गुंजाइश ही न बचे और केवल प्रतिभा के बूते लोग शिक्षा की दुनिया में आएं!
भ्रष्टाचार, जातिवाद, वंशवाद, क्षेत्रवाद के सांप तो पहले से ही बहुत मौजूद हैं, इसी का नतीजा है कि बड़े-बड़े दावों के बावजूद हमारा एक बड़ा युवा वर्ग विदेश में जाना चाहता है!
ग्लोबल ज्ञान के विस्तार ने उनको पंख लगा दिए हैं, इसलिए उनके उड़ने पर रोक लगाने के बजाय हमें अपने देश में ही ऐसी स्थितियां पैदा करनी होंगी, जिससे इस देश की यह प्रतिभा पहले अपने देश के काम आए!
शिक्षा और शोध में बदलाव की आकांक्षा से प्रेरित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने हाल ही में पीएचडी उर्फ शोध के 2009 के नियमों में कुछ बदलाव किए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात उसमें स्नातकोत्तर डिग्री की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। विकल्प में नई शिक्षा नीति-2020 की उन बातों को दोहराया गया है जिसमें 4 वर्षीय पाठ्यक्रम को पूरा करने के बाद आप सीधे पीएचडी कर सकते हैं। न एमफिल की अनिवार्यता है, न स्नातकोत्तर डिग्री की। ग्रेजुएट डिग्री के चौथे वर्ष में आपको शोध के विषय में कुछ अनिवार्यता अवश्य पूरी करनी होंगी।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में यह सीख विदेशी विश्वविद्यालयों से मिली है, जहां दुनिया भर के ज्यादातर देशों में स्नातकोत्तर डिग्री महत्वपूर्ण नहीं है। आपका विषय, आपकी परिकल्पना, आपका काम ज्यादा महत्वपूर्ण है। यहां तक की पीएचडी की औपचारिक डिग्री भी नहीं। हमारे देश में ही कई महत्वपूर्ण प्रोफेसर आदि ने ग्रेजुएशन के बाद ही पीएचडी की है। समीर कुमार, जो डीआरडीओ के चेयरमैन हैं, ने आईआईटी खड़कपुर से बीटेक करने के बाद सीधे ओहिओ यूनिवर्सिटी से तीन वर्ष में पीएचडी की। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से पुरस्कृत अमित कुमार दिल्ली आईआईटी के प्रोफेसर हैं, और शुभम सहाय कानपुर आईआईटी में। ये सभी बिना स्नातकोत्तर के पीएचडी है और दुनिया भर में इनका काम जाना जाता है।
इस बदलाव की आवश्यकता इसलिए भी महसूस की जा रही थी कि लगभग 1000 विश्वविद्यालयों के बावजूद चीन यूरोप अमेरिका के मुकाबले हमारे शोध पत्रों की गुणवत्ता और संख्या सबसे कम है। नियम इतने सख्त हैं कि आप बिना बूढ़े हुए अच्छे शोधकर्ता नहीं माने जाते। नोबेल पुरस्कारों की शुरुआत वर्ष 1901 में हुई थी और 100 वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश नोबेल पुरस्कार उन शोधों पर मिले जो 31 से 40 वर्ष के लोगों ने की। इनमें से कुछ ने तो विद्यार्थी जीवन में ही करिश्मा कर दिखाया। हेलिक्स मॉडल पर नोबेल पुरस्कार पाने वाले जेम्स वाटसन मात्र 24 वर्ष के थे जब उन्होंने क्रिक के साथ डीएनए मॉडल खोजा था। विकासवाद पर नई बात करने वाले स्टैनले मिलर सिर्फ 23 वर्ष के थे। 1922 के नोबल पुरस्कार विजेता हाइजनबर्ग भी इसी उम्र में क्वांटम मैकेनिक्स के लिए प्रसिद्ध हो गए थे।
निष्कर्ष यह कि हमें भी विश्वविद्यालयों में उन नौजवानों को नियमों में लचीलापन देकर प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। समय सीमा, एक विश्वविद्यालय के शोध को दूसरे विश्वविद्यालय में स्थानांतरित करने, ऑन लाइन वाइवा आदि के नियमों में भी ढ़ील दी गई है।
कागजों पर सिद्धांत रूप में तो यह सब कुछ ठीक लगता है लेकिन क्या यह हमारे देश की जमीन पर सफल हो पाएगा? विशेषकर उस देश में जहां कंप्यूटर अभी भी शादी विवाह के लिए भविष्य नाड़ी जन्मपत्री में ज्यादा प्रयोग होता है, बजाय सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए! जहां विश्वविद्यालय के परिसर में विद्यार्थियों के केवल नामांकन हैं, और क्लास नहीं होती। क्या केवल स्नातकोत्तर खत्म करने से समस्या सुलझ जाएगी?
