December 21, 2021

विश्वविद्यालयों में बदलाव के रास्ते!

जब केंद्र सरकार की क्लास-वन नौकरियों को छोड़कर हर वर्ग में भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर ही होती है। साक्षात्कार को स्टाफ सेलेक्शन कमीशन, रेलवे भर्ती बोर्ड और विभागीय चयन इत्यादि में समाप्त कर दिया गया है, तब ईमानदारी का रास्ता यही बचता है कि विश्वविद्यालयों में भी साक्षात्कार समाप्त हो और वहां भी शिक्षकों की भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर हो!

प्रेमपाल शर्मा

दिल्ली विश्वविद्यालय ने अगले वर्ष से सभी पाठ्यक्रमों में प्रवेश परीक्षा के आधार पर दाखिले का निर्णय कर लिया है। यह स्वागत योग्य कदम है, बशर्ते इसमें कोई धांधली की गुंजाइश न रहे। वस्तुनिष्ठ प्रश्न बनाने से लेकर परीक्षा के इंतजाम तक, क्योंकि पिछले दिनों भर्ती और दूसरी परीक्षाओं में पेपर लीक होने से लेकर अनियमिताओं की खबरें पूरी पीढ़ी का मनोबल तोड़ देती हैं। अच्छी बात यह भी कि यह सत्र शुरू होते ही विश्वविद्यालय ने अगले वर्ष के दाखिले की घोषणा कर दी है, जिससे यह शिकायत भी न रहे कि विद्यार्थियों को पर्याप्त समय नहीं दिया गया। इससे मौजूदा विद्यार्थियों की शिक्षा, मूल्यांकन में भी बुनियादी रूप से बदलाव की संभावना है।

विश्वविद्यालय ने मोटा-मोटी गाइडलाइंस भी जारी कर दी हैं कि परीक्षा का प्रारूप क्या होगा। लेकिन क्या विश्वविद्यालय सिर्फ एडमिशन और एग्जामिनेशन के लिए ही होते हैं? क्या शिक्षा या उच्च शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ इन दोनों के बीच तक ही सीमित है? लगभग 10 वर्ष पहले एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के सेमिनार में एक युवा शिक्षक ने शिकायत की थी कि विश्वविद्यालयों में सिर्फ तीन काम रह गए हैं – एडमिशन! इलेक्शन और एग्जामिनेशन! इलेक्शन में विद्यार्थी संघ के इलेक्शन से लेकर शिक्षक संघ, कर्मचारी संघ के चुनावों का भी जिक्र किया था।

दिल्ली में तो यह तीनों बातें पूरे विश्वविद्यालय या कहें कि दिल्ली के सभी विश्वविद्यालय – जवाहरलाल नेहरू जामिया – समेत इन शब्दों का पर्याय बन चुके हैं। अभी एडमिशन की गहमागहमी इतनी है कि शिक्षक पढ़ने पढ़ाने की तरफ अभी तक जा नहीं पाए। महामारी, लॉकडाउन का भी असर उतना ही है। शिक्षक संघ के चुनाव इस बीच जरूर पूरे हो चुके हैं और कुछ योग्य शिक्षकों का आरोप है कि उन्हें तो दाखिले की प्रक्रिया में झोंक दिया गया और शेष खुलेआम राजनीति में लगे रहे हैं। हो सकता है विश्वविद्यालय विधिवत खुलते ही विद्यार्थी यूनियन के चुनाव आ जाएं और फिर परीक्षा दर परीक्षा।

दिल्ली विश्वविद्यालय में केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु से लेकर पूरे देश के छात्र दाखिले के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन कुछ दिनों के बाद ही उन्हें यह अहसास होने लगता है कि यहां नाम बड़े और दर्शन छोटे हैं। बावजूद इसके दिल्ली में आने वालों की संख्या इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि उन्हें यहां सिविल सेवा से लेकर एमबीए आदि सभी के लिए कोचिंग का सर्वश्रेष्ठ बाजार उपलब्ध है। वरना कुछ और अमीरजादों के लिए सीधा विदेश।

लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यहां यह उठता है कि देश की सर्वश्रेष्ठ युवा पीढ़ी और सुविधाओं के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दुनिया के विश्वविद्यालयों के बीच अपनी पहचान क्यों नहीं बना पा रहे? क्यों एशिया के विश्वविद्यालयों में जहां ताइवान, चीन, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया इत्यादि दुनिया भर के छात्रों को आकर्षित करते हैं, वहीं भारतीय विश्वविद्यालयों की तरफ अफ्रीका के चंद देशों को छोड़कर कोई भी नहीं आता, बल्कि उल्टा इस साल के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 6 लाख भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने गए, विशेषकर अमेरिका ऑस्ट्रेलिया और यूरोप।

