पांच लाख वेतन से क्या वास्तव में पौने तीन लाख टैक्स चला जाता है? क्या सही बोल रहे हैं महामहिम?
राष्ट्रपति का वेतन और भत्ते.. याद नहीं आता कि अब तक किसी राष्ट्रपति ने अपने वेतन-भत्ते को लेकर कभी इस तरह बात कही हो। आयकर कटौती के संबंध में संभवतः गलत सूचना दी है, क्योंकि अभी तक यही बताया जाता रहा है कि राष्ट्रपति की आय करमुक्त होती है।
इसके बाद भी अगर टैक्स से शिकायत है – जो कि होनी नहीं चाहिए – क्योंकि राष्ट्रपति भवन का समस्त खर्च जनता के टैक्स के पैसों से ही चलता है – तो सरकार से बात करनी चाहिए। इस तरह सार्वजनिक रूप से बोलना राष्ट्रपति को कतई शोभा नहीं देता। अगर राष्ट्रपति का वेतन कम है, अथवा टैक्स ज्यादा है, तो इसमें देश का सर्वसामान्य नागरिक क्या कर सकता है? अध्यापकों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति का यह उलाहना देना उनका अपमान करने जैसा था।
याद करें, एक समय राष्ट्रपति का वेतन ₹10,000 महीना हुआ करता था और नियम था कि किसी और का वेतन – निजी क्षेत्र में भी – राष्ट्रपति के वेतन से ज्यादा नहीं हो सकता। तब भी न राष्ट्रपति ने, और न ही निजी क्षेत्र वालों ने इस पर कभी कोई सार्वजनिक ऐतराज जताया था।
अभी, राष्ट्रपति का वेतन टैक्स मुक्त तो होता ही है, राष्ट्रपति की पत्नी को सचिव और सचिवालय के खर्च के नाम पर ₹30,000 महीना सरकार से मिलता है। उन्हें सवारी के लिए बेहद सुरक्षित मर्सिडीज बेंज एस 600 भी मिलती है।
मेडिकल, राष्ट्रपति भवन जैसा आवास और उपचार बिल्कुल मुफ्त है। सरकार राष्ट्रपति के अन्य खर्चे जैसे आवास के रखरखाव और कर्मचारियों पर ₹22.5 मिलियन प्रति वर्ष खर्च करती है। यानि ₹2.25 करोड़ प्रति वर्ष। और यह सब आजीवन व्यवस्था है। इसके बाद भी अगर राष्ट्रपति कम वेतन की बात करते हैं, तो यह समझ से परे है।
जबकि पांच साल के कार्यकाल के लिए उन्हें आजीवन पेंशन मिलती है, जो अभी की दर से ₹1.5 लाख प्रति माह है।
रिटायरमेंट के बाद रहने के लिए मुफ्त बंगला मिलेगा। दो लैंडलाइन और दो मोबाइल फोन मुफ्त मिलेंगे। ₹60,000 प्रतिमाह स्टाफ का खर्च मिलेगा। सहयोगी के साथ विमान या रेल से आजीवन मुफ्त यात्रा की सुविधा मिलेगी। अपने गृहनगर की यात्रा पर हैं, तो ट्रैफिक रोकने से महिला उद्यमी की मौत हो गई और सुरक्षा कर्मचारियों के वाहन से कुचलकर एक बच्ची की जान चली गई। उसका हिसाब कौन देगा?
