नामर्दगी की निशानी है अन्याय को खामोशी से बर्दाश्त कर लेना! अन्याय किसी के साथ हो, मर्द खामोश नहीं रहते!!
रेल में सीधी भर्ती और भ्रष्टाचार ही खत्म करना है, तो सबसे पहले स्पोर्ट्स, कल्चरल, स्काउट्स कोटा तथा आरआरसी को खत्म किया जाए, सिर्फ टीएडीके ही क्यों?
सुरेश त्रिपाठी
इतिहास हमेशा तुगलकों और बुरे काम करने वालों को ही याद रखता है। अतः यह तो तय है कि मोहम्मद-बिन-पिगो उर्फ रेलमंत्री पीयूष गोयल और मोहम्मद-बिन-विकु उर्फ चेयरमैन एवं सीईओ/रेलवे विनोद कुमार यादव का नाम इतिहास में भारतीय रेल को सबसे ज्यादा बरबाद करने वाली सूची में शीर्ष पर दर्ज होगा। इनके साथ ही सभी वर्तमान बोर्ड मेंबर, महाप्रबंधक, विभाग प्रमुख और मंडल रेल प्रबंधक भी इस सूची का हिस्सा होंगे, जो आज अपने जूनियर्स के अभिभावक की भूमिका में हैं।
जहां एक तरफ देश की जनता और सरकारी कर्मचारियों की सुविधाओं में एक-एक करके धीरे-धीरे कटौती हो रही है, वहीं दूसरी तरफ सांसदों, विधायकों के वेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। जनता और कार्मिकों का नेतृत्व इसके लिए जिम्मेदार है। नेतृत्व विहीनता सक्षम फौज को भी नपुंसक बना देती है, जो आज जनता और कार्मिकों में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। अन्याय को खामोशी से बर्दाश्त कर लेना नामर्दगी की निशानी मानी जाती है, और यह बात रेल संगठनों के नेताओं और पदाधिकारियों पर सटीक तौर पर फिट बैठती है।
ये चुके हुए लोग, जो रेलवे का स्टेक होल्डर होने का दावा करते नहीं अघाते, अपने निजी स्वार्थ और पद पर बने रहने की लालसा में महाभ्रष्ट और दलाल पदाधिकारियों के संरक्षक हैं। इसीलिए चुपचाप रेल को बरबाद होते देख रहे हैं। वरना जो लोग बोनस जैसी क्षुद्र भीख के मुद्दे पर रेल का चक्का जाम करने की छद्म धमकी देते हैं, वह सरकारी कर्मचारियों के निवृत्त जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले एनपीएस जैसे मुद्दे पर 16 साल से चुप हैं और लगातार हो रही रेल की बरबादी पर बेशर्म लफ्फाजी कर रहे हैं, ऐसा कैसे हो रहा है?
ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि रेल का श्रमिक नेतृत्व सरकार, मंत्री और रेल प्रशासन का “बंधक” बन गया है। अपनी सुविधाएं छिन जाने के डर से ब्लैकमेलिंग का शिकार हो गया है। वरना जिनको अब खोने को कुछ नहीं बचा, वह किस भय से चुप हैं? वह इसलिए चुप हैं, क्योंकि आरआरसी भर्ती सहित स्पोर्ट्स, कल्चरल और स्काउट्स कोटे तथा उनके कार्यालयों में कार्यरत निजी लोगों तथा ऐक्ट अप्रेंटिस की रेल में भर्ती पर उनके पदाधिकारियों को कथित दलाली मिलती है। और अब यही बात टीएडीके पर भी लागू होगी, और इन्हें अधिकारियों के आवासों में अंदर तक घुसने का अवसर प्राप्त होगा, क्योंकि कार्यरत रेलकर्मियों को ही टीएडीके में लेने का फरमान बोर्ड से जारी किया गया है, जिसमें निश्चित तौर पर इनकी मूक सहमति रही होगी।
पिछले दो दिनों से टीएडीके के बहाने तमाम जूनियर से लेकर चैयरमैन तक के स्तर से रिटायर हुए लोगों से रेलवे के वर्तमान और भविष्य की बात की, तो एक चीज जो बहुत स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई, वह थी कि उनके भीतर रेल को ढ़हते हुए देखने की टीस और भविष्य को लेकर पूरी तरह हताशा और निराशा का वातावरण। उनकी इस टीस और हताशा में मंत्री तथा सीआरबी सहित रेल के श्रमिक नेतृत्व के प्रति हिकारत के स्तर तक उनके अंदर भर चुकी नाराजगी भी समाहित थी।
सीआरबी और सभी बोर्ड मेंबर्स सहित रेल के तथाकथित स्टेक होल्डर श्रमिक नेतृत्व को इस बात का अहसास होना चाहिए कि–
“हर बात ‘खामोशी’ से मान लेना,
यह भी एक अंदाज होता है, नाराजगी का!”
