दो पाठ्यक्रम के विचारणीय प्रश्न
दो अलग तरह के पाठ्यक्रम की बात विज्ञान और सामाजिक विषयों के लिए सही नहीं होगी। विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा ही बच्चों की समझ को पुख्ता बनाती है, और इसीलिए इन विषयों को दुनिया भर में दसवीं तक अनिवार्य रूप से और सर्वश्रेष्ठ ढ़ंग से पढ़ाया-समझाया जाता है। शिक्षा की बुनियाद यही विषय बनाते हैं!
शिक्षा सुधार की प्रक्रिया में नया विचार दसवीं के विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में भी दो तरह का वैसा ही पाठ्यक्रम बनाने पर विचार हो रहा है, जैसा गणित विषय में पहले से ही है। दसवीं की गणित में कुछ विद्यार्थी बेसिक गणित में परीक्षा देते हैं और दूसरे स्टैंडर्ड गणित में। बेसिक गणित की तुलना में स्टैंडर्ड गणित में अपेक्षाकृत कठिन सवाल होते हैं और यही विद्यार्थी आगे चलकर इंजीनियरिंग आदि की परीक्षा देने में समर्थ होते हैं। यहां तक की 11वीं-12वीं में गणित पढ़ने की आजादी इन्हीं को दी जाती है। गणित के लिए इस बात पर कुछ हद तक सहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि त्रिकोणमिति और कुछ दूसरी कठिन परिकल्पनाएं एक स्तर के बाद काम नहीं आती।
इसके पीछे के इतिहास को याद करें, तो किसी समय, लगभग 50 वर्ष पहले 9वीं-10वीं में लड़कियों के लिए गणित की जगह होम साइंस का विकल्प रहता था। हालांकि अब समय बदल गया है, और समाज की समझ में भी यह बात आ गई है कि लड़कियां भी गणित और विज्ञान में उतनी ही प्रतिभा रखती हैं जितनी लड़के। यही कारण है कि ताजा आंकड़ों के अनुसार इंजीनियरिंग कॉलेजों में 30% लड़कियां इंजीनियरिंग पढ़ रही हैं। वर्तमान सरकार ने तो एक ऐतिहासिक कदम बढ़ाते हुए आईआईटी में 20% सीटें लड़कियों के लिए आरक्षित कर दी हैं।
लेकिन दो अलग तरह के पाठ्यक्रम की यही बात विज्ञान और सामाजिक विषयों के लिए सही नहीं होगी। विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा ही बच्चों की समझ को पुख्ता बनाती है और इसीलिए इन विषयों को दुनिया भर में दसवीं तक अनिवार्य रूप से और सर्वश्रेष्ठ ढ़ंग से पढ़ाया-समझाया जाता है। शिक्षा की बुनियाद यही विषय बनाते हैं। विज्ञान जहां तर्कशील प्रयोगधर्मी बनाता है, वहीं सामाजिक विज्ञान समाज देश दुनिया की राजनीति अर्थशास्त्र और इतिहास की समझ पैदा करता है और यह हर बच्चे के लिए समान रूप से अनिवार्य होना ही चाहिए। ऐसी शिक्षा ही उन्हें स्वावलंबी बनाएगी और यही लोकतंत्र के हित में है। किसी भी रूप में इसे हल्का बनाने से शिक्षा का स्तर और गिर जाएगा।
इसके पीछे बच्चों पर पढ़ाई के बोझ को कम करने का विचार हावी लगता है। लेकिन यह सच्चाई से बहुत दूर है। इसे कोटा या दूसरी आत्महत्या से जोड़ना गलत होगा, क्योंकि उन बच्चों में मानसिक तनाव उनके समाज, मां-बाप के दबाव और नंबरों की अंधी दौड़ है, इन विषयों का दबाव नहीं।
शिक्षा का अर्थ केवल क्लास पास करना या कुछ नंबर ज्यादा लाना ही नहीं होता, उसे ऐसा उपयुक्त नागरिक बनाना होता है जैसे ब्रिटेन की शिक्षा में है। उनसे शब्द उधार लें तो “15 वर्ष की उम्र तक विद्यार्थी पूरी दुनिया में घूमने और संवाद करने की क्षमता रखता हो।” यह विज्ञान और दूसरे विषयों को और बेहतर ढ़ंग से पढ़ने-पढ़ाने से ही संभव हो सकता है, पाठ्यक्रम की काट छांट से नहीं।
गणित के अनुभव से ही सबक लें, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। दिल्ली के निजी महंगे स्कूलों में सभी बच्चे जहां स्टैंडर्ड गणित पढ़ते हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में ज्यादातर बच्चे बेसिक। कारण-स्टैंडर्ड गणित पढ़ने वाले अमीर बच्चों से आगे इंजीनियर डॉक्टर बनने की उम्मीद की जाती है, तो वहीं सरकारी स्कूलों के प्रति एक उदासीन रवैया है। यदि विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में भी यह कर दिया तो सरकारी स्कूलों के प्रति नजरिया और गिर जाएगा। जहां अंग्रेजी ने प्राइवेट स्कूल और निजी शिक्षा को बढ़ाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, यह कदम भी सरकारी स्कूलों को और कमजोर कर देगा। सरकारी स्कूलों में सबसे गरीब तबका ही देश के ज्यादातर स्कूलों में पढ़ रहा है, क्योंकि पढ़ाई के अलावा वे रोजाना की खेती किसानी और दूसरे व्यवसाय में भी लगे होते हैं। अपने मां-बाप की मदद करते और अपने जीवनयापन के संघर्ष में भी लगे रहते हैं। हमें उनकी शिक्षा को और बेहतर बनाने के बारे में सोचना चाहिए, न कि और कमजोर करने का प्रयास करना चाहिए।
इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या उच्च शिक्षा में आगे बढ़ने के लिए इन बच्चों को मदद मिलेगी? हो सकता है, जैसे अंग्रेजी सरकारी नौकरियों में अपनी ज्यादा हैसियत रखती है, वैसे ही ऐसे दोहरे पाठ्यक्रम के कारण सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले और पीछे रह जाएंगे। यह उस विचार को भी धक्का देता है जब हम दौलत सिंह कोठारी आयोग की समान शिक्षा की बात नई शिक्षा नीति में कर रहे हैं और जिसके तहत नीट परीक्षा, आईआईटी परीक्षा या पिछले दिनों केंद्रीय विश्वविद्यालय में समान प्रवेश परीक्षाएं शुरू की गई हैं।
इसका एक और दुष्परिणाम हो सकता है। पिछले दिनों हमारे देश के निजी स्कूलों से निकले इंजीनियरों की क्षमता और स्किल पर दुनिया भर में प्रश्न उठ रहे हैं कि उनमें से 70% के पास डिग्री होने के बावजूद वे सक्षम नहीं हैं। ऐसी चुनौती के बीच तो हमें अपने पाठ्यक्रमों को और बेहतर करने की नितांत आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति में इस बात पर जोर तो दिया गया है, लेकिन अभी उसके परिणाम आने बाकी हैं। न प्राइमरी स्तर पर अपनी भाषाओं में पढ़ाई में विशेष प्रगति हुई है, और न ही स्कूली स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में। 11वीं-12वीं और दूसरे स्तरों पर अपनी मर्जी से विषय लेने की जो बात 4 साल पहले हुई थी, वहां भी हम कदम नहीं बढ़ा पाए। घूम-फिरकर वही ढ़ाँचा यथावत जारी है, बल्कि उसमें और गिरावट आई लगती है, जिसका प्रमाण देश से बाहर जाकर पढ़ने वालों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि है, तो दूसरी तरफ दुनिया भर में आत्महत्या करने वाली सबसे बड़ी संख्या भारत के विद्यार्थियों की है। इसे विकास के मॉडल में एक बड़ी त्रासदी ही कहा जाएगा।
आज इसरो की सफलता या इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, आईआईटी आदि से निकले बच्चों की सफलता का लोहा दुनिया भर के देश मानते हैं। तो कहीं न कहीं इसमें उन संस्थानों का बड़ा योगदान रहा है। इसलिए हमें उन आजमाई हुई नीतियों के कार्यान्वयन पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है, बजाय बच्चों और स्कूलों में भेदभाव के पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने की।
शिक्षा के बदलाव भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करते हैं। 50 के दशक में अंतरिक्ष विज्ञान में जब रूस स्पूतनिक को भेजकर आगे बढ़ता नजर आया तो अमेरिका ने 60 के दशक में ही अपनी विज्ञान नीति को ऐसा आमूल-चूल बदला कि आज तक वह अग्रणी बना हुआ है। यूरोप के भी अनुभव ऐसे रहे हैं और इसीलिए वहां ऐसे सैकड़ों वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने 30 वर्ष की उम्र तक में अपनी सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक खोज की है।
ऐसे रोज-रोज के असंगत बदलाव शिक्षा में ऐसी जटिलताएं पैदा कर रहे हैं जिनके कार्यान्वयन में समूचा तंत्र भी शिक्षा के असली उद्देश्यों से दूर होता जा रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार ने भी बिना परीक्षा दिए 8वीं क्लास तक पास करने की ऐसी ही लोक-लुभावन नीति लागू की थी, जिसके परिणाम गरीब लोगों के लिए बहुत अच्छे नहीं रहे। समय आ गया है कि हम 21वीं सदी के अनुरूप अपनी विज्ञान और सामाजिक शिक्षा को दुनिया की विभिन्न शिक्षण पद्धतियों से सीखते हुए ऐसा बनाएं कि दुनिया भर के लोग विश्व गुरु भारत में पढ़ने के लिए लालयित हों!
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