अगस्त 2021 के आंकड़ों पर गौर किया जाए, तो आजादी के बाद सबसे बड़ी विदेशी मुद्रा इनकी फीस शिक्षा पर बाहर गई है। लॉकडाउन की वजह से 2020 में यही विदेशी मुद्रा की बचत से भारत में विदेशी मुद्रा 500 बिलियन को पार कर गई थी। पूंजी संसाधन केवल शिक्षा के लिए विदेश जा रही है, क्या यह आत्मनिर्भर भारत की पहचान है? 70 के दशक के बाद से ही ब्रेन ड्रेन पर बहस हो रही है, लेकिन ऐसे कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके कि हमारी प्रतिभा देश में ही रहे।

चंद भारतीयों का बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुखिया बन जाने से हमें संतोष के बजाए वास्तव में अपराध बोध होना चाहिए। उनको वहां तक पहुंचाने में विदेशी विश्वविद्यालयों का ज्यादा योगदान रहा है। ऐसा भी नहीं है कि इन विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियां गोपनीय रही हों। इंटरनेट और मीडिया के जमाने में हर तरह की सामग्री और सूचना उपलब्ध है और इस सूचना क्रांति को भी 15 वर्ष होने को आए, लेकिन अफसोस भारतीय विश्वविद्यालयों ने  मानो न बदलने की कसम खा रखी है।

देश की दूसरी संस्थाओं में परिवर्तन की आहट हो रही है। वह चाहे जमीन के रिकॉर्ड हों, पासपोर्ट प्रक्रिया हो, हवाई यात्रा हो या किसानों के खातों में जन-धन से लेन देन। अगर कुछ नहीं बदला तो विश्वविद्यालयों की तस्वीर नहीं बदली। स्कूली शिक्षा के लिए तो समय-समय पर कई समितियां/आयोग बैठाए गए और बदलाव की कोशिश भी हो रही है लेकिन विश्वविद्यालय तो मानो केवल एडमिशन, इलेक्शन और एग्जामिनेशन पर ही केंद्रित होकर रह गए हैं।

आश्चर्य की बात यह भी है कि पूरे विश्वविद्यालय में एक स्वर से प्रवेश परीक्षा के आधार पर अगले वर्ष दाखिले की बात की गई है लेकिन शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में बदलाव के लिए एक भी आवाज नहीं उठी! यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि विश्वविद्यालय केवल दीवारों का नाम नहीं होता। विश्वविद्यालयों की पहचान उनके  योग्य शिक्षकों और उनके शोध कार्यों से होती है।

आप नोबल पुरस्कार विजेताओं के जीवनवृत्त देख लें, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड के कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड भरे पड़े हैं। उन्हीं के संपर्क में भारत के वेंकटरमन, अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी जैसे मूल रूप से भारतीय भी बेहतर करने की जुंबिश रखते हैं। इस सफलता के पीछे है शिक्षकों की ईमानदार मेरिट बेस भर्ती प्रक्रिया।

संक्षेप में कहा जाए तो सबसे दकियानूसी, वंशवादी, भ्रष्टाचार केंद्रीय विश्वविद्यालयों की भर्ती में मौजूद है, जहां सिर्फ और सिर्फ साक्षात्कार से पूरे जीवन भर के लिए शिक्षक नियुक्त हो जाता है। जेएनयू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस, इलाहाबाद इसके उदाहरण हैं। कई-कई पीढ़ियां लगातार विश्वविद्यालयों में पढ़ा रही हैं। इतना वंशवाद तो राजनीति में भी नही है। एक दूसरे की सिफारिश से जो अयोग्य भर्ती होते हैं, आगे चलकर वे वैसी ही अकादमिक बीमारियों में लिप्त रहते हैं।

आजादी के तुरंत बाद ही विश्वविद्यालयों के पतन की इबारत लिखनी शुरू हो गई थी। ब्रिटिश सांचे में पले बढ़े जो शिक्षक प्रोफेसर अपनी प्रतिभा से आए थे, आजादी के बाद वंशवादी प्रभाव में बहते हुए उन्होंने भी अपने अपने विभागों में अपने बेटा बेटी नातेदार जाति धर्म को तरजीह देनी शुरू कर दी। यह लोकतंत्र की आत्मा पर तो पहार था ही, उस डाली को भी काटना था जिस पर वे बैठे हुए थे। बीच-बीच में संघ लोक सेवा आयोग जैसा बोर्ड बनाने की बातें उठती तो रही हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति में इस विचार को किसी ने भी तरजीह नहीं दी, उल्टा उसे और विरूपित ही किया है।