मेरे पूछने पर कि आप लोग भी विरोध न करके मंत्री के सभी तुगलकी फरमानों को खामोशी से मान ले रहे हैं, इसलिए मंत्री और सीआरबी को लगता है कि या तो अधिकांश को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, या फिर उनकी सहमति है!
इस पर एक बड़े और वरिष्ठ रेल अधिकारी ने इसके लिए एफआरओए को दोषी ठहराया, और कहा कि “सभी ऑफिसर्स की भावनाओं को वह एकसूत्र में पिरोकर असहमति की एक छोटी सी भी सांकेतिक संगठित विरोध की पहल एफआरओए के लोगों ने जानबूझकर नहीं की, जबकि रेल के जूनियर से लेकर वरिष्ठतम स्तर तक सभी अधिकारी बस उनके एक इशारे की प्रतीक्षा कर रहे थे।”
उन्होंने कहा कि “कई जगह यूनियनों के पदाधिकारी भी ऑफिसर्स का साथ देने को तैयार बैठे थे, लेकिन दिल्ली में जमे एफआरओए के पदाधिकारी उल्टे फील्ड के अफसरों को यह कहकर डराने लगे कि जो भी सामने आएगा, विरोध करेगा, उसका ट्रांसफर हो जाएगा या नुकसान हो जाएगा। इसके बावजूद भी जब फील्ड के अफसर प्रोटेस्ट की जिद्द पर अड़े रहे, तो एफआरओए के लोगों ने मुंह में स्वार्थ की गुगली डालकर चुप्पी साध ली। अब पत्र लिखने के अलावा फील्ड ऑफिसर्स के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था।”
यह सही है कि सभी रेल अधिकारियों में एफआरओए के पदाधिकारियों के लिए काफी आक्रोश है। यहां तक कि चेनई से लेकर जम्मू और लमडिंग तक में पोस्टेड जूनियर अधिकारियों को भी एफआरओए के दिल्ली में बैठे पदाधिकारियों उर्फ “जयचंंदों” का नाम कंठस्थ है और जोनल रेलों में भी जो सीनियर अधिकारी “जयचंद” की भूमिका में हैं, उनका भी वह बड़े अदब से (बिना अपशब्द के) उल्लेख करते हैं।
टीएडीके को लेकर कई जूनियर और सीनियर स्केल अधिकारियों में जहां भयंकर आक्रोश देखने को मिला, वहीं उनके अंदर उतनी ही निराशा और ठगे जाने का अहसास भी परिलक्षित हुआ। कुछ कार्मिक अधिकारियों का कहना है कि मूलतः यह पत्र सिर्फ यही क्लीयर करने को दिया गया है कि टीएडीके में सीधी भर्ती समाप्त कर दी गई है, क्योंकि जो दो रास्ते इसके एवज में दिए गए हैं, वे दोनों ही कुल-मिलाकर “अनवर्केबल” हैं।
इससे सबसे ज्यादा मार उन जूनियर ऑफिसर्स को पड़ी है, जिन्होंने रेलवे की इस सुविधा को भी ध्यान में रखकर रेलवे को अपनी सर्विस के चयन में विकल्प के तौर पर ऊपर रखा था और सैंकड़ों नए जेएजी अधिकारी, जो पहली बार इस सुविधा का उपयोग करने की पात्रता पाए थे और दूसरे वे अधिकारी जिनके फ्रेश टीएडीके की भर्ती प्रक्रिया में थी और उनका पुराना टीएडीके कैटेगरी चेंज के बाद दूसरे डिपार्टमेंट में अपना योगदान दे चुका था।
