June 28, 2021

महामारी और हमारी सामाजिक नैतिकता

‘आत्म-निर्भर’ बनने सड़क पर निकला भारत का मजदूर!

कोरोना महामारी ने केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम इंतजामों की पोल तो खोली ही, इस देश की सामाजिक नैतिकता भी चौतरफा तार-तार दिखी। किसी देश और समाज की परीक्षा ऐसे ही मौकों पर होती है। ऐसी व्यापक अव्यवस्था से शायद ही दुनिया का कोई देश गुजरा हो!

Prempal Sharma

याद करें मार्च 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा होते ही अगले कुछ दिनों के हादसे। दिल्ली के नजदीक ही एक पुलिसवाला हजारों मील दूर अपने गांव पैदल जाने वालों को डंडे के बल मेंढ़क की तरह कूदने के लिए मजबूर कर रहा था। कुछ महिलाएं नवजात बच्चों के साथ सिर पर गठरी रखे हुए बेहाल थीं। बस, रेल, हवाई जहाज सब बंद, और शहर में न रहने का ठिकाना, न खाने का। अहमदाबाद, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई से लाखों लोग विशेषकर हिंदी प्रांतों के मजदूर सड़कों पर थे। सैकड़ों मौतें भी हुईं।

ठीक एक वर्ष बाद इस महामारी की दूसरी लहर ने तो और भी कहर बरपाया। अस्पतालों में बेड, जीवन रक्षक ऑक्सीजन, आईसीयू, वेंटिलेटर की चौतरफा कमी महसूस की गई। इस महादेश की राजधानी दिल्ली में तो शायद सबसे भयानक दृश्य थे। अस्पतालों के बाहर और अंदर लोगों ने मेडिकल सुविधाओं की कमी से पटपट जान गवाई। इतना ही नहीं श्मशान में भी जगह नहीं मिली, तो उसके आसपास चिताएं जलानी पड़ीं। गंगा-जमुना के क्षेत्र में अंतिम क्रिया कर्म के लिए भी सुविधाएं नहीं मिलीं, तो हजारों लाशें इन पवित्र नदियों में डूबती-उतराती देखी गईं।

लेकिन त्रासदी केवल सरकारी व्यवस्था तक ही सीमित नहीं थी, समाज का आईना और भी डरावना और दुखद था। ऑक्सीजन के सिलेंडर 10-20 गुना कीमत पर कालाबाजारी करने वाले उपलब्ध करा रहे थे, तो कुछ दानवों ने अग्निशामक यंत्रों पर ऑक्सीजन लिखकर तड़पते मरीज के संबंधियों को बेच दिए। और यह सब देश के नगरों-महानगरों में सरेआम हुआ। बुखार की सामान्य दवएं तकआ बाजार से नदारद हो गईं और मिलीं भी तो नकली।

एक भूक्त भोगी ने बताया, ठीक होने के बाद वह कुछ बची हुई दवाओं को मुफ्त में नजदीक के अस्पताल और केमिस्ट को देने गए। उन्होंने लेने से यह कहकर साफ मना कर दिया कि यह सब नकली दवाएं हैं। मृत्यु के आसन्न संकट से जूझते मरीज और रिश्तेदारों को कैसे पता चले कि असली और नकली दवा में क्या अंतर होता है? बेईमानों ने रेमदेसीविर की खाली सीसी अस्पताल से इकठ्ठी कर एक गिरोह की मदद से उनमें पानी भरकर लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे कर डाले।