शिक्षा के जिन प्रांगणों, विश्वविद्यालयों में जाति धर्म को खत्म करने की ताकत थी, उनमें जाति आधारित विमर्श ने और कोढ़ में खाज का काम किया है। इसे समझने के लिए हाल की कुछ घटनाएं पर्याप्त हैं। जेएनयू में हाल में शोध के लिए जो इंटरव्यू हुआ उसमें नंबर कम देने की बात उठाई गई है। इलाहाबाद के झूंसी संस्थान में भर्ती पर भी ऐसे ही प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं। ज्यादातर ये प्रश्नकर्ता विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर हैं और वे स्वयं भी ऐसी ही सिफारिशों के रास्ते से आए हैं।

यह सच है कि साक्षात्कार की प्रक्रिया संदेह के घेरे में सदा से रही है, लेकिन यह गिरोह राजनेताओं की तरह जातिवादी राजनीति में इतना डूबा रहता है कि कभी साक्षात्कार के नंबरों को पूरी तरह से समाप्त करने की बात नहीं करते। यहां तक कि विश्वविद्यालयों के शिक्षक तो केवल साक्षात्कार पर ही भर्ती होते हैं। वहां तो शत-प्रतिशत बेईमानी की गुंजाइश रहती है, क्योंकि यह राजनेताओं की तरह सिर्फ जातिगत अलाव को जिंदा रखना चाहते हैं।

जब केंद्र सरकार की क्लास-वन नौकरियों को छोड़कर हर वर्ग में भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर ही होती है। साक्षात्कार को स्टाफ सेलेक्शन कमीशन, रेलवे भर्ती बोर्ड में पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है, तो ईमानदारी का रास्ता यही बचता है कि विश्वविद्यालयों में भी साक्षात्कार समाप्त हो और वहां भी शिक्षकों की भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर हो।

देश के ज्यादातर राज्यों ने अपने-अपने विश्वविद्यालय कालेजों की शिक्षक भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर शुरू कर दी है। साक्षात्कार के सिर्फ 15 से 20% अंक। शिक्षा मंत्रालय को चाहिए मौजूदा केंद्रीय विश्वविद्यालय भर्ती के लिए अलग बोर्ड बनाए। संसद के मौजूदा सत्र में एक प्रश्न के जवाब में यह बताया गया है कि 6500 शिक्षकों के पद भरे जाने हैं और केंद्र सरकार ने उसकी प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। इसका फायदा आरक्षित वर्ग समेत सभी विश्वविद्यालयों को मिलेगा, लेकिन पारदर्शिता और विश्वविद्यालयों को बुनियादी रूप से बेहतर करने का रास्ता यही होगा कि भर्ती प्रक्रिया केवल लिखित परीक्षा से हो और साक्षात्कार को इस पूरी प्रक्रिया से पूरी तरह समाप्त किया जाए।

विदेशी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर शोध और परीक्षा पद्धति को भी तुरंत बदलने की जरूरत है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस बार शिक्षकों की पदोन्नति में भी रिकॉर्ड कायम किया है। दिल्ली के 80 कालेजों के हर विभाग में भी प्रोफेसर के ग्रेड और वेतनमान दे दिए गए हैं। हजारों शिक्षकों को इसका फायदा हुआ है। उनके वेतन और सुविधाएं भी अब सिविल सेवा परीक्षा के वेतनमान की तर्ज पर हैं। इसलिए उचित होगा कि उनकी भर्ती/पदोन्नति पर भी वैसे ही मानदंड लागू हों।

पिछले वर्ष 2019 में एडहॉक शिक्षकों को रेगुलर करने की मांग को लेकर भी 6 महीने तक कक्षाएं नहीं चली थीं। यह अनुचित मांग है और कर्नाटक हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे शिक्षकों को नियमित करने की मांग इसलिए नहीं मानी कि उनकी भर्ती विधिवत चयन बोर्ड द्वारा नहीं हुई थी और यह नई मेधावी पीढ़ी को आने से रुकेगा।

शिक्षा नीति 2020 भविष्य के विद्यार्थियों को 21वीं सदी की चुनौतियों से निपटने की बात तो करती है, लेकिन उसका कोई रोडमैप अभी तक सामने नहीं आया। जब तक दूसरे सुधार लागू हों, शिक्षकों की भर्ती, शोध और पाठ्यक्रम में बदलाव की शुरुआत तो तुरंत हो ही सकती है।

#प्रेमपाल_शर्मा, दिल्ली, संपर्क: 99713 99046.

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