वर्चस्व कायम रखने की लड़ाई

डीजी/आरपीएफ के पद पर अपना कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं आईपीएस

सुरेश त्रिपाठी

इंडियन पुलिस सर्विस (आईपीएस) कैडर के अधिकारी किसी भी तरह से तमाम केंद्रीय सशस्त्र सुरक्षा बलों सहित डीजी/आरपीएफ के पद पर भी अपना कब्जा छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके द्वारा लगभग हर स्तर पर की जा रही ऐसी कोशिशों से तो कम से कम यही संदेश मिल रहा है. अब जब रेलवे बोर्ड ने पीएमओ की पूर्व अनुमति लेकर आरपीएफ कैडर 1981 बैच के वरिष्ठ अधिकारी पी. एस. रावल को डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंप दिया है, तब इस मामले में आईपीएस लॉबी की गतिविधियां काफी तेज हो गई हैं. इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीय गृह मंत्रालय से वर्ष 2011 में कभी चुपके से दाखिल करवाई गई स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) सुनवाई के लिए अचानक उभरकर सतह पर आ गई है. इस एसएलपी पर मंगलवार, 29 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. यह एसएलपी वास्तव में बीएसएफ, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ आईटीबीपी इत्यादि केंद्रीय सशस्त्र सुरक्षा बल (पैरा मिलिट्री फोर्सेज) प्रमुख पार्टी हैं, जो कि अपने यहां आईपीएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति का विरोध कर रहे हैं. 29 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में उक्त केंद्रीय सशस्त्र सुरक्षा बलों के जवान बड़ी संख्या में उपस्थित थे.

इस मामले में आईपीएस एसोसिएशन ने भी ‘पार्टी’ बनने की अनुमति सुप्रीम कोर्ट से मांगी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पार्टी बनने की अनुमति तो प्रदान नहीं की, तथापि उन्हें अपने वकील के जरिए मामले में होने वाली बहस में भाग लेने की अनुमति अवश्य प्रदान कर दी है. जानकारों का मानना है कि इस मामले से आरपीएफ का वैसे तो कोई सीधा संबंध नहीं है, मगर सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट के सामने जबरदस्ती यह कह दिया कि आरपीएफ को भी इस मामले में शामिल किया जाए, जिसकी अनुमति कोर्ट ने प्रदान कर दी है. इस सुनवाई के मौके पर आरपीएफ के भी कई वरिष्ठ अधिकारी सुप्रीम कोर्ट में उपस्थित थे. उल्लेखनीय है कि आरपीएफ संगठित सर्विस के हरानंद बनाम भारत सरकार मामले में आरपीएफ सर्विस को भी एक संगठित सर्विस घोषित किए जाने का मामला अदालत तक पहुंचा था, जिसमें अदालत ने आरपीएफ सर्विस को भी एक संगठित सर्विस घोषित करने का निर्णय दिया था और संबंधित मंत्रालय (रेलवे) को इस संबंध में उचित कदम उठाने का निर्देश भी दिया था. इसी प्रकार वर्ष 2011 में पी. एस. रावल बनाम भारत सरकार मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पी. एस. रावल के पक्ष में आया था.

आरपीएफ को संगठित सर्विस घोषित किए जाने और पी. एस. रावल के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद उपरोक्त एसएलपी गृह मंत्रालय से दायर करवाई गई थी. जाहिर है कि यह कार्य आईपीएस एसोसिएशन अथवा आईपीएस लॉबी के दबाव में या उसके कहने पर ही किया गया होगा, क्योंकि इस मामले से गृह मंत्रालय का कोई सीधा संबंध नहीं था. वर्ष 2011 से अब तक यह मामला (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट में सोया पड़ा हुआ था. अब जब पी. एस. रावल को पीएमओ की पूर्व अनुमति से रेल मंत्रालय ने डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंप दिया है, तब उक्त एसएलपी भी अचानक उभर कर सतह पर आ गई है. हालांकि इस मामले में पी. एस. रावल को ही सुप्रीम कोर्ट में अपनी पैरवी करनी पड़ेगी.

चूंकि आईपीएस एसोसिएशन को भी अपने वकील के जरिए इस मामले में बहस में भाग लेने की अनुमति मिल गई है, तो वह पार्टी न होते हुए भी अब एक पार्टी की ही तरह इस मामले में कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखेगी. सामान्यतः ऐसा नहीं होता, यहां भी यदि कोई कमजोर पक्ष होता, तो सुप्रीम कोर्ट उसे पार्टी न होते हुए अपना पक्ष रखने की अनुमति कदापि नहीं देता. मगर चूंकि राजनीतिज्ञ, मंत्रीगण, यहां तक कि खुद सरकार भी क्यों न हो, जब ये सभी आईपीएस से डरते हैं, तो न्यायपालिका और उसके कर्ताधर्ता भी इसके अपवाद नहीं हैं. जाहिर है कि इन व्यवस्थाओं में कार्यरत, अपवाद स्वरूप कुछ को छोड़कर, ज्यादातर लोग गलत हैं, या गलत लोगों का साथ देते हैं, जिससे आईपीएस की मदद की इन्हें हमेशा दरकार रहती है, यही वजह है कि राजनेता, मंत्री, सरकार और न्यायलय आदि अमूमन आईपीएस के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

