‘राम नाम की लूट है, जो लूट सके सो लूट’

भारतीय रेल का सर्वाधिक कार्यक्षम विभाग बना ‘मैकेनिकल’

सुरेश त्रिपाठी

ऐसा लगता है कि भारतीय रेल के नौकरशाह निरंकुश और बेलगाम हो गए हैं, उन पर न तो कोई जवाबदेही सुनिश्चित की जा रही है, और न ही उनके विभाग की खराब परफॉर्मेंस पर कोई टीका-टिप्पणी करने को तैयार है. यह स्थिति रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) से शुरू होकर जोन, डिवीजन और अधीनस्थ कार्यालयों तक पसरी दिखाई दे रही है. निचले पायदान से शीर्ष स्तर पर सीधे संवाद के कारण जीएम/डीआरएम की स्थिति हास्यास्पद होकर रह गई है. कहने को जीएम (जनरल मैनेजर) की पॉवर बढ़ा दी गई गई, परंतु उसकी स्थिति जीएम (गैंगमैन) जैसी बना दी गई है. इसके चलते हर स्तर पर अनुशासनहीनता बढ़ी है. इससे जहां एक तरफ जीएम (गैंगमैन) से काम लेना मुश्किल हो गया है, तो दूसरी तरफ यूनियनें और उनके पदाधिकारी पूरी निरंकुश होकर प्रशासन पर हावी हो गए हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि उपरोक्त वातावरण ‘सुशासन बाबू’ की ढुलमुल नीतियों और खुद के ‘राजाबाबू’ बने रहने के चलते ही पैदा हुआ है.

यह सर्वज्ञात है कि वर्तमान में भारतीय रेल अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है. एक समय वह भी था जब माल परिवहन और सुगम, सुरक्षित एवं किफायती यात्री यातायात के क्षेत्र में भारतीय रेल का लगभग एकाधिकार था. परंतु आज एयर-रोड के चहुंमुखी विस्तार और विकास ने यातायात के इस सर्व-सुलभ और भरोसेमंद साधन को ‘एलर्ट मोड’ में ला दिया है. तथापि, भारतीय रेल के शीर्ष नीति नियंता इस सबसे या तो बेखबर हैं, या फिर वह खुद भी भारतीय रेल को तोड़ने और निजीकरण करने की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय साजिश में शामिल हो गए हैं. रेलवे की नौकरशाही के दिमागी-दिवालिएपन का यह हाल है कि यदि ट्रैफिक (माल एवं यात्री दोनों) में गिरावट दर्ज की जाती है, तो इसका जवाब सीधे नीचे के कर्मचारी से मांगा जाता है और उन्हें ट्रैफिक बढ़ाने को कहा जा रहा है.

यह भी सर्वविदित है कि भारतीय रेल का माल भाड़ा यातायात लगातार कम हो रहा है, लेकिन रेल प्रशासन पता नहीं कौन से आंकड़े कहां से लाकर प्रस्तुत कर रहा है कि जिनमें रिकॉर्ड लोडिंग की बात की बताई जाती है. अर्थात आज भी पिछले साल के आंकड़ों के आधार पर ही बढ़त को दर्शाया जा रहा है, लेकिन अपने प्रतिस्पर्धी (हवाई एवं सड़क) यातायात में आमूलचूल वृद्धि को जानबूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है. नीचे से ऊपर तक रेल प्रशासन में नियम-कानून नाम की कोई चीज नहीं रह गई है और रेलवे को चूना इसके शीर्ष नीति-नियंता ही लगा रहे हैं. अब स्थिति यह है कि रेलवे की विकास योजना को ताक पर रखकर रेल अधिकारी अपने प्रमोशन और मलाईदार पोस्टिंग के लिए पहले से योजना बना रहे हैं, क्योंकि दलाल खुलेआम इसके ऑफर लेकर उनके दरवाजे तक पहुंच रहे हैं. अन्यथा सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार स्क्रीनिंग कमेटी के विभागीय प्रावधान के बावजूद बिना स्क्रीनिंग के ही सिर्फ ऊपरी मुंहजबानी आदेश पर कई भ्रष्ट अधिकारियों की तत्काल मलाईदार पोस्टिंग नहीं की जा रही होती!

एक तरफ जहां मलाईदार पदों पर कदाचारी अधिकारियों की मुंहमांगी कीमत पर मनचाही पोस्टिंग के साथ ही ‘अपने लोगों’ के मन-मुताबिक टेंडर कंडीशन बनवाने और बड़े टेंडर पार्टी काडर को सौंपने का खेल चल रहा है, तो दूसरी तरफ शीर्ष पर बैठे अधिकारी को अपने विभाग के अलावा बाकी सभी बेकार और भ्रष्ट दिखाई दे रहे हैं. शायद यही कारण है कि पिछले डेढ़ सालों से “मैकेनिकल डिपार्टमेंट” भारतीय रेल का सबसे कार्यक्षम विभाग बन गया है. इस विभाग के अधिकारियों को “मैकेनिकल इंजीनियरी” छोड़कर बाकी सब कुछ करना आता है, जैसे ये बाबूगीरी, धोबीगीरी, झाड़ू-पोछा लगाना, साफ-सफाई करना, एसी में यात्रियों को लिनेन सप्लाई करना, एसी/कोच मेंटीनेंस इत्यादि कार्यों के एक्सपर्ट हो गए हैं. अब यह बात अलग है कि अन्य विभागों के रेल अधिकारी इसे कामचोरी और मुफ्तखोरी की संज्ञा देते हैं.

