October 12, 2020

स्टेपिंग-अप का मामला: अपराध की श्रेणी में आता है जिम्मेदार पद पर बैठे कार्मिक अधिकारियों का हठ

Central Railway Head Quarters, Chhatrapati Shivaji Maharaj Terminus, Mumbai.

कैट-हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट के फाइनल निर्णय पर अमल करने के रेलवे बोर्ड के आदेश के बावजूद पुनः हाईकोर्ट चले गए मध्य रेलवे कार्मिक विभाग के विरुद्ध क्या कार्रवाई करेगा रेल प्रशासन?

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल का कार्मिक विभाग और इसके कार्मिक अधिकारी, खासतौर पर मध्य रेलवे के, ऐसा लगता है कि ये सब सर्वोच्च न्यायालय तथा भारतीय संविधान से भी ऊपर हो गए हैं! जो केस कैट, हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में 11 बार फाइनल हो चुका हो, और जिसमें हर बार रेल प्रशासन मुंह की खा चुका हो। अंततः रेलवे बोर्ड द्वारा उक्त विषय पर सर्वोच्च अदालत का फैसला लागू करने के लिए सभी जोनल रेलों को निर्देशित किया जा चुका हो, तथापि कार्मिक विभाग उसमें भी मीन-मेख निकालकर पुनः अदालत में जाकर मामले को लटका दे, तो यही समझा जाएगा कि ये वास्तव में सारी व्यवस्था से ऊपर हैं!

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद लेबर फेडरेशनों के लगातार और बार-बार दबाव के चलते रेलवे बोर्ड ने पत्र संख्या ई(पीएंडए)II/2008/आरएस/37, (आरबीई 07/2020) दि. 27/01/2020 जारी करके सभी जोनल रेलों के जीएम्स को कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए स्पष्ट निर्देश दिया था कि सभी लोको निरीक्षकों की स्टेपिंग-अप यथाशीघ्र लागू कर दी जाए।

असंवैधानिक है जिम्मेदार पद पर बैठे अधिकारी का हठ

परंतु ऐसा लगता है कि मध्य रेल का कार्मिक विभाग अपने सामने रेलवे बोर्ड या सुप्रीम कोर्ट किसी को भी कुछ नहीं समझता। वह शायद इस बात से अनभिज्ञ है कि हठ, बालक या अज्ञानी व्यक्ति को ही शोभा देता है। जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति का हठ करना असंवैधानिक तो है ही, गंभीर अपराध की श्रेणी में भी आता है।

ये अधिकारी अपनी अहंमन्यता के कारण अथवा अति-सयानेपन के मुगालते में शायद यह भूल जाते हैं कि इन नियमों-निर्देशों को लागू करना उनका संवैधानिक दायित्व है। रेलवे एक केंद्रीय सरकारी महकमा है और कार्मिक विभाग या उसके मुखिया पीसीपीओ भी उसके नौकर ही हैं। रेलवे किसी एक व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत जागीर नहीं है।

यह मुद्दा लोको इंस्पेक्टरों के स्टेपिंग-अप का है। पिछले कई वर्षों से लोको निरीक्षकों ने अपने साथ हो रही नाइंसाफी के विरोध में रेलवे के हर दरवाजे को खटखटाया और निराश होकर कैट में न्याय की गुहार लगाई। अनेकों बार कैट ने स्पष्ट तौर पर लोको निरीक्षकों के पक्ष में निर्णय दिया। परंतु रेलवे के तथाकथित विवेकवान कार्मिक अधिकारी – जिनकी गलती, नासमझी या मनमानी से ही यह सब गड़बड़झाला हो रहा था – मानने को तैयार नहीं हुए, और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय तथा रेलवे बोर्ड के आदेश को ताक पर रखकर हाई कोर्ट चले गए।

12-14 साल सुप्रीम कोर्ट में फूंकते रहे पब्लिक का पैसा

तथापि जब हाई कोर्ट में भी इनका मुंह काला हो गया, तो बड़ी बेशर्मी से रेलवे का कबाड़ा करने की कसम खाकर बैठे ये कार्मिक अधिकारी, सर्वोच्च न्यायालय में रेलवे (पब्लिक) का पैसा को फूंकते रहे। फेडरेशनों के बार-बार समझाने के बावजूद पिछले 12-14 सालों में इन कुछ सिरफिरे कार्मिक अधिकारियों की जिद के चलते रेलवे का जितना पैसा और अधिकारियों का समय बर्बाद हुआ, उससे काफी कम पैसे में स्टेपिंग-अप देकर इसका नीति पूर्ण हल निकाला जा सकता था।

अक्ल के दिवालिया

यह वही अक्ल के दिवालिया अधिकारी हैं जो स्टाफ की बात आने पर यह मानकर चलते हैं कि आने वाली यंग जनरेशन ज्यादा होशियार होती है (जबकि खुद इनकी अक्ल को जंग लग चुकी होती है) और जूनियर मोस्ट लोको पायलट गुड्स को सीधे-सीधे लोको इंस्पेक्टर बनाने में इनको तनिक भी शर्म नहीं आती। यदि इनको यह पूछा जाए कि आईआरएसईई से आए किसी युवा एईई को सीधे सीईई क्यों नहीं बना देते, तब ये कोई वाजिब जवाब न देकर बगलें झांकने लगते हैं!