इस प्रकरण में सबसे दुःखद बात यह रही कि यह काम ऐसे समय में किया गया, जब पूरी दुनिया कोरोना माहमारी से लड़ रही है और आदमी के लिए सहानुभूति, सहायता, संवेदना की सबसे ज्यादा जरूरत थी।
अगर कोरोना का कहर बीत जाने के बाद यह काम किया गया होता, तो भी शायद अधिकारियों और उनके परिवार के लोगों के मन में मंत्री एवं सीआरबी के प्रति इतनी घृणा और कटुता पैदा नहीं होती, जितनी आज है। खास तौर पर तब जब कोरोना से मरने वाले रेल अधिकारियों और कर्मचारियों का आंकड़ा हजार से ऊपर जा चुका है तथा हर दूसरे रेल अधिकारी और कर्मचारी के परिवार का कोई न कोई सदस्य इसकी चपेट में है।
मैंने तकरीबन सभी जोनों और प्रोडक्शन यूनिट्स के जूनियर स्केल से लेकर वरिष्ठतम स्केल के अधिकारियों से बात की, और पूरे देश से रेल परिवार के सैकड़ों कर्मचारियों और अधिकारियों के परिवारों के सदस्य भी मुझसे सीधे जुड़े हुए हैं, जो कि मेरे आकलन और सूचना तंत्र की सबसे विश्वसनीय कड़ी भी हैं, उनसे भी मिले फीडबैक के आधार पर मुझे बरबस ही कैफ भोपाली की एक लाइन बेसाख्ता याद आ गई, जो पीयूष गोयल और विनोद यादव पर सटीक बैठती है–
कबीले वालों के दिल जोड़िए मिरे सरदार !
सरों को काटकर सरदारियां नहीं चला करतीं !!
अब हर रेल कर्मचारी और अधिकारी बेमन से और बिना किसी उत्साह के काम कर रहा है, ठीक वैसे ही, जैसे श्मशान में चिता पर लकड़ियां लगाने वाला करता है। इन लोगों के अंदर भर चुके आक्रोश को देखकर आश्चर्य होता है, और यह तय है कि इस आक्रोश का बम तो जरूर फटेगा, लेकिन कब फटेगा, यह शायद अब समय ही बताएगा।
परंतु यह भी सही है कि अब हर अधिकारी पांच बजे के बाद ड्यूटी न करने का मन बना रहा है, यानि वे सिर्फ़ ऑफिस ऑवर्स में ही काम करेंगे, जैसा कि आसनसोल मंडल, पूर्व रेलवे के अधिकारियों ने लिखा है। यह बात कई अधिकारियों की पत्नियों ने ‘रेल समाचार’ को फोन करके कही है कि उनके हस्बैंड अब ऑफिस ऑवर के बाद न तो डिरेलमेंट अटेंड करने जाएंगे, न ही शनिवार-रविवार को ऑफिस का कोई काम करेंगे। अपना फोन भी बंद रखेंगे, ऑफिस ऑवर के बाद और छुट्टियों में पूरा समय अपने परिवार को देंगे। उन्होंने सीनियर अधिकारियों से आग्रह किया है कि ऑफिस ऑवर के बाद वे कृपया उनके हस्बैंड को किसी बात के लिए कॉल न करें। उन्होंने कहा कि ये कैसा मंत्री और सीआरबी है, जो उन बेचारे गरीब लोगों के बारे में कुछ नहीं सोचा, जो अधिकारियों के यहां तीन-चार साल से मुफ्त में इस आशा से काम कर रहे हैं कि उन्हें एक अदद स्थाई जॉब मिल जाएगा। अब वे ही इसका उपाय बताएं कि इनका क्या होगा!
