रेलवे में सबको चाहिए केवल “स्टेटस”!
यहां हर व्यक्ति अर्थात कर्मचारी और अधिकारी तथा यूनियन पदाधिकारी केवल अपने निजी “स्टेटस” के लिए झगड़ रहा है, उसे देशहित, रेलहित और समाज या व्यवस्था के हित से कोई सरोकार नहीं रह गया है। अतः समग्र परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिए!
रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) द्वारा सैद्धांतिक तौर पर ग्रेड-पे ₹4800 और ₹5400 वाले ग्रुप ‘सी’ सीनियर सबॉर्डिनेट सुपरवाइजरों को अपग्रेड करने की प्रक्रिया की जा रही है। उम्मीद है कि जल्दी ही यह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और उपरोक्त ग्रेड-पे के सभी विभागों के सुपरवाइजर कैटेगरी के कर्मचारियों को अपग्रेडेशन मिल जाएगा।
सीआरबी/सीईओ/रेलवे बोर्ड सुनीत शर्मा से हाल ही में हुई बातचीत में उन्होंने यह बात स्वीकार की है और यह भी कहा कि “उपरोक्त प्रस्ताव वित्त मंत्रालय को भेजा गया है। वह आशा करते हैं कि इस विषय पर उपयुक्त निर्णय जल्दी ही हो जाएगा।”
उल्लेखनीय है कि इस अपग्रेडेशन के लिए खासतौर पर सबसे ज्यादा इंजीनियरिंग विभाग के वे तीन-साढ़े तीन हजार सीधी भर्ती वाले सुपरवाइजर उद्वेलित हैं, जिन्हें रेल में भर्ती होने से लेकर सेवानिवृत्ति तक एक भी पदोन्नति का अवसर नहीं मिलता। जबकि प्रकृति और मानव प्रवृत्ति में समय के साथ “प्रगति” स्वाभाविक रूप से अपेक्षित होती है।
मगर यह प्रगति परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए।वैसी नहीं जैसी कि रिस्ट्रक्चरिंग के समय इंजीनियरिंग विभाग के उन तमाम कर्मचारियों, जिनके पास कोई तकनीकी शैक्षिक योग्यता नहीं होने के बावजूद केवल इसलिए उन्हें अपग्रेड करके “इंजीनियर” बना दिया गया कि इंजीनियरिंग विभाग के कर्मचारियों की संख्या बरकरार रखी जा सके और इस प्रकार सुपरवाइजर से लेकर अधिकारी तक औसतन दो-चार ऐसे कर्मचारियों का व्यक्तिगत दुरुपयोग जारी रख सकें।
पूर्व में मेंबर इंजीनियरिंग द्वारा की गई उपरोक्त प्रकार की चालबाजी की भी समीक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि इससे अयोग्य कर्मचारियों को भले ही आर्थिक और सामाजिक लाभ प्राप्त हुआ है, मगर व्यवस्था का कोई भला नहीं हुआ, बल्कि उल्टे व्यवस्था का बंटाधार हुआ है, यह सौ प्रतिशत सच है!
जानकारों का कहना है कि सुपरवाइजरों की मांग भले कितनी ही जायज क्यों न हो, मगर पहला सवाल यह उठता है कि ग्रुप ‘बी’ में इतनी बड़ी संख्या में पदों का सृजन कैसे संभव होगा? उनका यह भी कहना है कि सुपरवाइजरों को अराजपत्रित ग्रुप ‘बी’ का दर्जा दिया जा सकता है। परंतु इसके साथ ही प्रबंधन का हिस्सा मानते हुए उन्हें यूनियनों से बाहर करने का भी इंतजाम किया जाना चाहिए।
जानकारों का कहना है कि समय-समय पर यूनियनों द्वारा कर्मचारियों के अपग्रेडेशन की वकालत करके उनके पदनाम बदलवाकर जो अनुचित कर्म किया जाता है, उससे केवल कर्मियों और यूनियनों का हित साधन होता है। इससे रेल का कोई भला नहीं होता। इसका ताजा उदाहरण यह है कि दोनों लेबर फेडरेशनों ने अब गार्डों का पदनाम बदलकर “ट्रेन मैनेजर” करने की मांग की है, जिसका कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने कहा कि “ड्राइवर” का पदनाम बदलकर “लोको पायलट” कर दिए जाने मात्र से क्या वह रेल इंजन को हवा में उड़ाने लग गया? अतः कर्मियों के पदनाम उनकी कार्य-स्थितियों के अनुरूप ही होने चाहिए। अंग्रेज इस देश में रेल पटरियां इसलिए बिछा पाए थे, क्योंकि वह काम में राजनीति और निजी स्वार्थों का सम्मिश्रण नहीं करते थे।
