पटना हाई कोर्ट ने आर. के. कुशवाहा मामले पर दिया ऐतिहासिक निर्णय
रेलवे बोर्ड को मानने होंगे सुप्रीम कोर्ट और डीओपीटी के सभी दिशा-निर्देश
रेलवे को करना होगा डीओपीटी के ओएम दि. 4.3.14 का अक्षरशः पालन
नए नियम लागू होने पर ग्रुप ‘ए’ की इंटर-से-सीनियरटी में होगी भारी उलटफेर
बदले नियम से 10-12 साल पीछे खिसक सकती है प्रमोटी अधिकारियों की वरीयता
एन.आर.परमार मामले में आदेश के खिलाफ इरपोफ की सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी
डीआईटीएस के आधार पर दी जानेवाली इंटर-से-सीनियरटी को कोर्ट ने माना त्रुटिपूर्ण
आईआरईएम को वैधानिक बताने वाले बोर्ड/इरपोफ के हलफनामों को कोर्ट ने किया खारिज
सुरेश त्रिपाठी
पटना हाई कोर्ट ने 12 मई 2017 को दिए गए अपने चिर-प्रतीक्षित ऐतिहासिक निर्णय में न सिर्फ कैट के निर्णय को वाजिब ठहराते हुए उसे मान्य किया, बल्कि चेयरमैन, रेलवे बोर्ड (सीआरबी) और इंडियन रेलवे प्रमोटी ऑफिसर्स फेडरेशन (इरपोफ) द्वारा आईआरईएम को ‘वैधानिक’ बताते हुए दिए गए हलफनामों को भी नामंजूर कर दिया. हाई कोर्ट के इस ऐतिहासिक निर्णय से एक बार फिर से यह भी सही साबित हो गया है कि ‘रेलवे समाचार’ ने अब तक पांच किस्तों में इससे संबंधित जो लेख प्रकाशित किए थे, वह सब न सिर्फ सही थे, बल्कि कुछ स्व-घोषित विद्वान पूर्व एवं वर्तमान पदाधिकारियों द्वारा अब तक प्रमोटी अधिकारियों को बुरी तरह से गुमराह किया जा रहा था.
हालांकि पटना हाई कोर्ट के उपरोक्त निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने का विकल्प रेलवे बोर्ड और इरपोफ दोनों के सामने खुला हुआ है, तथापि बहस के दौरान पटना हाई कोर्ट के समक्ष जो प्रमुख मुद्दे उभरकर सामने आए, वह इस प्रकार हैं.
1. बिजनेस ऑफ एलोकेशन रूल, 1961 से रेलवे को अलग क्यों रखा गया है?
2. सुप्रीम कोर्ट द्वारा अन्य विभागों पर दिया गया निर्णय रेलवे पर मान्य है, या नहीं?
3. आईआरईएम और आईआरईसी में से किसको ‘वैधानिक स्थिति’ की श्रेणी में रखा गया है?
4. डीओपीटी के ओएम द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को रेलवे अपनाने के लिए बाध्य है, या नहीं?
5. रेलवे के पास ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों की वरीयता सुनिश्चित करने संबंधी नियमों पर पूरा एकाधिकार है, या नहीं?
पटना हाई कोर्ट ने ऊपर बताए गए सभी मुद्दों पर मौजूद दस्तावेजों के गहन अध्ययन और विश्लेषण के बाद अपना स्पष्ट आदेश दिया है, जिसमें इरपोफ द्वारा दी गई दलील कि एन. आर. परमार मामला दूसरे विभाग से संबंधित है, इसलिए उस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश या इस पर डीओपीटी द्वारा जारी किया गया ओएम/नियम रेलवे में लागू नहीं किया जा सकता. इस तर्क पर हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘सुप्रीम कोर्ट का आदेश ‘लॉ ऑफ लैंड’ होता है, जो कि विषय विशेष पर सिद्धांत (प्रिंसिपल्स) सुनिश्चित करता है. उसको विभाग ‘ए’ या विभाग ‘बी’ से जोड़ने का कोई औचित्य नहीं है.’ अर्थात हाई कोर्ट का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय समान परिस्थिति में सभी विभागों पर एक समान लागू होता है.
दूसरा मुद्दा, डीओपीटी के दिशा-निर्देश भारत सरकार के दिशा-निर्देश होते हैं, जिनका पालन सभी केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों को समान रूप से करना होता है. रेलवे भी भारत सरकार का ही एक मंत्रालय है, इसलिए रेलवे को भी डीओपीटी के ओएम दि. 04.03.2014 के दिशा-निर्देशों का अक्षरशः पालन करना होगा. हाई कोर्ट ने कहा कि सिर्फ आईआरईसी को वैधानिक स्टेटस प्राप्त है, जबकि इंटर-से-सीनियरटी का नियम सिर्फ आईआरईएम में मौजूद है, जिसमें समय-समय पर सरकार की नीतियों के अनुसार बदलाव करना पड़ता है.