राष्ट्रपति का काफिला और अफसरशाही
खबर है कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की सुरक्षा ड्यूटी में तैनात अर्द्धसैनिक बल का काफिला अकबरपुर से रूरा की ओर जा रहा था। काफिला नरिहा गांव के पास पहुंचा ही था कि अचानक नगीनापुर घाटमपुर के राजेश पाल की चार वर्षीय बच्ची कनिष्का सीआरपीएफ के एक वाहन की चपेट में आकर गंभीर रुप से घायल हो गई।
हादसे के बाद पुलिस अधीक्षक केशव कुमार चौधरी मौके पर पहुंचे। उन्होंने घायल बच्ची को तत्काल अपने वाहन से जिला अस्पताल पहुंचाया। जहां डाक्टरों ने प्राथमिक उपचार के बाद 108 एंबुलेंस से हैलट अस्पताल कानपुर रेफर कर दिया। अस्पताल में उपचार के दौरान बच्ची की मौत हो गई। कोतवाल तुलसीराम पांडेय ने बताया कि बच्ची की मौत होने की जानकारी मिली है। परिजनों की तहरीर मिलने पर दुर्घटना की रिपोर्ट दर्ज की जाएगी।
विशिष्ट योग्यता, मनोनीत व्यक्ति और राष्ट्रपति
राष्ट्रपति का मतलब पहले चाहे जो होता हो और संविधान ने उन्हें चाहे जितना महत्व दिया हो, सच यही है कि प्रधानमंत्री ने अपने पसंदीदा को राष्ट्रपति बना दिया था। राष्ट्रपति इसका पूरा ख्याल और सम्मान करते आए हैं। लेकिन हद तो तब हुई जब सत्तारूढ़ पार्टी ने बंगाल चुनाव जीतने के लिए “विशिष्ट योग्यता” के लिए मनोनीत व्यक्ति को पार्टी उम्मीदवार बना दिया। राष्ट्रपति द्वारा उनकी विशिष्ट योग्यता को सम्मान दिए जाने का ध्यान न उम्मीदवार ने रखा, न पार्टी ने।
विरोध करने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। और यह स्थिति इसलिए आई कि विशिष्ट योग्यता वाले व्यक्ति के पास यह विकल्प रहता है कि वह मनोनीत किए जाने के बाद पार्टी से अपना लगाव घोषित कर दे। राष्ट्रपति को यह विकल्प नहीं मिलता है, और जाहिर है क्यों नहीं मिलता है। उधर पार्टी समर्थक विशिष्ट योग्यता वाले छद्म निष्पक्ष बने रहे।
ऐसे में राष्ट्रपति का मान सम्मान रखने के लिए सर्वप्रथम तो विशिष्ट योग्यता वाले सदस्य को वर्षों बाद दल विशेष के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए नामांकन दाखिल नहीं करना चाहिए था, और दाखिल करना ही था, तो इस्तीफा पहले दिया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और स्वपन दासगुप्ता को भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा।
बात इतनी ही होती तो भी चलता। पर संयोग ऐसा हुआ कि दो सौ सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा अपने इस “विशिष्ट योग्यता” वाले सदस्य को भी विधानसभा का चुनाव नहीं जितवा पाई। ठीक है, जनता ने नकार दिया। चुनाव में हार-जीत होती ही रहती है। लेकिन अगर जनादेश यही था, तो इसका सम्मान किया जाना चाहिए था। इस्तीफा दे चुके थे, और तमाम लोग नौकरी से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ते हैं, उन्हें दोबारा बहाल नहीं कर लिया जाता है। निजी क्षेत्र की नौकरी करने वाले अपवाद होते हैं।
विशिष्ट योग्यता के लिए एक बार राज्यसभा का सदस्य बनाया जाना निश्चित रूप से योग्यता – चाहे जो जैसी हो – का सम्मान है और उसे स्वीकार करने के बाद इस्तीफा देना उस सम्मान का अपमान है। लेकिन लोकतंत्र में जनता की सेवा करने की भूख को अलग सम्मान मिलता है और उसकी जरूरतें भी अलग हैं। ऐसे में अगर किसी ने राज्यसभा की सदस्यता को ठुकरा दिया, तो क्या देश में प्रतिभा की इतनी कमी है कि उसी को फिर नामांकित किया जाए?
क्या विशिष्ट योग्यता वाली इस सीट का भरा रहना इतना जरूरी है कि दूसरे योग्य व्यक्ति की अनुपस्थिति में एक साल उस पद को खाली रखने के बजाय उस पर उसी को मनोनीत करके या करवाकर देश की तमाम प्रतिभाओं का, राष्ट्रपति का अपमान किया जाए? अगर विशिष्ट योग्यता वाले सदस्य का पद एक साल खाली रह जाता, तो क्या आसमान टूट पड़ता?
