मेंबर स्टाफ/रे.बो. के मामले में जारी है घमासान

हो रही है सीआरसी की अनुशंसा को दरकिनार करने की तिकड़म

जारी है कार्मिक अधिकारियों के अधिकार को कुचलने की साजिश

एक लेख को मुद्दा बनाकर मामले से ध्यान भटकाने की कोशिश

कार्मिक मंत्री को ज्ञापन देने गए अधिकारियों को किया गया प्रताड़ित

अब तक मेंबर स्टाफ बने अधिकारियों का रहा है कमाल का प्रबंधन

सुरेश त्रिपाठी

रेलवे बोर्ड द्वारा मेंबर स्टाफ की पोस्ट कार्मिक अधिकारियों को नहीं दिए जाने के लिए उच्च स्तर पर भारी तिकड़मबाजी की जा रही है. इस मामले में आरबीएसएस की भी अत्यंत कुटिल भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता. जबकि सीआरबी और रेलमंत्री की संस्तुति के बाद ही कैबिनेट सेक्रेटरी की अध्यक्षता वाली ‘कैडर रिव्यु कमेटी’ ने मेंबर स्टाफ/रे.बो. की पोस्ट आईआरपीएस कैडर को देने की अनुशंसा की है. इस कमेटी में सेक्रेटरी/डीओपीटी, सेक्रेटरी/डीओई, सीआरबी और मेंबर स्टाफ/रे.बो. शामिल थे. इससे पहले रेलवे बोर्ड द्वारा मेंबर स्टाफ की पोस्ट को एन्कैडरमेंट किए जाने की सिफारिश पर रेलमंत्री, और वित्तमंत्री का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे पीयूष गोयल ने ही तब इस पर अपनी संस्तुति दी थी. परंतु अब जब सब कुछ तय हो गया था, तब खुद निवर्तमान सीआरबी जाते-जाते इस पर अपनी भांजी मार गए हैं, बल्कि अब रेलवे बोर्ड सहित सेक्रेटरी/रे.बो. भी इस मामले में अपनी टांग अड़ाते नजर आ रहे हैं. इस पूरे विवाद से एक बार फिर यह बात पूरी तरह से जाहिर हो रही है कि चाहे रेलवे बोर्ड के मेंबर हों, अथवा वहां पदस्थ अन्य उच्च अधिकारी, उनकी तमाम अकड़ और हैसियत आरबीएसएस की कुटिलतापूर्ण तिकड़मों के सामने शून्य है.

इसके अलावा यह बात किसी की भी समझ से परे है कि वर्ष 1975 से भारतीय रेल में लागू हुई आईआरपीएस सेवा के अधिकारियों के समकक्ष ही नहीं, बल्कि उनसे जूनियर अन्य केंद्रीय सेवाओं के अधिकारी जहां सेक्रेटरी, प्रिंसिपल सेक्रेटरी, भारत सरकार के ओहदे तक पहुंच गए हैं, वहीं आईआरपीएस सेवा के कुछ ही अधिकारी अब तक मात्र एडीशनल सेक्रेटरी (जीएम) तक पहुंच पाए हैं. यानि करीब 48 साल की हो चुकी आईआरपीएस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी अपने हक से अब भी वंचित हैं. उल्लेखनीय है कि 1905 में जब रेलवे बोर्ड का गठन हुआ था, तभी उसके जिन तीन मेंबर्स का प्रावधान किया गया था, उसमें मेंबर स्टाफ का पद प्रमुख रूप से शामिल था. अन्य दो मेंबर, इंजीनियरिंग एवं मैकेनिकल थे. यह तथ्य जब सभी केंद्रीय सेवाओं के प्रमुख कैबिनेट सेक्रेटरी के संज्ञान में लाया गया, तब उन्होंने सातवें वेतन आयोग और बिबेक देबरॉय कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप मेंबर स्टाफ का पद आईआरपीएस सेवा के अधिकारियों को देकर उनके साथ न्याय करने सहित रेलवे की सिविल और इंजीनियरिंग सेवाओं के अधिकारियों के बीच पर्याप्त संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की. मगर ऐसा लगता है कि रेलवे की पांच इंजीनियरिंग सेवाओं के अधिकारी अपने निजी स्वार्थ के चलते न सिर्फ सातवें वेतन आयोग और देबरॉय कमेटी की सिफारिशों, बल्कि कैबिनेट सेक्रेटरी की नेकनीयत कोशिश पर भी पानी फेरने पर उतारू हैं.