जानकारों का कहना है कि वर्तमान में जब हेड ऑन जेनरेशन (एचओजी) सहित अन्य उन्नत तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है, जिसमें ट्रेन गार्ड की आवश्यकता ही नहीं रह गई है, तब गार्डों का पदनाम बदलने की नहीं, बल्कि उन्हें पुनर्प्रशिक्षित करके लोको पायलट और मोटरमैन बनाने की आवश्यकता है। रेल प्रशासन द्वारा सबरबन सेक्शंस में यह काम करने का प्रयास लगभग दस साल से किया जा रहा है, परंतु यूनियनें इसमें लगातार बाधा इसलिए बनी हुई हैं, क्योंकि गार्डों को बिना कोई औचित्यपूर्ण काम किए मुफ्त में हर महीने मिल रहे लाखों रुपये के वेतन-भत्ते और माइलेज से यूनियनों के कुछ शीर्ष पदाधिकारी भी लाभांवित हैं।
कमर्शियल के सभी कैडर्स की मर्जिंग करने सहित अन्य कई प्रबंधकीय एवं प्रशासनिक सुधार कार्य रेलवे में लंबे समय से अटके पड़े होने के पीछे यही कारण है कि रेल प्रशासन में इच्छाशक्ति का अभाव तो है ही, मगर इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि जूनियर अधिकारी से लेकर चेयरमैन रेलवे बोर्ड तक कोई भी अधिकारी यूनियनों से किसी प्रकार का पंगा नहीं लेना चाहता। यह सब केवल अपना सुखरूप कार्यकाल बिता रहे हैं।
अब जहां तक बात इंजीनियरिंग विभाग के सुपरवाइजरों को ग्रुप ‘बी’ स्टेटस दिए जाने की मांग की है, तो सबसे पहले यह भी देखा जाना चाहिए कि रेलवे को सबसे ज्यादा नुकसान उन पी-वे सुपरवाइजरों से हो रहा है, जो सालों से कार्यालयों और फील्ड में एक ही जगह पदस्थ हैं। इसीलिए न केवल पी-वे मेटीरियल की बंदरबांट हो रही है, बल्कि उन्हें 20-25 साल के सर्विस एक्सपीरियंस के बावजूद मात्र 10-12 साल की सर्विस वाले सीनियर डीईएन की बात-बात पर झिड़की सुननी पड़ रही है और अपमान सहना पड़ रहा है।
लखनऊ मंडल, पूर्वोत्तर रेलवे के एक सीनियर डीईएन इस बात का ताजा और पुख्ता प्रमाण हैं, जो कार्यालय में काम कर रहे सीनियर सबॉर्डिनेट सुपरवाइजरों से छोटी से छोटी गलती पर कहते हैं कि “वह उन्हें उठाकर पटक देंगे, चार्जशीट थमा देंगे, कैरियर बरबाद करके चपरासी बना देंगे”, मगर जो काम उनके क्लर्क का है, उसे कुछ कहने की उनमें हिम्मत नहीं है। और यह सब डीआरएम, एडीआरएम की नाक के नीचे हो रहा है।
प्रबंधन में यूनियनों की अनावश्यक दखलंदाजी के कारण जहां कर्मियों को भले ही आर्थिक लाभ मिलता है, मगर उनकी कार्यक्षमता और मॉरल वैल्यू खत्म हो जाती है। यूनियनों द्वारा कर्मचारियों को ढ़ेरों सब्जबाग दिखाते अक्सर देखा जा सकता है, मगर किसी यूनियन नेता को आजतक कर्मियों से यह कहते नहीं सुना गया कि वे अपना निर्धारित कार्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करें और रेल की प्रगति में सहयोगी बनें।
इसके अलावा, कुछ अपवादों को छोड़कर, सीनियर सबॉर्डिनेट सुपरवाइजरों के पास भर्ती के समय कुछ नहीं होता, परंतु रिटायरमेंट तक वह आय से अधिक संपत्ति के मालिक होते हैं! इसी प्रकार कुछ यूनियन पदाधिकारी भी राजनेताओं की तरह अकूत संपत्ति के मालिक बन गए हैं, इस वास्तविकता से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस मामले में जानकारों का कहना है कि यहां हर व्यक्ति अर्थात कर्मचारी और अधिकारी तथा यूनियन पदाधिकारी केवल अपने निजी “स्टेटस” के लिए झगड़ रहा है, उसे देशहित, रेलहित और समाज या व्यवस्था के हित से कोई सरोकार नहीं रह गया है। अतः समग्र परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिए।
एक ट्विटर यूजर प्रकाश कुशवाहा लिखते हैं, “एक ही स्थान पर पदस्थ कर्मचारी-अधिकारी, जिनके अंतर्गत कई अन्य कर्मचारी-अधिकारी कार्य करते हैं, एक समय के बाद उनका शोषण करने लगते हैं। इन बातों की शिकायत करने के बावजूद उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। रेल महकमे में इंजीनियरिंग विभाग की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण यही है!”
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
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