भारतीय रेल देश की लाइफ लाइन थी, जो अपने आप में इतनी विशाल थी कि इसमें देश दिखता था। पूरे देश को जोड़ने में, खड़ा करने में, आगे बढ़ाने में, सरहद, समुद्र, हवा तक देश की सेवा करने में भारतीय रेल ने आजतक नल-नील की भूमिका निभाई है।
130 करोड़ के देश में सबसे बड़ी संख्या में सीधे रोजगार देकर और उनसे जुड़े करोड़ों लोगों को सहारा और रोजी-रोटी देकर भारतीय रेल ने उन्हें पाला-पोसा है, जिसे सभी तरह के “रोजगार की जननी” कहना शायद कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इसने देश के सभी उद्योगों और उद्यमों को ही नहीं खड़ा किया और पाला है, बल्कि उनमें काम करने वाले लोग भी मिल सकें, इसे भी सुगम किया है, जिससे टाटा, भिलाई, भेल, हरिद्वार में काम करने के लिए सुदूर दक्षिण के राज्यों से लोग बिना किसी मुश्किल के सुलभ हो सके और उसी तरह से बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, असम आदि से लोग दक्षिण जाकर रोजगार की संभावनाओं को तलाश सके और वहां बस सके हैं।
रेल से जुड़े सैकड़ों अनुसंगी उद्यमों के लिए रेल ने लाखों करोड़ों की संख्या में रोजगार पैदा किया। रेल के इस रोजगार देने वाले पक्ष को यह निजाम शायद भूल चुका है और वह भी 130 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में, यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि अगर इस निजाम को अपनी यह जिम्मेदारी याद होती, तो वे रेल की यह दुर्गति नहीं कर रहे होते, और न ही रेलकर्मियों एवं अधिकारियों की सुविधाएं छीन रहे होते, न ही बीमार कर्मचारियों को निजी अस्पतालों में रेफर नहीं करने के तुगलकी आईडिया इनके दिमाग में आते!
कैफ भोपाली का यह मशहूर शे’र भारतीय रेल को समर्पित है –
तेरी लटों में सो लेते थे बे-घर आशिक, बे-घर लोग!
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने !!
पता नहीं इनको ऐसी दुर्बुद्धि स्वयं आती है या कोई देता है? वह भी तब, जब लोग हर तरह से तबाह हैं, और कोरोना महामारी के चलते मौत के साये में जी रहें हैं।
भारतीय रेल जैसे बड़े आर्गेनाइजेशन में साल में 1000 टीएडीके की भर्ती, जो अधिकारियों के लिए रेलमंत्री, सीआरबी और बोर्ड मेंबर्स जैसी विलासिता नहीं, बल्कि जरूरत है, को रोकना क्षुद्र एवं अमानवीय मानसिकता का ही परिचायक है।
दिल्ली में एक बड़े यूनियन नेता ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि “अगर रेल भवन में बैठे बड़े अधिकारी और एफआरओए वाले मंत्री को सिर्फ इतना ही कह दें कि – “आप और सीआरबी भी अपने बंगले पर रेल का एक भी आदमी नहीं रखेंगे और पूर्व मंत्रियों के यहां भी काम करने वाले रेल कर्मचारियों को फौरन वापस बुलाया जाए, नहीं तो विरोध के लिए तैयार रहें, तभी इन्हें शायद कुछ समझ में आएगा।”
उन्होंने यह भी कहा कि अगर मंत्री और सीआरबी अपनी पत्नियों से भी मशविरा किए होते, तब भी शायद वे ऐसा अमानवीय और अनुचित निर्णय नहीं लेते। उन्होंने अधिकारियों की कायरतापूर्ण सहनशीलता पर हंसते हुए कहा कि, लेकिन इन रीढ़विहीन अफसरों को समझाए कौन। उनके शब्दों में, रेल के रिटायरमेंट के कगार पर बैठे अधिकारियों और एफआरओए के पदाधिकारियों पर नाजिर वाहिद की ये लाइनें बड़ी सटीक बैठती हैं और सीआरबी पर भी – “मुझसे जियादा कौन तमाशा देख सकेगा/गांधी जी के तीनों बंदर मेरे अंदर!!”