ध्यान भटकाने और पूरे मुद्दे को पीछे ढ़केलने की कोशिश

अब जहां तक बात कार्मिक मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति पर तैनात एक आईआरपीएस अधिकारी संजीव कुमार सिंह द्वारा मेंबर स्टाफ के मुद्दे पर जोश में लिखे गए एक लेख की है, तो उन्होंने उक्त लेख में ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि जिससे रेलमंत्री अथवा किसी बोर्ड मेंबर की अवमानना हुई हो, और न ही उक्त लेख लिखे जाने की पीछे उनकी ऐसी कोई मंशा प्रदर्शित हो रही है. तथापि निवर्तमान सीआरबी, जो कि अपने कृतित्व से रेलवे में विभागवाद के धुर प्रवर्तक रहे, और तिकड़मी सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड ने जहां इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाते हुए कार्मिक सचिव को पत्र लिखकर संजीव कुमार सिंह की प्रतिनियुक्ति खत्म करके उनकी तुरंत वापसी की मांग कर दी, बल्कि उसमें यह भी लिख दिया कि उनके खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई की जानी है. वहीं उक्त लेख के बहाने रेलमंत्री की अवमानना का मुद्दा बनाकर डीजी/पीआर और एमआर सेल में बैठे जर-खरीद गुलामों ने संजीव कुमार के खिलाफ सारी मीडिया को खड़ा कर दिया, जिसने उनके असली उद्देश्य को समझे बिना ही इस पूरे प्रकरण को ‘कौवा कान ले गया’ की तर्ज पर उछालकर अत्यंत विवादास्पद बना दिया.

इस तरह आईआरपीएस अधिकारियों द्वारा अपने अधिकार एवं हक के लिए चलाई जा रही मुहिम को पूरे परिदृश्य से गायब करके पर्दे के पीछे ढ़केल दिए जाने की कुत्सित चाल चली गई. जबकि यह कतई जरूरी नहीं है कि तमाम आईआरपीएस अधिकारी उक्त लेख से अथवा संजीव कुमार के विचारों से सहमत हों, या उनके साथ इत्तिफाक रखते हों. यदि उक्त लेख की भाषा और अनुभव की कमी तथा जोश को अलग करके देखा जाए, तो संजीव कुमार सिंह ने अपने लेख में ऐसा कुछ नहीं लिखा है, जो रेलवे बोर्ड अथवा रेलमंत्री की गरिमा के खिलाफ हो. उन्होंने रेलवे के मानव संसाधन विकास के हित में अपने हक की बात कुछ उदाहरणों के माध्यम से कहने की कोशिश की है, जिसके लिए उनके विरुद्ध कोई अनुशासनिक कार्यवाही अनुचित होगी. अपने हक में यह अभिव्यक्ति की आजादी का मामला भी है, जिसे रेलमंत्री की अवमानना से जोड़कर रेलवे बोर्ड द्वारा अनावश्यक रूप से बात का बतंगड़ बनाया गया है. यदि रेलवे बोर्ड को उनकी बात इतनी ही नागवार लगी है, तो उसे मेंबर स्टाफ की पोस्ट का एन्कैडरमेंट करते हुए यह पोस्ट आईआरपीएस कैडर को अविलंब सौंप देना चाहिए.