रेलवे में ग्रुप ‘ए’ के पदों पर चयन यूपीएससी द्वारा किया जाता है तथा आईआरईसी द्वारा रेलवे को ग्रुप ‘सी’ और ग्रुप ‘डी’ कर्मचारियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है. इसलिए अदालत की नजर में रेलवे को ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों पर कोई एकाधिकार प्राप्त नहीं है. जहां तक बिजनेस ऑफ एलोकेशन रूल, 1961 की बात है, तो यह नियम रेल मंत्रालय को अन्य केंद्रीय मंत्रालयों की तुलना में स्वायत्तता प्रदान करता है. परंतु सर्विस मैटर में यह रेलवे की स्वतंत्रता आईआरईसी द्वारा सीमित कर दी जाती है. अदालत का कहना है कि आईआरईसी और बिजनेस ऑफ एलोकेशन रूल, 1961 रेलवे को सिर्फ ग्रुप ‘सी’ और ग्रुप ‘डी’ के लिए स्वायत्तता देता है.
उदाहरण स्वरूप यूपीएससी और डीओपीटी के दस्तावेज बताते हैं कि 4200 और इससे अधिक की ग्रेड-पे ग्रुप ‘बी’ राजपत्रित अधिकारियों को अन्य मंत्रालयों में दी जाती है. जबकि रेलवे ग्रेड-पे 4200 और 4600 पर ग्रुप ‘सी’ कर्मचारियों की सीधी भर्ती करता है. इसलिए बिजनेस एलोकेशन रूल, 1961 और आईआरईसी के नियम ही रेलवे को यह अधिकार देते हैं कि वह अपने ग्रुप ‘सी’ कर्मचारियों को उच्च ग्रेड-पे का लाभ दे सके.
एन. आर. परमार मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश और डीओपीटी के ओएम दि. 04.03.2014 को अक्षरशः लागू करते ही रेलवे में मौजूद ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों के वरीयता क्रम में बड़े पैमाने पर कई महत्वपूर्ण बदलाव होंगे.
1. सर्वप्रथम कोटा के अनुपात में वार्षिक ग्रुप ‘ए’ के पदों की सीधी भर्ती और प्रमोटी अधिकारियों के बीच विभाजित की जाएगी. तत्पश्चात अतिरिक्त भर्ती को आगे के वर्षों में एडजस्ट किया जाएगा. अर्थात डीओपीटी के ओएम दि. 07.02.1986 और 03.07.1986 के अनुसार यदि प्रमोटी अधिकारियों के कोटे से अधिक पदोन्नति दी गई है, तो उस वर्ष में जितने सीधी भर्ती से ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों का चयन किया गया है, उस अनुपात में रखकर अतिरिक्त प्रमोटी अधिकारियों को आगे के वर्षों में एडजस्ट किया जाएगा.
2. रेलवे में सीधी भर्ती और प्रमोटी अधिकारियों के बीच 50-50 का तय अनुपात वर्ष 1997 से अपनाया गया है. परंतु रेलवे बोर्ड द्वारा वर्ष 2002 से यह अनुपात किसी अध्यादेश में बदल दिया गया. जिस पर कैट, पटना और हाई कोर्ट, पटना ने संज्ञान लेते हुए आपत्ति जताई है. अदालत ने कहा है कि रिक्रूटमेंट रूल, जिसमें रोटा-कोटा के अनुपात का प्रावधान होता है, को सिर्फ गजटेड नोटिफिकेशन के द्वारा ही बदला जा सकता है. इसलिए अदालत की नजर में रोटा-कोटा में बदलाव का निर्णय सरासर गलत और मनमाना है. अतः हाई कोर्ट, पटना के उपरोक्त निर्णय के बाद रेलवे को वर्ष 1997 से 50-50 के अनुपात में पदों को भरने की कसरत करनी पड़ेगी.
3. डीओपीटी के दि. 04.03.2014 का ऑफिस मेमोरेंडम (ओएम) बहुत ही व्यापक और परिपूर्ण है, जिसमें एंटी डेटिंग का कहीं भी कोई जिक्र नहीं है. अतः हाई कोर्ट, पटना द्वारा रेलवे में मौजूद डीआईटीएस को त्रुटिपूर्ण बताना इस बात का सूचक है कि एम. सुधाकर राव मामले में एंटी डेटिंग सीनियरटी नहीं देने की बात से अदालत पूरी तरह सहमत है.