अगर ऐसा होना भी था, तो क्या यह जरूरी नहीं था कि उस सीट पर किसी और को मनोनीत किया जाए! उसे नहीं, जो बिना पार्टी का मनोनीत हुआ था और पार्टी द्वारा स्वीकार करने पर जिसने इस्तीफा दे दिया, उसे ही मनोनीत कर लिया जाए! क्या यह सत्तारूढ़ पार्टी की सदस्यता लेने का विशेष लाभ नहीं हुआ? क्या स्वपन दासगुप्ता किसी और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर हार गए होते, तो उन्हें बाकी समय के लिए दोबारा मनोनीत किया जाता?
एक तरह से यह राष्ट्रपति का, नियमों का और विशिष्ट प्रतिभा वाले लोगों के नामांकन की महत्ता को कम करना है। उस पद का महत्व कम करना है। दूसरा मतलब यह बताना-दिखाना भी हो सकता है कि सरकार – या प्रधानसेवक – जो ठीक समझें, वही ठीक है, बाकी कायदे-कानूनों का कोई मतलब नहीं है।
राष्ट्रपति का सम्मान इसमें था कि वे स्वपन दासगुप्ता को दोबारा मनोनीत करने से मना कर देते। ऐसा नहीं है कि स्वपन दासगुप्ता को इससे कोई भारी नुकसान होना था, या उनकी छवि खराब हो जाती। पर राष्ट्रपति की इज्जत तो जरूर बढ़ती। पर सरकार ने, सिस्टम ने और स्वयं राष्ट्रपति ने इसका ध्यान नहीं रखा और अपना अपमान स्वीकार किया। राष्ट्रपति का मान कम करने का यह कोई अकेला मामला नहीं है।
रुतबा दिखाने गांव जाना जरूरी नहीं था!
ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रपति को अपने गांव वालों को अपना रुतबा दिखाने के लिए गांव जाना जरूरी है, या इसकी कोई आवश्यकता भी थी। वे पांच साल में गांव के सैकड़ों लोगों को दिल्ली बुलाकर राष्ट्रपति भवन में मेहमान बना सकते थे। बिना नंबर वाली अशोक की लाट वाली लक्जरी गाड़ियों पर घुमा सकते थे और दिल्ली में हर व्यक्ति को वीआईपी बनने का अवसर दे सकते थे।
यह सब छोड़कर वे गांव में अपना वीआईपी होना साबित करने जाएं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। वे दिखावा कम करने के लिए कह सकते थे। पूरी ट्रेन लेकर जाने के बजाय हवाई जहाज लेकर जा सकते थे। 100-50 गाड़ियों का काफिला और भव्य लगता। पूर्व उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा 70 गाड़ियों का काफिला लेकर कोलकाता घूमे थे। वह कम नहीं था और कोलकाता में लोग देखते रह गए थे, तो गांव की क्या बात होगी।
राष्ट्रपति को किससे खतरा था?
विशेष ट्रेन से जाना सरकार का निर्णय था। शायद कोई इवेंट बनाने की योजना हो। पर मुद्दा यह है कि राष्ट्रपति को किससे इतना खतरा है कि नीचे से ट्रेन गुजरने के लिए फ्लाई ओवर पर ट्रैफिक रोक दिया जाए और वह भी पांच-सात-दस मिनट नहीं, पूरे 45 मिनट। नतीजा यह हुआ कि इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन, कानपुर चैप्टर की महिला विंग की अध्यक्ष वंदना मिश्रा का घर से अस्पताल का 20 मिनट का रास्ता दो घंटे में पूरा हुआ, जो राष्ट्रपति के दौरे को भी बदनाम कर गया।
सरकार जब यह दावा करती है कि उसके शासन में आतंकवादी हमला नहीं हुआ, बालाकोट हमले में 300 से ज्यादा आतंकवादी मार दिए गए, सर्जिकल स्ट्राइक करके उसने पाकिस्तान को सबक सिखा दिया है और प्रधानसेवक “घर में घुसकर” मार सकते हैं, तो किससे राष्ट्रपति की रक्षा की जा रही थी, जो वंदना मिश्रा की राजकीय हत्या करनी पड़ी?