डिजिटल दुनिया के कारनामें भी उतने ही खतरनाक साबित हुए। ऑक्सीजन, जीवन रक्षक दवाओं से लेकर अस्पताल में बेड की सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर ऑनलाइन पेमेंट लिए गए, लेकिन मरीजों के हाथ आई सिर्फ मौत। करोड़ों लेकर चंपत हो गए। आगरा के पारस अस्पताल के कारनामें की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। ऑक्सीजन की आशंकित कमी के मद्देनजर डॉक्टर का यह फैसला कि कितने लोग मौत के करीब हैं, इसके लिए 5 मिनट के लिए ऑक्सीजन की सप्लाई ही बंद कर दी गई। यानि 22 लोग तुरंत नीले पड़ गए और अगले कुछ घंटों में उनकी मौत हो गई। कितना पीड़ादायक है किसी अस्पताल और डॉक्टर का ऐसा काम! डॉक्टर को तो भगवान माना जाता है। मगर यहां कुछ मामलों में तो यह यमराज साबित हुए।

आखिर शासन-प्रशासन होता किस लिए है? कहीं कोई सुनवाई नहीं! इस पूरे दौर में सामान्य आदमी तो मारा ही गया और वह तो साधारण सूखा-बाढ़, मलेरिया श, चेचक में भी भगवान का प्यारा होता रहता है, बड़े-बड़े रईस, राजनेता कारपोरेट वर्ल्ड के सर्वेसर्वा सबसे महंगे अस्पतालों में जाकर भी नहीं बच पाए। फिर एक जरूरी सबक है कि अगर शासन प्रशासन का तंत्र भरभराकर गिरता है, तो उसके मलबे में अमीर-गरीब सभी समान रूप से दबते हैं।

लेकिन दुखों का अंत यहीं तक नहीं है। मौत के बाद प्रमाण पत्र लेना भी वैसा ही मुश्किल साबित हुआ जैसा श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी उपन्यास में लंगड़ को अपनी जमीन के कागज लेने के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं। अस्पताल में मुश्किल से जगह इस आधार पर मिली कि कोरोना पॉजिटिव है, लेकिन मौत के बाद उसे सर्टिफिकेट हार्ट अटैक, सांस की बीमारी का दिया गया। क्या डॉक्टर अस्पताल और वहां काम करने वाले, जिन्हें दुनिया देवदूतों की तरह देखती है, वह भी इतने निर्मम हो सकते हैं?

निश्चित रूप से फ्रंट पर लड़ रहे हर स्तर के चिकित्साकर्मियों ने जान की बाजी लगा दी, लेकिन व्यवस्था की चूक भी कम नहीं रही। राजनेताओं, गुरुद्वारों के पास ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाओं के स्टाक थे, अस्पतालों में नहीं। जो संसाधन थे उनका भी सही इस्तेमाल नहीं हो पाया।

दिल्ली के स्कूलों में हजारों टन अनाज बिना बांटे ही सड़ गया।अस्पतालों में लाखों के बिल बनाने के किस्से तो दशकों से हैं, लेकिन टीका लगाने के मोर्चे पर जो भ्रष्टाचार सामने आया वह भी आंख खोलने वाला साबित हुआ। मुंबई के एक गिरोह ने अस्पतालों से सांठगांठ करके लगभग 2000 लोगों को जो टीका लगाया वह नकली था। क्या समाज, सरकार की रग-रग में इतनी सड़ांध पैदा हो चुकी है?

केवल डॉक्टर, अस्पताल पर उंगली उठाने से काम नहीं चलेगा, उनको क्या कहें जिनके अंतिम संस्कार के लिए उनका कोई नजदीकी भी सामने नहीं आया! उनका संस्कार तो किया गया, लेकिन ऐसे लोगों के कफन, कपड़े अगले दिन बाजार में बिकते नजर आए। महामारी से ग्रसित ऐसे कपड़ों ने कितने लोगों को संक्रमित किया होगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। ऐसे तथ्य तो हजारों हैं जब पीपीई किट, ग्लब्स, मास्क नष्ट करने के बजाए फिर से इस्तेमाल किए जा रहे थे।