दुनिया भर के अध्ययन बताते हैं कि भारतीय शोध 90% कॉपी पेस्ट और पुनरावृत्ति होती है। ऐसे भी मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं कि जहां पैसे के बूते पीएचडी की डिग्री लिखाई जाती है और किसी यूनिवर्सिटी या कॉलेज में नियुक्ति के लिए रातों-रात जमा कर दी जाती है।
पिछले दिनों यह सुधार किया गया कि पत्रिकाओं में लेख छपने चाहिए और ऐसी पत्रिकाओं को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अप्रूव किया, लेकिन उनकी गुणवत्ता पर रोना आता है। उन पर कोई नियंत्रण नहीं। ज्यादातर मामलों में कंप्यूटर पर ही यह पत्रिकाएं निकल रही हैं और लेख भी पैसे लेकर छापे जा रहे हैं। उद्देश्य तो यह था कि ऐसी पत्रिकाएं जिनका सरकुलेशन हो और उस ज्ञान को दूसरों के बीच में बांटा जाए लेकिन इसके बजाय वह सिर्फ नौकरी पाने की सीढ़ी बन गई है। क्या इसके लिए कोई सख्त दंड की व्यवस्था है?
पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के एक जाने-माने वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध वाइस चांसलर को मस्टर्ड सीड जेनेटिकली मॉडिफाइड रिसर्च के लिए नकल करने का अपराधी पाया गया था। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने जब यह बात उठाई तो उल्टा उनको प्रताड़ित किया गया। सस्पेंड किया गया और यह मामला अभी भी कोर्ट में है। उनके रिटायरमेंट के सारे भुगतान रोक दिए गए हैं और वह भी बिना किसी चार्जशीट के। मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में पहुंचा था और उन्होंने आरोपों को सही पाया और उन वाइस चांसलर को जेल की सजा हुई। लेकिन कितने लोग ऐसी नकल करते हुए पकड़े जाते हैं और कितने उनके खिलाफ कोर्ट जाते हैं? पिछले दिनों वैश्विक स्तर पर भी ऐसी नकल पकड़ी गई हैं और भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर उंगली उठी है।
उतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न विज्ञान आदि में शोध के लिए आवश्यक प्रयोगशाला और संसाधनों का है। पिछले कुछ वर्षों में स्कूली शिक्षा में भी प्रयोगशाला और पुस्तकालय जैसी चीजें खत्म हो गई हैं। यही हाल बड़े से बड़े विश्वविद्यालयों में सामाजिक विज्ञान में शोध के स्तर का है जो ज्यादातर राजनीति के केंद्र बन चुके हैं। भ्रष्टाचार, जातिवाद, वंशवाद, क्षेत्रवाद के सांप तो पहले से ही इतने मौजूद हैं। इसी का नतीजा है कि बड़े-बड़े दावे करने के बावजूद हमारा एक बड़ा युवा वर्ग विदेश में पढ़ने जाना चाहता है। ग्लोबल ज्ञान के विस्तार ने उनको पंख लगा दिए हैं, इसलिए उनके उड़ने पर रोक लगाने के बजाय हमें अपने देश में ही ऐसी स्थितियां पैदा करनी होंगी, जिससे इस देश की यह प्रतिभा पहले अपने देश के काम आए।
हाल ही में इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने इस बात पर गहरी चिंता प्रकट की कि “हम अपने युवाओं को वह माहौल नहीं दे पा रहे, जिससे वे मौलिक शोध की तरफ प्रेरित हों। ज्यादातर विश्वविद्यालय और स्कूली शिक्षा एक परीक्षा केंद्र में बदल चुकी है। शिक्षा में बड़े बदलाव के बिना देश में बदलाव संभव नहीं होगा।”
कुछ निजी विश्वविद्यालय अपने स्तर पर कोशिश कर रहे हैं लेकिन उससे 1000 गुना ज्यादा केवल शिक्षा के धंधे में मुनाफे के लिए आए हैं, उनके पास न फैकल्टी है, न क्लासरूम। ऐसे में दुनिया की सबसे युवा पीढ़ी क्या सीखेगी? क्या उम्मीद है कि इनका ग्रेजुएट अमेरिका और हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों के स्तर का ज्ञान हासिल कर पाएगा?