वर्ष 1985 के संशोधित आरपीएफ एक्ट की धारा 19(2) में स्पष्ट प्रावधान किया गया था कि आरपीएफ में अब किसी प्रकार से आईपीएस की प्रतिनियुक्ति नहीं होगी. इसके साथ ही इसमें यह भी प्रावधान किया गया था कि उक्त संशोधन लागू होने के समय आरपीएफ में जो आईपीएस प्रतिनियुक्ति पर होंगे, उन्हें या तो फौरन उनके पैरेंट कैडर में वापस भेज दिया जाएगा, अथवा उन्हें जबरन सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा. परंतु आरपीएफ में प्रतिनियुक्ति पर रहे तत्कालीन आईपीएस अधिकारियों ने सरकार की आंखों में धूल झोंककर न सिर्फ यह प्रावधान, बल्कि इसके साथ ही मान्यताप्राप्त आरपीएफ एसोसिएशन के बने रहने के प्रावधान को भी रेल मंत्रालय के नोटिफिकेशन से निकाल कर बाहर फेंक दिया, वह भी कानून मंत्रालय के गजट नोटिफिकेशन के बाद, जिसमें संसद द्वारा पारित संपूर्ण कानून को प्रकाशित किया गया था. यह खामी वर्ष 1998 में पुनर्स्थापित होने के बाद आरपीएफ एसोसिएशन ने पकड़ी और सरकार के संज्ञान में इसकी लिखित जानकारी दी. तब वर्ष 2006 में कानून मंत्रालय ने पुनः उक्त दोनों प्रावधानों को शामिल करते हुए ‘शुद्धि पत्र’ के रूप में एक और गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित किया और रेल मंत्रालय को भी आदेश दिया था कि वह भी संपूर्ण गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित करे.

मगर आज 10 साल बाद भी रेल मंत्रालय ने यह संशोधित गजट नोटिफिकेशन नहीं निकाला है और लगभग 31 साल से संसद द्वारा पारित कानून को ठेंगा दिखाकर पूरी व्यवस्था और पूरे देश को मूर्ख बनाया जा रहा है. इसका मतलब वही है, जो ऊपर कहा गया है, कि सरकार, मंत्री, संत्री सहित जुडिसियरी इत्यादि भी सब आईपीएस से डरते हैं. यही वजह है कि रेलवे बोर्ड की नौकरशाही भी दुम दबाकर पिछले 21+10 (31) साल से बैठी है. यदि अब तक रेल मंत्रालय में हुए निजाम और रेलवे बोर्ड के नौकरशाह चोर नहीं होते, तो उन्हें आईपीएस से डरने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी. यह हम नहीं, बल्कि तमाम वह लोग कह रहे हैं, जो इन सब मामलों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं. इन जानकारों का कहना है कि आईपीएस के दबाव में सरकार और जुडिसियरी भी रहती है, मगर उनका यह भी कहना है कि यदि खुलकर सभी कानूनी पहलू व्यवस्था और अदालत के समक्ष रखे जाएंगे, तो उन तथ्यों को नजरअंदाज करना अथवा अन्याय कर पाना बहुत मुश्किल होगा. उनका यह भी कहना है कि तमाम केंद्रीय फोर्सेज के लोग आईपीएस की अपने यहां प्रतिनियुक्ति के विरुद्ध हैं. यह बात जुडिसियरी और सरकार के लोग भी बखूबी जानते है.

इस बीच रेल मंत्रालय ने रेलमंत्री की सहमति से गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखकर उपरोक्त एसएलपी वापस लेने की बात कही है. इसके साथ ही पीएमओ ने भी रेल मंत्रालय को लिखा है कि नोडल मिनिस्ट्री होने के नाते रेल मंत्रालय आरपीएफ के कैडर को ठीक करे और उसे संगठित सर्विस का दर्जा देने का निर्णय करे. इसी आधार पर पीएमओ ने पी. एस. रावल को डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंपे जाने की अनुमति प्रदान की है. अब जब इस मामले में वास्तव में थोड़ा साहस दिखाते हुए रेल मंत्रालय ने पीएमओ के आदेश पर अमल करते हुए पी. एस. रावल को डीजी/आरपीएफ का अतिरिक्त चार्ज सौंप दिया है और उपरोक्त तमाम संदर्भों में अब तक काफी प्रगति हो चुकी है, तब अचानक उक्त एसएलपी सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पटल पर उभर आती है, यह एक संयोग मात्र नहीं हो सकता है. जाहिर है कि यह काम आईपीएस लॉबी के प्रयासों अथवा दबाव में हुआ होगा, क्योंकि आईपीएस लॉबी अपना वर्चस्व किसी भी हालत में कम नहीं होने देना चाहती है.