इसी तरह आईआरपीएस में सेलेक्ट हुए किसी युवा एपीओ को सीधे सीपीओ क्यों नहीं बना देते? क्या वे होशियार नहीं होते? या यह नेक्स्ट जनरेशन नहीं हैं? अधिकारियों की स्टाफ के साथ कुछ सोच और स्वयं के साथ कुछ सोच ही अनैतिक आचरण और विभागीय कदाचार तथा प्रशासनिक अस्थिरता का नतीजा है। इसी के फलस्वरूप सामाजिक अनाचार भी फैलता है।

11 बार अदालत में मुंह हुआ काला

बहरहाल, लोको इंस्पेक्टरों के स्टेपिंग-अप के मामले में 11 बार सर्वोच्च न्यायालय से मुंह काला होने के बाद रेल प्रशासन (रेलवे बोर्ड) ने हार मानकर 27 जनवरी 2020 को उपरोक्त पत्र द्वारा सभी जोनल रेलों को स्पष्ट तौर पर निर्देशित किया था कि लोको निरीक्षकों को स्टेपिंग-अप दे दिया जाए। फिर भी पीसीपीओ/म.रे. के इशारे पर, मध्य रेलवे के कुछ मंडल कार्मिक अधिकारी पब्लिक का पैसा और समय बरबाद करने के लिए फिर हाईकोर्ट में याचिका दायर कर चुके हैं।

इस पर कुछ एलआई का कहना है कि “वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि वहां भी उन्हें मुंह की ही खानी है। तथापि कर्मचारियों से ज्यादा हो चुके इन इफरात अधिकारियों को कोई उपयुक्त काम न होने से इनके खाली दिमाग में शैतानी पैदा होती रहती है और रेलवे का पैसा फूंकने तथा अपना टाइमपास करने का ऐसा ही साधन यह अधिकारी ढूंढते रहते हैं।” उनका यह भी कहना था कि “अब समय आ गया है कि इस तरह के बेहया, समाज तथा रेलद्रोही तथा न्यायालय की अवमानना करने वाले निकम्मे और विवेकाधीन निर्णय लेने में अक्षम अफसरों को घर भेज दिया जाए, जिससे रेलवे का काम शांतिपूर्ण तथा नीतिगत तरीके से चल सके।”

स्टेपिंग-अप का सीधा फार्मूला

रेलवे बोर्ड के स्पष्ट निर्देश हैं कि जहां कहीं भी वेतनमान निर्धारण (पे-फिक्सेशन) में अनियमितता हुई हो कि “जूनियर स्टाफ अपने सीनियर से किसी भी स्थिति या परिस्थिति में अधिक वेतन नहीं ले सकता।” अगर ऐसी परिस्थिति कहीं पैदा हो ही गई है और जूनियर व्यक्ति को ज्यादा वेतन दिया जा रहा है, तो सीनियर व्यक्ति को उसकी बराबरी पर ले आया जाता है। इसी का नामकरण “स्टेपिंग-अप” किया गया है।

कार्मिक विभाग की हीलाहवाली और अनुचित प्रयास

जब स्टेपिंग-अप की बात आती है, तो इन महान कार्मिक अधिकारियों द्वारा दुनिया भर के नियम बताए जाने लगते हैं। इस व्यक्ति से इसी व्यक्ति को मिलेगा, अन्य को नहीं मिल सकता। एससी से एससी व्यक्ति को ही मिलेगा। एसटी से केवल एसटी स्टाफ को ही मिलेगा। जनरल से केवल जनरल वाले को मिलेगा। यानि इन मूढ़ों ने यहां भी जाति-बिरादरी के साथ ही जातिवादी आरक्षण को भी अनुचित एवं गैरकानूनी रूप से घुसाने का प्रयास किया है।

इसके साथ ही जो व्यक्ति लोको पायलट गुड्स से सीएलआई बना है, उसकी तुलना पूर्व में लोको पायलट गुड्स से बने सीएलआई से की जाएगी। इसी तरह मोटर मैन से बनने वाले सीएलआई की तुलना मोटरमैन से आए  सीएलआई से ही की जाएगी। जो लोको पायलट मेल से सीएलआई बना हो, उसकी तुलना पूर्व में लोको पायलट मेल से बने सीएलआई से ही की जाएगी।