सामाजिक गिरावट की दास्तां भी उतनी ही दुखी करने वाली है। इस बीमारी की सुनते ही न केवल पड़ोसियों ने दरवाजे बंद कर लिए, अपने सगे-संबंधियों में ने भी दुत्कार दिया। दिल्ली में अस्पताल से लौटी मां को उसके बहू-बेटे ने घर में नहीं घुसने दिया। कई बेटों ने मां-बाप को बीमारी की हालत में घर से निकाल दिया और वे सड़कों पर मृत पाए गए।

ग्रेटर नोएडा में डॉक्टर ने मरीज के संबंधी को मास्क लगाने को कहा, तो उसने डॉक्टर पर ही गोली चला दी। दिल्ली में एक युवा जोड़े को जब पुलिस वाले ने मास्क पहनने की लिए समझाना चाहा, तो महिला के तेवर देखने लायक थे। वह इस दंभ में डूबी हुई थी कि उसने यूपीएससी की मुख्य परीक्षा पास कर ली है और अब उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्या हमारा समाज अफसर बनने से पहले ही इतना क्रूर, निरंकुश, घमंडी, असामाजिक बना देता है? इसके भी कई उदाहरण देखने को मिले।

त्रिपुरा के डीएम साहब ने पूर्व स्वीकृत एक शादी समारोह में जाकर विवाहित जोड़े समेत सभी रिश्तेदारों पर डंडे बरसाए। कैमरे के सामने पंडित को जानबूझकर मारा, जिसका कोई कसूर नहीं था। लेकिन अफसोस दिल्ली में बैठे कुछ कथित प्रगतिशील जातिवादियों ने जाति को सामने रखकर उसके कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिश की। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे ही आईपीएस अफसर ने सरेआम बच्चे की पिटाई कर दी, जो अपने पिता के लिए पड़ोस के मेडिकल स्टोर से दवा लेने जा रहा था।

सामाजिक अनैतिकताएं दोनों तरफ उतनी ही हैं। भोपाल से रेलगाड़ी पकड़कर जोधपुर एक शादी समारोह में पहुंची आधुनिक लिबास की एक लड़की सरेआम पुलिस व्यवस्था को चुनौती दे रही थी कि मैंने कोविड का टेस्ट न कराया है, और न कराऊंगी। आखिर समाज के हर स्तर पर ऐसा मनुष्य कैसे बनाया जा रहा है? धर्म-तीर्थ, मंदिर-मस्जिद की नैतिक शिक्षाएं ऐसी आपदा के समय कहां गायब हो जाती हैं? यह सब समाज में गहरे पैठ चुकी भयंकर बीमारी का संकेत हैं। भविष्य की शिक्षा में इन सबको शामिल करके एक नए समाज को गढ़ने की आवश्यकता है।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ। उत्तराखंड में आई विभीषिका के समय ऐसे वीडियो सामने आए थे, जब मृत महिलाओं की उंगलियां काटकर गहने निकाले गए। बिहार में कोशी की बाढ़ के समय दस रुपये का बिस्कुट सरेआम 100-200 रुपये में बेचा जा रहा था और नदी पार कराने के लिए परेशान लोगों से 5-5 हजार रुपये वसूल किए गए।

निश्चित रूप से ऐसे भले कल्याणी लोग भी देश के हर कोने में सामने आए, जिन्होंने सब कुछ दांव पर लगाकर लोगों की जान बचाने की कोशिश की। दुनिया भर के देशों ने भी अपनी हैसियत से भारत के लिए मदद उपलब्ध कराई, लेकिन हमारे समाज की अनैतिकताओं के घाव इतने गहरे हैं कि उन्हें भूलना आसान नहीं है। हम सबको ऐसे कदम उठाने होंगे जो ऐसी प्रलयगत महामारी में आपसी मदद के लिए खड़े हो सके। केवल सत्ता या शासकों की तरफ देखने से काम नहीं चलेगा!

लेखक प्रेमपाल शर्मा, मो.नं. 9971399046, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।

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