4. एन. आर. परमार मामले में दिए गए दिशा-निर्देशों को लागू करते ही इंडेंट भेजने की तारीख के आधार पर वर्ष वार इंटर-से-सीनियरटी तय की जाएगी. वह भी बिना एंटी डेटिंग दिए हुए ही. ऐसा अनुमान है कि उपरोक्त नियम के लागू होते ही प्रमोटी अधिकारियों की सीनियारटी 10-12 साल तक पीछे खिसक सकती है. ऐसी ही स्थिति हाल ही में रेलवे बोर्ड सेक्रेट्रियट सर्विस (आरबीएसएस) में भी उत्पन्न हुई थी, जिसमें अदालत के हस्तक्षेप के बाद रेलवे बोर्ड द्वारा इंटर-से-सीनियरटी में बदलाव किया गया. परिणामस्वरूप आरबीएसएस के कुछ कर्मचारियों की सीनियारिटी 10-12 साल पीछे खिसक गई है.
पटना हाई कोर्ट और पटना कैट के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर करने की तैयारी में इरपोफ
आश्चर्यजनक और हास्यास्पद बात यह है कि इरपोफ, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एन. आर. परमार मामले में वर्ष 2012 में दिए गए आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का ही दरवाजा खटखटाने जा रहा है. यह जानते हुए भी कि एन. आर. परमार मामले में दिए गए आदेश के विरुद्ध दायर की गई रिव्यू पीटिशन को भी सुप्रीम कोर्ट पहले ही रिजेक्ट कर चुका है. फिर भी इरपोफ द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर करने का बचकाना निर्णय लिया गया है.
‘रेलवे समाचार’ का उद्देश्य हमेशा स्वतंत्र रूप से सच्चाई प्रस्तुत करने का रहा है. इसलिए इस पूरे प्रसंग पर सभी पाठकों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने की जिम्मेदारी ‘रेलवे समाचार’ ने पूरी ईमानदारी से निभाई है.
इरपोफ के सुप्रीम कोर्ट में जाने के पीछे दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि इरपोफ के दिग्भ्रमित एवं अपरिपक्व नेतृत्व को अब भी इस बात का भ्रम है कि सुप्रीम कोर्ट अपने पुराने निर्णय और रिव्यू पिटीशन को रिजेक्ट करने के बाद भी उसकी खोखली दलीलों पर ध्यान देगा तथा इरपोफ की मांग पर अपने पुराने निर्णय, जिसको रेलवे को छोड़कर भारत सरकार के सभी मंत्रालय अपना चुके हैं, को निरस्त कर देगा. दूसरा यह कि इरपोफ का नेतृत्व अपनी झूठी साख बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाएगा, क्योंकि उसे प्रमोटी अधिकारियों को भय और अंतिम आशा की किरण दिखाकर न सिर्फ उनका आर्थिक शोषण करते रहना है, बल्कि उन्हें सच्चाई से अवगत न कराकर गुमराह करके अपने साथ बनाए रखना भी है.
अंत में पदोन्नति घोटाले और विभिन्न अदालतों के निर्णय पर ‘रेलवे समाचार’ का यही मानना है किसीआरबी को अदालत की अवमानना से बचने और पूरे रेलवे महकमे को जलील होने से बचाने का एकमात्र उपाय यही है कि जल्दी से जल्दी सुप्रीम कोर्ट के आदेश और डीओपीटी के नए नियम को लागू करके तथा इंटर-से-सीनियरटी को रिवाइज करके अदालत को अवगत करा दिया जाए. इरपोफ के बारे में कुछ कहना ही बेकार है, क्योंकि उसकी मिलीभगत से हुए इस महाघोटाले का रहस्य अब सार्वजनिक हो चुका है. इरपोफ की इस जोड़तोड़ से आनेवाली प्रमोटी पीढ़ियों का भविष्य गर्त में जाता नजर आ रहा है. इसलिए इरपोफ को पटना हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट में पुनः मुंह की खाने के बजाय रेलवे बोर्ड के साथ बैठकर कुछ ऐसा विचार करना चाहिए कि जिससे प्रमोटी अधिकारियों का कम से कम नुकसान हो. क्योंकि यदि सुप्रीम कोर्ट से पुनः हार मिलती है, जो कि मिलनी तय है, तो इरपोफ के लिए समझौते के सारे दरवाजे बंद हो जाएंगे, जिससे प्रमोटी अधिकारियों की स्थिति इतनी ज्यादा भयावह हो जाएगी कि जिसका अंदाजा फिलहाल नहीं लगाया जा सकता है.