गुड्स ड्राइवर को बनता है सीधे लोको इंस्पेक्टर

क्या कभी किसी सहायक कार्मिक अधिकारी (एपीओ) को सीधे मुख्य कार्मिक अधिकारी (सीपीओ) बनाया गया है? भारतीय रेल के पूरे 168 साल के इतिहास में जूनियर इंजीनियर (जेई) को चीफ इंजीनियर (सीई) बनाए जाने का भी कोई उदाहरण नहीं मिलेगा, लेकिन गुड्स ड्राइवर को सीधे लोको इंस्पेक्टर सैकड़ों बार बनाया गया है।

यही नहीं, इसके आगे के मोटरमैन या पैसेंजर/मेल ड्राइवर इन सारे स्टेप्स को बाईपास करते हुए एक जूनियर अल्पज्ञ व्यक्ति को रेलवे में बड़ी बेशर्मी के साथ सीधा चीफ लोको इंस्पेक्टर (सीएलआई) बना दिया जाता है। देखने वाली बात यह है कि जो खुद कुछ नहीं जानता, जिसका खुद का ज्ञान सीमित (घुटने में) होता है वह अपने मातहत पैसेंजर/मेल ड्राइवरों/मोटरमैनों को क्या सिखाएगा और क्या बताएगा? ऐसे में स्पेड और हेड ऑन एक्सीडेंट नहीं होंगे, तो क्या होगा! यह अधिकारियों और नीति-निर्माताओं की मूर्खता का दुष्परिणाम है।

इसके अलावा, जब जो व्यक्ति 25-30 साल काम करते, प्रमोशन लेते हुए अपने विषय का सारा अनुभव लेकर लोको इंस्पेक्टर बनता है – जो वास्तविक योग्य लोको इंस्पेक्टर माना जाएगा – उसका वेतनमान यदि उस लोको पायलट गुड्स से सीधे बन गए लोको इंस्पेक्टर से कम है, तब ये कार्मिक अधिकारी कहते हैं- “नहीं-नहीं, जो गुड्स से आया है, उसकी मैचिंग मेल ड्राइवर से आने वाले के साथ नहीं हो सकती।”

कसमसा रहा अनुशासन में बंधा कर्मचारी

“ये अधिकारी इतनी बड़ी मूर्खता इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि अनुशासन में बंधा सरकारी कर्मचारी सीधे जाकर इनकी गर्दन नहीं पकड़ सकता!” खिन्न लहजे में यह कहना है कई लोको इंस्पेक्टर्स का।

उनका कहना है कि “मुंबई मंडल, मध्य रेलवे में वर्तमान में यही हो रहा है। जहां खुद वरिष्ठ मंडल कार्मिक अधिकारी की पत्नी बिना ऑफिस आए, बिना कोई काम किए पिछले करीब एक साल से मुफ्त का वेतन ले रही है। इस बारे में मध्य रेलवे के पूरे कार्मिक विभाग को पता है। उस कार्मिक अधिकारी को भी, जिसके मातहत मध्य रेलवे मुख्यालय में उक्त महिला की बतौर ओएस पदस्थापना है। परंतु अपने लिए इनके रूल्स अलग हैं, जबकि मातहत स्टाफ और अन्य कार्मिकों के लिए अलग!”

अधिकारियों की अहंमन्यता का एक और उदाहरण

एक महिला डीआरएम हैं, जिनको अपनी तो क्या, अपने मातहत ब्रांच अधिकारी के कुकृत्य की भी आलोचना पसंद नहीं है। परंतु वह अपने मातहत डिवीजनल मटीरियल मैनेजर (डीएमएम) से अपने निजी उपयोग के लिए ७० हज़ार का एक सोफा सेट मंगवा लेती हैं, तब उनको शर्म नहीं आती। जबकि कर्मचारी कल्याण के मामलों में उनका तनिक भी कोई ध्यान नहीं रहता। उनके मंडल में कर्मचारी कल्याण और ग्रिवांसेस के सैकड़ों मामले लंबे अर्से से अटके हुए हैं। ऐसे में वह मंडल के कर्मचारियों को क्या मुँह दिखाएंगी?

अतः निष्कर्ष यह है कि रेल अधिकारियों के इस दोहरे मापदंड, मनमानी, कदाचार और भ्रष्टाचार के कारण ही आज रेलवे का बंटाधार हुआ पड़ा है। रेलमंत्री चाहे जितना गुणगान करें, मगर सब जानते हैं कि रेल की अंदरूनी हालत बहुत बिगड़ी हुई और बदहाल है। वह यदि अपने इन अहंमन्य अधिकारियों की मानसिकता को बदलने और इन्हें मानवीय बनाने का प्रयास करते, तो शायद रेल के साथ ही पूरी व्यवस्था और देश का भी ज्यादा भला होता!

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