डीआरएच/कल्याण में एसीएमएस की तानाशाही, मरीजों की दुर्दशा और दवाईयों का घोर अभाव
रेलवे हेल्थ सर्विस को जितनी जल्दी हो सके निजी हाथों में सौंपकर रेलकर्मियों को मेडिक्लेम पॉलिसी जैसी स्वतंत्र सुविधा उपलब्ध कराई जाए। इससे पैदाइशी एक ही जगह टिके सुविधाभोगी हो चुके डॉक्टरों से एक तरफ रेलवे का पिंड छूट जाएगा, तो दूसरी तरफ उन्हें निजी अस्पतालों में नौकरी करने पर सरकारी नौकरी की अहमियत समझ में आ जाएगी।
मध्य रेलवे के डिवीजनल रेलवे हॉस्पिटल (डीआरएच) कल्याण में लंबे समय से टिकी एसीएमएस की इतनी तानाशाही है कि जो उनके मन में आता है उसी को नियम बना देती हैं। वह किसी डॉक्टर, किसी स्टाफ, किसी अस्पताल कमेटी मेंबर या रेलकर्मी की बात कभी सुनने को तैयार नहीं होती हैं। जिस तरह जोनल अस्पताल (जेडआरएच) भायखला में मरीजों की दुर्दशा हो रही है, उससे भी बदतर हालत कल्याण में मरीजों की हो रही है, क्योंकि यहां डॉक्टर वैसे ही कम हैं। यह कहना है एसीएमएस की तानाशाही से पीड़ित कई रेलकर्मियों का।
उनका कहना है कि कई स्पेशलिस्ट डॉक्टर, सीएमएस और एससीएमएस की मनमानी के चलते डीआरएच, कल्याण से पलायन कर गए हैं। दो ऑर्थोपेडिक डॉक्टर पहले ही यहां से पलायन कर चुके हैं और इतने बड़े मंडल चिकित्सालय में कॉन्ट्रैक्ट के एकमात्र ऑर्थोपेडिक डॉक्टर को बैठाकर हजारों रेल कर्मचारियों का भविष्य निर्धारित किया जा रहा है।
उन्होंने बताया कि नए साल के रजिस्ट्रेशन के लिए सीनियर सिटीजंस की तो ऐसी दुर्दशा है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे बेचारे 2-2, 3-3 घंटे लाइन में लगे रहेंगे, फिर प्राइवेट सिक्योरिटी के एक व्यक्ति का अवतरण होता है, वह उनको टोकन देकर अगले दिन आने को बोल देता है। दूसरे दिन फिर बेचारे दो-तीन घंटे लाइन में लगे रहेंगे, तब जाकर रजिस्ट्रेशन का प्रोसेस होता है। रेलकर्मी कहते हैं कि अस्पताल में यह प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड रखने नहीं पड़ते, अगर यहां के डॉक्टर अपनी ड्यूटी वास्तव में निभाते और मरीजों के साथ अपना व्यवहार सही रखते!
इसमें भी यदि उनमें से कोई अपना उम्मीद कार्ड नहीं लेकर आया, तो उसे फिर भगा दिया जाता है। रेलकर्मी कहते हैं कि यह समझ में नहीं आ रहा है कि उम्मीद कार्ड को इतनी वरीयता तो दी जा रही है, जबकि यह आज तक कहीं भी लागू नहीं हो पाया है। उन्होंने बताया कि यदि कोई रेलकर्मी किसी अनुबंधित प्राइवेट अस्पताल में जाकर उम्मीद कार्ड बताकर वहां भर्ती होना चाहता है, तो वह अस्पताल उसको एक सिरे से नकार देता है। तब आज के समय में उम्मीद कार्ड का औचित्य क्या है?
डीआरएच कल्याण में हार्ट पेशेंट, बीपी, डायबिटीज, हाईपरटेंशन इत्यादि सहित अन्य बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को दवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। डॉक्टर लिख रहे हैं 10 एमजी की टैबलेट, मगर उनको 20 एमजी की टैबलेट यह कहकर दे दी जाती है कि आधी खा लिया करो। रेलकर्मी गारंटी से बताते हैं कि डॉक्टर की लिखी हुई दवाओं की 30-40%% दवाएं मरीजों को या तो मिलती ही नहीं हैं, और अगर मिल रही हैं, तो प्रॉपर पोटेंसी की नहीं मिल रही हैं।
उनका कहना है कि ऐसे में एसीएमएस और सीएमएस दोनों की यह मानसिकता है कि मार्केट से दवाओं की लोकल परचेज नहीं करनी है। वह कहते हैं कि अस्पताल के कंप्यूटरों में हर बीमारी के मरीज रेलकर्मियों के बायोडाटा और आंकड़े उपलब्ध होने के बावजूद ये लोग यह कैलकुलेट करने में असमर्थ हैं कि उनके पास किस बीमारी के कितने रेगुलर पेशेंट हैं? उनको क्या-क्या दवाएं कितने-कितने समयांतराल पर लगती हैं? किस पोटेंसी में दवाएं लगती हैं? डीआरएच के पास में वे दवाएं उपलब्ध हैं या नहीं? यह सब समझ से परे है। वह कहते हैं कि सीएमएस, डीआरएच, कल्याण द्वारा 14.02.2022 को एमडी/भायखला को लिखे गए पत्र तथा 17.03.2022 को पीसीएमडी द्वारा भेजे गए पत्र, दोनों की अनदेखी करते हुए मरीजों के स्वास्थ्य और भविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है।
उनका कहना है कि एसीएमएस की सारी उम्मीद यह रहती है कि हर आने वाला पेशेंट रेलवे अस्पताल के हर नियम को भलीभांति जानने वाला हो। लेकिन वह खुद किसी नियम को जानें या किसी की मजबूरी को समझें, यह उनको मंजूर नहीं है। सुबह से शाम तक चीखते- चिल्लाते भौंड़ा प्रदर्शन करते हुए दिन भर अस्पताल में इस तरह इधर-उधर घूमती रहती है कि यदि गैलरी और उनके चेंबर में सीसीटीवी लगाया जाए और उसकी रिकॉर्डिंग जीएम, डीआरएम और सीआरबी देखें तथा स्वयं निर्णय लें कि एसीएमएस ने दिनभर में कितने मरीजों को देखा और क्या काम किया?