वीआईपी संस्कृति पुनर्जीवित कैसे हो गई?
ठीक है कि सरकार को नागरिकों की मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन सच यह है कि इससे पहले ऐसी मौत 2009 में हुई थी। जब प्रधानमंत्री पीजीआई चंडीगढ़ में मौजूद थे और उस दौरान बाहर से किसी के प्रवेश पर पाबंदी थी। ऐसे में एक मरीज को भी रोक दिया गया और उसकी मौत हो गई थी। उसके बाद से ऐसा फिर कभी नहीं हुआ। वीआईपी के लिए ट्रैफिक रोकना तो बहुत पहले से बंद है। फिर कानुपर में ऐसा क्यों किया गया? ये वीआईपी संस्कृति पुनर्जीवित कैसे हो गई? सरकार तो जवाब नहीं देती, महामहिम जी ही अब कुछ सोचें.. यदि देश के सर्वोच्च पद की गरिमा रखनी हो तो!
राष्ट्रपति द्वारा अपने गांव की इस सद्भावना यात्रा पर गांव वालों तथा वहां उपस्थित तमाम अफसरशाही एवं मीडिया के सामने अपने वेतन को लेकर ऐसी कोई बात कहने का कोई औचित्य नहीं था। तथापि महामहिम ने इसका उल्लेख किया, तो इसका सीधा अर्थ गांव वाले यही लगाएंगे और पूरे देश ने भी लगाया कि उन्होंने गांव वालों को अपना रुतबा दिखाने के लिए ही गांव का यह दौरा किया।
राष्ट्रपति की सोच और उनके विचार तो अब सार्वजनिक रूप से उजागर हो चुके हैं। अब भले ही इसके लिए उनके या राष्ट्रपति सचिवालय द्वारा गत वर्ष मई में कोरोना के चलते राष्ट्रपति द्वारा अपने वेतन का 30% हिस्सा दान किए जाने की कितनी ही सफाई दी जाती रहे। केवल राजनीतिक हित-लाभ के लिए किसी को भी राष्ट्रपति बना दिए जाने का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है।
स्पेशल प्रेसिडेंशियल ट्रेन में एक व्यक्ति का किराया जानेंगे, तो सामान्य आदमी का होश उड़ जाएगा
जिस विशेष महाराजा ट्रेन में राष्ट्रपति जी अपने गांव गये थे, उसका एक व्यक्ति का किराया देख लीजिए, जो कि भारत सरकार के ही एक उपक्रम आईआरसीटीसी की आधिकारिक वेबसाइट पर है। साढ़े बीस लाख रुपए से ज्यादा!
कुल कितने लोग चले थे राष्ट्रपति जी के साथ? कितने डिब्बे थे ट्रेन में? सुना है कि आगे-आगे सुरक्षा कारणों से एक वैसी ही ट्रेन और चलाई गई थी?
भारत सरकार का यानि अंततः करदाताओं का कितना पैसा बर्बाद हुआ?
वह जो प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और स्वयं के लिए 8400 करोड़ के विशेष विमान दिल्ली में लाकर खड़े किए गए हैं, क्या प्रधानमंत्री ने उनके इस्तेमाल को मना किया है, या कि मात्र एक शगल टशन के लिए ही ट्रेन में बैठे! पूरे रास्ते पटरी के किनारे-किनारे कितने हजार सुरक्षाकर्मी लगाए गये थे? इन सब बातों का जवाब सुरक्षा कारणों का बहाना बनाकर कभी भी नहीं बताया जाएगा।
डॉ लोहिया या गांधी जी होते तो खूब कड़वी बात बोलते इस मौके पर! आप मध्यवर्गीय बाद में कहते कि राष्ट्रपति के लिए ऐसा नहीं बोलना चाहिए था, तुम सब फर्जी लोग हो!
राष्ट्रपति जी के लिए आज दस रुपये खर्च किए गए!
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