ये सब बड़े प्रश्न हैं जिनको केवल नारों से हल नहीं किया जा सकता। ढ़ोल की पोल रोज खुल रही है। आए दिन वाइस चांसलर और बड़े पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार और शैक्षिक अनैतिक ताऊ की वजह से बर्खास्त हो रहे हैं। बावजूद इसके उनकी नियुक्तियां उसी रफ्तार से हो रही हैं। सरकार का नियंत्रण कई संस्थाओं पर भ्रष्टाचार खत्म करने की तरफ बढ़ रहा है, लेकिन अभी विश्वविद्यालय पता नहीं क्यों उससे मुक्त हैं?
आंकड़े बताते हैं कि आजादी से पहले हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा और शोध की गुणवत्ता कहीं बेहतर थी और इसीलिए सी वी रमन, जगदीश चंद्र बोस, मेघनाद साहा, डॉक्टर सेठना जैसे वैज्ञानिक सामने आए। आजादी के बाद कुछ वैज्ञानिकों ने अच्छे काम किए लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों में जाकर ही। आप इस गिरावट को नकार नहीं सकते।
वर्ष 2009 में वेंकट रामकृष्णन को रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था। बड़ौदा विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट इस वैज्ञानिक ने कहा था कि “जहां विदेशी विश्वविद्यालय न आपके देश की नागरिकता को जानना चाहते हैं, न वहां के विश्वविद्यालय को, न आपकी जाति को और न धर्म को। वे चाहते हैं कि आखिर शोध की आप की परिकल्पना क्या है और इसीलिए दुनिया भर की प्रतिभाओं को अमेरिका यूरोप अपनी तरफ खींच रहे हैं।”
नई शिक्षा नीति में इन सभी पहलुओं को छुआ तो गया है लेकिन बावजूद ढ़ाई वर्ष के अभी तो दिल्ली बहुत दूर जान पड़ती है। पिछले कुछ वर्षों से विश्व विद्यालयों में नियुक्ति के प्रश्न पूरी हवा को विषेला बनाए हुए हैं। विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, जहां हर भर्ती में पहले की ही तरह राजनीति हावी है। नई शिक्षा नीति के विमर्श के दौरान एक ऐसा शिक्षा बोर्ड बनाने की सिफारिश पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम ने की थी जिससे राजनीतिक दखलअंदाजी रोकी जा सके। लेकिन उसके लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है और यही कारण है आईआईटी में लगभग 50% स्थाई पद खाली पड़े हैं, और हमारे मुख्य प्रबंधन संस्थानों में लगभग 40%।
विश्वविद्यालयों में भी पद खाली है, लेकिन जब तक ऐसी पारदर्शी व्यवस्था नहीं की जाती कि जहां मेधावी युवा शिक्षा के क्षेत्र में आगे आएं, तब तक अंधेरा कम नहीं होगा। उत्तर भारत के विश्वविद्यालय सबसे बदतर हालत में हैं विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार के। बिहार में तो ज्यादातर विश्वविद्यालयों में केवल नामांकन है। इसकी पोल तब खुली जब हाल में ललन कुमार नाम के एक अध्यापक ने अपना वेतन वापस किया। भले ही वह सब कुछ ड्रामा था, लेकिन शिक्षा के नर्क का तो पर्दाफाश हुआ है। यही कारण है कि ज्यादातर बिहार के बच्चे दिल्ली आकर पढ़ने को मजबूर हैं। ऐसे नौजवान कौन से नैतिक भारत का निर्माण करेंगे?
शोध की गुणवत्ता इन सबसे प्रभावित होगी इसलिए यूजीसी को सबसे पहले शिक्षकों की भर्ती के प्रश्न को सुलझाना होगा जिससे राजनीतिक दखलंदाजी की कोई गुंजाइश ही नहीं बचे और केवल प्रतिभा के बूते लोग शिक्षा की दुनिया में आएं। आखिर भविष्य की पीढ़ियों का निर्माण ऐसे ही शिक्षक करेंगे। जिन देशों की तरफ हमारे नौजवान पढ़ने के लिए दौड़ रहे हैं उनकी सबसे बड़ी खासियत दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों का चुनाव है। लेकिन हमारे देश में कभी पीएचडी अनिवार्य होती है, कभी नेट अनिवार्य होता है, कभी दोनों गायब हो जाते हैं।
सवाल पूरे समाज की नैतिकता का भी है और यह केवल कानून बनाने-बदलने या संविधान की दुहाई से काम नहीं चलता। उसे सभी के हित में हम कितना सख्ती से लागू कर पाते हैं, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। वरना किसी को यह कहने में देर नहीं लगेगी कि ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता गया!
#प्रेमपाल शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और शिक्षाविद। कलाविहार, मयूरविहार, दिल्ली-91. मोबाइल: 99713 99046.