रेलवे स्टेशनों की तथाकथित यांत्रिक साफ-सफाई जब से मैकेनिकल विभाग को सौंपी गई है, तब से इसकी लागत कई गुना बढ़ गई है. तात्कालिक उदाहरण हेतु इससे पहले दो साल के लिए कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन की साफ-सफाई के ठेका जहां लगभग तीन करोड़ में दिया जा रहा था, वहीं अब यही ठेका उतनी ही अवधि के लिए 14.40 करोड़ रुपये में दिया गया है. जबकि स्टेशन की साफ-सफाई में कोई कोताही होने पर स्टेशन मास्टर और स्टेशन डायरेक्टर सहित किसी भी स्टेशन स्टाफ को अब सफाई ठेकेदार पर दंड लगाने का अधिकार नहीं है. पहले यह अधिकार स्टेशन स्टाफ के पास होने से ठेकेदार पर नियंत्रण रहता था. अब यह अधिकार सफाई के “प्रमुख ठेकेदार मैकेनिकल विभाग” के पास है. काम पहले भी नहीं हो रहा था, काम अब भी नहीं होने वाला है. हालांकि चोरी यानि कमीशन का प्रतिशत लगभग उतना ही बताया गया है.

शायद यही वजह है कि कानपुर स्टेशन के सफाई ठेके का ‘एक्सेप्टेंस लेटर’ सौंपने से पहले यह कहकर ‘राउंड फिगर’ में 15 लाख लिए गए कि उसमें से डीआरएम/जीएम और ऊपर तक भी देना पड़ेगा? जब यह ‘हिस्सा’ सिर्फ अधिकारियों के स्तर का है, तब पार्टी स्तर का ‘हिस्सा’ कितना होगा? इसका अंदाजा आसानी से इसलिए लगाया जा सकता है. सफाई न तब हो रही थी, और न अब होने वाली है, क्योंकि उक्त दोनों स्तरों पर ठेकेदार की ‘सफाई’ पहले ही हो चुकी है, इसलिए वह टेंडर शर्तों को ताक पर रखकर एक स्थानीय छुटभैये को टेंडर सब्लेट करके और अपना मुनाफा निकालकर निकल गया है, जबकि स्थानीय छुटभैया ठेकेदार अब टेंडर कंडीशन के मुताबिक कानपुर स्टेशन की सफाई के लिए चौबीस घंटे, तीन शिफ्टों में 264 आदमी लगाने के बजाय मात्र 100-125 आदमी ही लगा रहा है.

अब तथाकथित ‘एनवायरनमेंट एंड हेल्थ मैनेजमेंट’ उर्फ “ईएनएचएम” की ड्यूटी लिस्ट में तीसरी-चौथी बार बदलाव करके ‘ए’ एवं ‘ए-1’ कैटेगरी के सभी मलाईदार स्टेशन मैकेनिकल विभाग को सौंप दिए गए हैं, जहां 15-20 करोड़ से भी ज्यादा के सफाई ठेके दिए गए हैं और इनका नियंत्रण सीधे मैकेनिकल विभाग को सौंपा गया है, जो स्टेशन मास्टर या स्टेशन डायरेक्टर अथवा अन्य स्टेशन स्टाफ द्वारा ठेकेदार पर लगाए गए दंड को चाहे तो माने, या न माने. वास्तव में अब स्टेशन स्टाफ को सिर्फ दंड या जुर्माना लगाने की सिफारिश करने तक सीमित कर दिया गया है.

यह प्रावधान ठीक वैसा ही है कि जिस प्रकार ऑनलाइन एवं ऑन-बोर्ड कैटरिंग सर्विस तो आईआरसीटीसी द्वारा मुहैया कराई जा रही है, परंतु उसकी इस घटिया और खराब सर्विस के लिए यात्रियों की गालियां रेलवे को मिल रही हैं, जबकि रेलवे स्टाफ द्वारा कैटरिंग ठेकेदारों पर लगाए गए जुर्माने को आईआरसीटीसी द्वारा ताक पर रख दिया जाता है. उसी प्रकार रेलवे स्टेशनों पर घटिया साफ-सफाई के लिए यात्रियों की गालियां स्टेशन स्टाफ को खानी पड़ रही हैं, जबकि मलाई मैकेनिकल विभाग खा रहा है. हालांकि इस पर भारी मतभेद और आतंरिक कलह होने के कारण अभी से यह प्रावधान कर दिया गया है कि चालू ठेकों की दो वर्षीय अवधि खत्म होने के बाद व्यवस्था को पूर्ववत कर दिया जाएगा.