उनका कहना था कि समग्रता में सीधे बहाली के प्रावधान पर मंत्री अगर विचार किए होते, तो केवल टीएडीके पर ही नहीं गाज गिरती, क्योंकि हम लोग यूनियन के होते हुए भी इस बात को मानते हैं कि टीएडीके से जो स्टाफ मिलता है, वह ज्यादा अनुशासित और मेहनती होता है।
उनका कहना था कि हालांकि यह भी सही है कि कुछेक मामलों में पैसा चलता है और शोषण भी होता है, लेकिन इसे जनरलाइज करना बहुत ही गलत है, और यह बहुत होगा, तो ज्यादा से ज्यादा पांच साल तक, जब तक वह अधिकारी के पास है, लेकिन एक जरूरतमंद को रोजगार मिल जाता है, और रेल को एक अनुशासित, मेहनती तथा बेहतर काम करने वाला कामगार।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत है कि सीधी भर्ती से होने वाले स्पोर्ट्स, कल्चरल, स्काउट्स आदि कोटे में दस गुना ज्यादा भ्रष्टाचार होता है और इसके जरिए आए लोग रेल पर लायबिलिटी (बोझ) ही होते हैं, जो रेल का काम कम, दोहन ज्यादा करते हैं। वैसे देखा जाए तो भ्रष्टाचार और मैनीपुलेशन आरआरबी और आरआरसी में क्या कम है?
एक अधिकारी का कहना था कि अगर मंत्री को रेल में सीधी भर्ती ही रोकनी थी, तो सब रोकते, सिर्फ टीएडीके ही क्यों? और तो और, यदि रेलमंत्री बहुत हीरो बनते हैं, उनमें बहुत हिम्मत और साहस है, तो आरपीएफ की असंवैधानिक सिक्योरिटी एड की व्यवस्था ही रोक कर दिखा देते!
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में नई दिल्ली स्टेशन पर स्पोर्ट्स कोटा से बहाल कर्मचारियों के एक गैंग ने पूरब से आने वाली एक ट्रेन में मजदूरों को पैसे के लिए मार-मारकर अधमरा कर दिया। हर दिन देश के हर कोने में होने वाली इस तरह की घटनाओं की तरह ही इसका भी पता नहीं चलता, लेकिन इनका दुर्भाग्य था कि किसी ने इस घटना का वीडियो बनाकर ट्विट कर दिया। तब इनकी कारस्तानी प्रशासन के संज्ञान में आई और सीनियर डीसीएम/दिल्ली को इन्हें सस्पेंड करना पड़ा।
दिल्ली मंडल के एक एडीआरएम ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इसके बाद इस “स्पोर्ट्स कोटा गैंग” ने कई सांसदों और बड़े अधिकारियों से इतना प्रेशर बनाया कि जिससे अच्छे से अच्छे अधिकारी भी टूट जाएं और पैसे का बड़ा प्रलोभन दिया, वह अलग।
उक्त अधिकारी ने यह भी बताया कि किसी भी डिपार्टमेंट में स्पोर्ट्स कोटा वाले हों, या तो साल में अधिकांश समय खेल के नाम पर काम पर नहीं होते हैं, कामचोरी करते हैं, और जब कुछ दिन ये काम पर होते भी हैं, तो इनसे कोई काम कराकर देख ले!