आईआरपीएस अधिकारियों का अनावश्यक उत्पीड़न और ट्रांसफर

इसके बजाय रेलवे बोर्ड उन चार आईआरपीएस अधिकारियों का अनावश्यक उत्पीड़न और ट्रांसफर कर रहा है, जो डीओपीटी मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह को ज्ञापन देने वाले प्रतिनिधि मंडल में शामिल थे, जबकि रेलमंत्री ने उनके ट्रांसफर करने को मना करते हुए फाइल लौटा दी थी. जहां तक सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड की बात है, तो यह महाशय हमेशा जोड़-तोड़ में माहिर रहे हैं. इन्होंने न कभी डीआरएम में काम किया है, और न ही जीएम रहे हैं, मगर फिर भी जोड़-तोड़ करके जीएम लेवल की पोस्ट पर बैठे हैं. सच यह है कि रेलवे बोर्ड के अन्य मेंबर नहीं चाहते हैं कि मेंबर स्टाफ की पोस्ट का एन्कैडरमेंट हो और यह पोस्ट आईआरपीएस कैडर को चली जाए. यही वजह है कि रेलवे की आठों संगठित सेवाओं को मर्ज करके सिर्फ दो सेवाएं – 1. सिविल (ट्रैफिक, पर्सनल, एकाउंट्स) और 2. इंजीनियरिंग (मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, सिविल इंजीनियरिंग, एसएंडटी, स्टोर्स) – बनाने की देबराय कमेटी की सिफारिश पर रेलवे बोर्ड ने अमल नहीं किया. जबकि उसी कमेटी की सिफारिश पर इलेक्ट्रिकल एवं मैकेनिकल के कई पदों को एक-दूसरे के साथ मर्ज करके रेलवे के दैनंदिन कामकाज में घालमेल किया गया है. ऐसे में जब रेलवे बोर्ड खुद पक्षपात कर रहा है, तो वह किस मुंह से संजीव कुमार सिंह के खिलाफ कार्रवाई करेगा?

रेलवे बोर्ड की हालत को देखने के बाद यह प्रतीत होता है कि यहां कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. अनाप-शनाप खर्च करके एलआईसी के फंड को कौड़ियों के भाव लुटाकर पचाने का जुनून सभी में साफ दिखाई दे रहा है. रेलवे बोर्ड ने मेंबर स्टाफ के मामले पर पूरी कैडर रिस्ट्रक्चरिंग का सत्यानाश करके रख दिया है. दुर्भाग्य की बात यह है कि रेलवे में वर्ष 2007 के बाद आज तक कोई कैडर रिस्ट्रक्चरिंग नहीं हो पाई है, जबकि अन्य केंद्रीय मंत्रालयों में अब तक यह दो-दो बार हो चुकी है. हाल ही में कैडर रिस्ट्रक्चरिंग के साथ मेंबर स्टाफ के एन्कैडरमेंट के प्रस्ताव पर चेयरमैन, रेलवे बोर्ड और रेलमंत्री की संस्तुति के बाद सीआरसी, डीओपीटी, वित्त मंत्रालय की मुहर भी लग गई. इसके बावजूद निजी स्वार्थ के चलते इसमें भेदभावपूर्ण बदलावकर कार्मिक विभाग से सौतेला व्यवहार किया गया. परिवर्तित कैडर रिस्ट्रक्चरिंग की फाइल रेलवे बोर्ड द्वारा जब पीएमओ को भेजी गई, तब उसमें मेंबर स्टाफ के एन्कैडरमेंट का प्रस्ताव जानबूझकर ड्राप कर दिया गया. इस पर पीएमओ ने नाराजगी जताते हुए ओरिजिनल प्रपोजल, जिस पर डीओपीटी और सीआरसी की सिफारिश थी, भेजने को कहा. परंतु रेलवे बोर्ड उक्त फाइल को दबाकर बैठ गया है.