जब आरपीएफ एसोसिएशन को 1985 के संशोधन में बने रहने देने का प्रावधान बरकरार रखा गया था, तब कुटिल तिकड़मों से आरपीएफ को ‘आर्म्ड फोर्स’ घोषित करा लिया गया, जिससे आरपीएफ कर्मियों को अपनी बात रखने का कोई मंच न मिल सके. हालांकि आरपीएफ किसी भी मायने में ‘आर्म्ड फोर्स’ नहीं कही जा सकती है. तमाम आरपीएफ कर्मी भी रेलकर्मी ही हैं, जैसा की रेलवे एक्ट में स्पष्ट कहा गया है. भारतीय लोकतंत्र की यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आईएएस/ आईपीएस के तो अपने संगठन हो सकते हैं, मगर सिपाहियों के नहीं हो सकते अथवा वे उनका कोई संगठन बनने देना नहीं चाहते हैं. ऐसे में आरपीएफ एसोसिएशन के राष्ट्रीय महामंत्री यू. एस. झा का यह कहना बहुत जायज लगता है कि यह देश बारह सौ साल तक गुलाम रहा है, जिससे यहां न सिर्फ गुलामी की मानसिकता आज तक बरकरार है, बल्कि राजशाही को बरकरार रखने वाले उसके वास्तविक वारिस (आईएएस/आईपीएस) भी नहीं चाहते हैं कि उनकी ‘राजसत्ता’ में कोई कमी आए या कोई उसे चुनौती दे. उनका यह भी कहना जायज है कि सरकार हो या राजनेता, किसी को न तो संविधान की सही समझ है, और न ही किसी ने तमाम संवैधानिक प्रावधानों को जानने की कभी कोई कोशिश की है. यही वजह है कि कुछ लोग मिलकर अपनी तिकड़म से सरकार और राजनेताओं को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को मूर्ख बना रहे हैं. उनका कहना है कि आरपीएफ एक्ट में कानूनी स्थिति बहुत स्पष्ट है. अब जब मामला सुप्रीम अदालत के सामने है, तो सारी वस्तुस्थिति अदालत के समक्ष रखी जाएगी और उन्हें इस देश की न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है कि तमाम कानूनी प्रावधान एवं वस्तुस्थिति देखने के बाद मामले में न्याय अवश्य होगा.

वर्चस्व की यह लड़ाई वास्तव में गलत दिशा में लड़ी जा रही है. सरकार, प्रशासन तंत्र और न्यायपालिका में से कोई भी इस बात की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है कि जिसे अपना नुकसान रोकने की वास्तविक जिम्मेदारी और अधिकार मिलना चाहिए, यह उसे नहीं है, जबकि जिसे अधिकार और जिम्मेदारी दोनों सौंपी गई है, वह अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर रहा है. ध्यान देने वाली बात यह है कि बिना उत्तरदायित्व के जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं होता है. जीआरपी को अधिकार और जिम्मेदारी दोनों दी गई है, मगर रेलवे में यात्रियों एवं माल के प्रति होने वाले अपराधों की रोकथाम और उससे होने वाले नुकसान की भरपाई का उत्तरदायित्व नहीं दिया गया है. जबकि आरपीएफ (रेलवे) को जिम्मेदारी के साथ नुकसान की भरपाई करनी पड़ती है, मगर उसके पास इस नुकसान को रोकने का अधिकार नहीं है. ऐसे में रेलवे में रोजाना चलने वाले करीब तीन करोड़ रेलयात्रियों और लगभग 10 हजार मालगाड़ियों की सुरक्षा भगवान भरोसे रहती है. यह बहुत बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जब देश में रजवाड़े नहीं रहे, उनकी रेल नहीं रही, देश के किसी राज्य की भी रेल नहीं है, तब संविधान की प्रोविंशियल लिस्ट में रेलवे के होने का कोई औचित्य नहीं है. संवैधानिक रूप से जब रेल केंद्र का विषय है, और जब नुकसान की भरपाई रेलवे कर रही है, तो नुकसान रोकने की सारी जिम्मेदारी भी केंद्र की ही है. यहां स्थिति यह है कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय होने का ढिंढोरा पीटने वाले लोगों को संवैधानिक स्थिति की भी कोई जानकारी नहीं है. वास्तव में राज्य अपने यहां अपराधों की संख्या कम रखने और अपनी पुलिस को पालने के लिए रेलवे को छोड़ना नहीं चाहते हैं. जबकि आईपीएस इसलिए रेलवे पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें अपने करीब 160 पद कम नहीं होने देना है. राष्ट्रहित में बहुत स्पष्ट और संवैधानिक प्रावधानों की सही परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में सही निर्णय लिया जाना समय की जरूरत है, वरना आने वाली पीढ़ियां वर्तमान पीढ़ी को कभी माफ नहीं करेंगी!!