वह कहते हैं कि दुर्भाग्य तो यह है कि मध्य रेलवे का पीसीएमडी भी एकदम नकारा और निकम्मा व्यक्ति आया है कि यदि उसके जैसा नकारा कोई रेलकर्मी होता तो अधिकारी कब का उसे रेलवे के बाहर कर दिए होते। लेकिन आज इतनी बड़ी पोस्ट का अधिकारी कोई भी काम करने को तैयार नहीं है। जो रेलकर्मी स्वयं के पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, महीनों और सालों से बिस्तर पर पड़े हुए हैं, उनके लिए भी पीसीएमडी ने मध्य रेल के सभी सीएमएस को आदेश देकर रखा है कि उन कर्मियों को ड्यूटी के लिए फिट कर दिया जाए। मेडिकल बोर्ड का गठन नहीं करना है। उन्हें ‘अनफिट फ्रॉम ऑल कैटेगरी’ भी नहीं करना है। लेकिन पीसीएमडी की पोस्ट और ड्यूटी के लिए पूरी तरह अनफिट पीसीएमडी की तनख्वाह पूरी ले रहे हैं, और बिल्कुल सुरक्षित रूप से, रेलवे से सारे लाभ की वसूली करके रिटायर भी हो जाएंगे। आखिर रेलवे का भला कैसे हो? यह किसी की भी समझ में नहीं आता!
मंडल रेल चिकित्सालय, कल्याण में फिजियोथैरेपिस्ट जब से रेलवे में अप्वॉइंट हुई है, तब से आज तक यहीं पर बैठी हुई है। भुक्तभोगी रेलकर्मी बताते हैं कि उसके ड्यूटी ऑवर्स के बीच में देखा जाए तो 80% से ज्यादा समय उसका केवल मोबाइल और व्हाट्सएप पर बीतता है। कौन पेशेंट आ रहा है? उसको क्या तकलीफ है? यह देखने, समझने और थेरेपी देने के बजाय वह अपनी कुर्सी से उठने को तैयार नहीं होती।
वह बताते हैं कि एक अप्रशिक्षित आया उसका सारा काम करती है, जो अपनी मर्जी के अनुसार लोगों को फिजियोथेरेपी देती रहती है। अगर वे ठीक हो गए, तो उनकी किस्मत, वरना बाहर जाकर पैसा खर्च करें और अपनी जान बचाएं। ऐसे हजारों निठल्ले लोग, जिनको नौकरी की कोई कद्र नहीं है, रेलवे उनको पाल क्यों रही है? यह विचार करने वाली बात है। रेलकर्मी ही कहते हैं कि या तो ऐसे लोगों को नौकरी से बाहर किया जाए, या फिर इनका किसी अन्य डिवीजन या इंटर रेलवे में ट्रांसफर हो, तब इन्हें नौकरी की अहमियत पता चलेगी।
बहरहाल, उपरोक्त तमाम परिदृश्य अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और हतोत्साहित करने वाला है। ऐसे में केवल जीएम और डीआरएम को ही कहां तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है! इसका अर्थ यह है कि जितनी जल्दी हो सके, समस्त रेलवे हेल्थ सर्विस को निजी हाथों में सौंपकर रेलकर्मियों को मेडिक्लेम पॉलिसी जैसी स्वतंत्र सुविधा उपलब्ध कराई जाए, जिसे वे अपनी सुविधा और वक्त-जरूरत के अनुसार उपयोग कर सकें। इस प्रकार लंबे समय से एक ही जगह टिके सुविधाभोगी हो चुके डॉक्टरों से एक तरफ रेलवे का पिंड छूट जाएगा, तो दूसरी तरफ उन्हें निजी अस्पतालों में नौकरी करने पर सरकारी नौकरी की अहमियत समझ में आ जाएगी।
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