इसका मतलब यह लगाया जा रहा है कि जीवन बीमा निगम से जो पैसा रेलवे को मिला है, उसे इन दो वर्षीय ठेकों में लगाकर व्यक्तिगत एवं पार्टी फंड मजबूत कर लिया गया है. दो साल बाद जब बजट ही नहीं रहेगा, पैसा ही नहीं मिलेगा, तब न इतने बड़े टेंडर होंगे और न ही कोई कोहराम मचेगा. यह एक खुला सच है कि ईएनएचएम, ओबीएचएस और कैटरिंग सहित स्टोर्स की खरीद इत्यादि में सर्वाधिक भ्रष्टाचार हो रहा है. यह सर्वज्ञात है कि किसी भी ठेकेदार ने ईएनएचएम और ओबीएचएस में निर्धारित संख्या में मैनपावर नहीं लगाया है. ऐसे ज्यादातर ठेकेदार पार्टी/मंत्रियों/सांसदों के नजदीकी बताए गए हैं. अतः सफाई के नाम पर करोड़ों की खुली बंदरबांट चल रही है, जबकि स्टेशनों और चलती ट्रेनों में यात्रियों की सर्वाधिक शिकायतें साफ-सफाई को लेकर ही हैं, जिन पर रेल प्रशासन ने अपने आंख-नाक-कान सब बंद करके रखे हैं.

एक तरफ मैकेनिकल-इलेक्ट्रिकल के घालमेल और रेलमंत्री एवं सीआरबी के बीच जारी वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा के चलते ट्रेन-18 जैसा महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट विवादों में है, तो दूसरी तरफ यात्रियों की तमाम शिकायतों के बावजूद ईएनएचएम, ओबीएचएस और कैटरिंग में हो रहे भारी भ्रष्टाचार को अनदेखा किया जा रहा है. ‘ट्रांसफार्मेशन सेल’ कौन से बचकाने आदेश जारी कर रहा है, यह रेलवे बोर्ड मेंबर्स को भी पता नहीं होता. इसका ज्वलंत उदाहरण 25 अक्टूबर को रेलवे बोर्ड द्वारा जारी एसएसई की सीधी भर्ती पर रोक का वह आदेश है, जिसकी जानकारी तत्कालीन मेंबर इंजीनियरिंग को रिटायरमेंट के बाद तक भी नहीं थी. लवे में स्किल्ड वर्कमैनशिप की भारी कमी है, लाखों पद खाली पड़े हुए हैं. सेवानिवृत्ति, वीआरएस, आकस्मिक मृत्यु इत्यादि से कहली होने वाले पदों पर भर्ती नहीं हो रही है, तथापि कम लागत पर नए युवा बेरोजगारों को रोजगार देने के बजाय जूनियर स्केल में रिटायर्ड अधिकारी सहित जाहिल-काहिल रिटायर्ड रेलकर्मियों को पुनः सेवा में लेने का नया और बचकाना चलन रेलवे में शुरू किया गया है. रेलवे में क्या होना है, यह या तो तमाम निर्धारित नियम-प्रावधान सहित पूरे बोर्ड को बाईपास करके ‘ट्रांसफार्मेशन सेल’ तय कर रहा है, या फिर सीआरबी. बाकी सबको बेकार, नालायक और निकम्मा करार दे दिया गया है.

उपरोक्त तथ्यों को जब ‘रेल समाचार’ ने सोशल मीडिया पर शेयर किया, तो पूरी भारतीय रेल से तमाम रिटायर्ड/कार्यरत उच्च रेल अधिकारियों सहित जागरूक रेलकर्मियों ने भी उस पर अपनी सहमति व्यक्त की है. उनका स्पष्ट कहना है कि यात्री सुविधाओं से संबंधित लगभग सारा काम एक तो आउटसोर्सिंग के माध्यम से कराया का रहा है और दूसरे इनके कॉन्ट्रेक्ट मैकेनिकल विभाग द्वारा कराए जा रहे हैं. बात जब यात्रियों की शिकायत की आती है, तो सामने वाणिज्य एवं परिचालन विभाग (फ्रंटलाइन स्टाफ) के कर्मचारी आते हैं. उनका साफ कहना है कि रेलवे में ठेके के नाम पर जबर्दस्त शोषण और भ्रष्टाचार हो रहा है. इसमें ठेकेदारों का शोषण रेल महकमे द्वारा तथा ठेका मजदूरों का शोषण ठेकेदार कर रहे हैं. उनका कहना है कि कैटरिंग के बाद सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार साफ-सफाई के ठेकों में हो रहा है, जिसकी मलाई संबंधित विभाग के अधिकारी और हेल्थ इंस्पेक्टर खा रहे हैं.

अतः उपरोक्त तमाम मुद्दों एवं स्थितियों के मद्देनजर रेलवे में वही कहावत चरितार्थ हो रही है कि ‘राम नाम की लूट है, जो लूट सके सो लूट’. क्रमशः