उनका कहना था कि इन स्पोर्ट्स कोटा स्टॉफ को किसी छोटे स्टेशन पर ड्यूटी दो, तो काम करते कोई नजर नहीं आएगा। लेकिन नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली आदि जैसे बड़े स्टेशनों पर, जिनमें सुबह-सुबह पूरब से गाड़ियां आती हैं, बिना ड्यूटी के सुबह-सुबह 4 बजे से 8/8.30 बजे तक स्टेशन पर वसूली करने के लिए खड़े मिलेंगे और मास्क के नाम पर या कोविड सर्टिफिकेट न होने के नाम पर इनकी वसूली होती है। पैसा न देने पर या विरोध करने पर यात्री को मार खाना निश्चित है। इसमें आरपीएफ वाले भी इनके साथ होते हैं, लेकिन सादे कपड़ों में।
उन्होंने कहा कि, इसलिए अगर कोई कंप्लेंट या केस टीएडीके की सीधी भर्ती खत्म करने का कारण हो सकता है, तो दिल्ली की उक्त ज्वलंत घटना भी स्पोर्ट्स, कल्चरल और स्काउट्स आदि की सीधी भर्ती खत्म करने का भी जायज कारण है। लेकिन यह मंत्री की कुंठा और ओछापन ही है कि उन्हें जो सॉफ्ट टारगेट मिलता है, वह सिर्फ उसी को अपना शिकार बनाते हैं।
बोर्ड के एक अधिकारी ने बताया कि “चेयरमैन एवं सीईओ/रेलवे वी. के. यादव ने अपना बंगला प्यून (टीएडीके) अभी जुलाई में नियुक्त किया है। इसीलिए “बीपी रिव्यू पालिसी” की तारीख 1 अगस्त के बाद हुए अपॉइंटमेंट की दी गई है।” उन्होंने कहा कि “सीसीईओ को पता था, इसलिए उन्होंने पहले ही अपना बंगला प्यून नियुक्त कर लिया। उनमें यदि थोड़ी सी भी नैतिकता बची होती, तो या तो वे यह बंगला प्यून नहीं रखते, या फिर मंत्री के सामने अड़ जाते, क्योंकि इस बंगला प्यून की सेवा का उन्होंने अपनी पूरी सेवा तक भरपूर उपयोग किया है, रेल में रेगुलर न रहते हुए भी। हालांकि वह सदैव अक्षम थे, और यदि अब वह इसे भी जस्टिफाई करने में अक्षम हैं, तो उन्होंने आज तक जितने बंगला प्यून रखे या उन्हें मिले, उन सबके वेतन और सुविधा पर आया खर्च उन्हें अब सरकार को वापस कर देना चाहिए।”
उनका यह भी कहना था कि “इसके अलावा अपने घमंड में चूर मंत्री को न तो रेल से मतलब है, न ही मानवीयता से, वह सिर्फ़ वही काम कर रहे हैं, जिससे उनके अहंकार को संतुष्टि मिले और जब उन्हें अकेले तीन-तीन, चार-चार लोगों का रोजगार (मंत्रालय) मिल जाए, तब तो फिर वही मनमानी करेंगे, जो उनके अहं को तुष्ट करे, भले ही उनके कारण चार लोग या चार हजार, बेरोजगार/वंचित रह जाएं, उनकी बला से!”
एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ रेल अधिकारी का कहना था कि यह सही है कि पीयूष गोयल और विनोद कुमार यादव अपने जीवन के स्वर्णिम काल में चल रहें है और ग्रहों की कृपा से वे अपनी किस्मत की बुलंदियों पर हैं। अब या तो वे रावण से कुछ सीख लें, या फिर राम से, यह उनके ऊपर है, क्योंकि – “शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है/ जिस डाल पे बैठे हो, वो टूट भी सकती है।” -बशीर बद्र
पीयूष गोयल और विनोद कुमार यादव को सादर समर्पित
न इतराओ इतना, बुलंदियों को छूकर,
वक्त के सिकंदर, पहले भी कई हुए हैं!
जहां होते थे कभी शहंशाहों के महल,
देखे हैं वहीं, अब उनके मकबरे बने हुए!!
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