नई किताब: “How Prime Minister decide” -नीरजा चौधरी
“मौजूदा प्रधानमंत्री के बारे में इसलिए नहीं लिखा कि अभी उनके सामने उनकी कार्य प्रणाली की पूरी तस्वीर नहीं है और यह पुराने प्रधानमंत्री ऑफिस से बिल्कुल अलग भी है। हो सकता है भविष्य में मैं इस पर लिखूं।”
नीरजा चौधरी का परिचय देने की शायद आवश्यकता नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में पॉलिटिकल एडिटर रही हैं। 8 प्रधानमंत्री और 10 लोकसभा चुनावों को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा है। यदि मैं इस किताब का लेखक होता, तो इसका नाम रखता, “The great political conspiracies of Indian PMs” भारतीय प्रधानमंत्री और उनके महान राजनीतिक षड्यंत्र! सुनने में थोड़ा तीखा लग सकता है, लेकिन इस किताब के एक-एक शब्द में ये षड्यंत्र उजागर होते हैं। हो सकता है मैं जिसे षड्यंत्र कह रहा हूँ, यह भारतीय राजनीति में वैसे ही सहज मान लिया गया हो जैसे हमारे खाने में नमक मिर्च मसालों या दवाईयों में मिलावट! पानी और और हवा में प्रदूषण!
1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की वापसी से लेकर राजीव गांधी, वीपी सिंह, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह के कार्यकाल इसमें शामिल हैं। बकौल भूमिका “मौजूदा प्रधानमंत्री के बारे में इसलिए नहीं लिखा कि अभी उनके सामने उनकी कार्य प्रणाली की पूरी तस्वीर नहीं है और यह पुराने प्रधानमंत्री ऑफिस से बिल्कुल अलग भी है। हो सकता है भविष्य में मैं इस पर लिखूं।”
बहुत सधे हुए शब्दों से लिखी हुई लंबी भूमिका के बाद शुरुआत होती है उस दिन से जिस दिन इंदिरा गांधी 1977 के लोकसभा चुनाव में हार गई हैं। वे सफदरजंग रोड के पीएम हाउस के आहाते में अकेली बैठी हैं। उनके साथ हैं मोहन मिकेनस (शराब के उद्योगपति) के कपिल मोहन “हो सकता है मैं पहाड़ पर चली जाऊं! हिमाचल प्रदेश में कहीं किसी कॉटेज में और वहां अपनी मेमोरी लिखूं !… लेकिन सन्यास की इस मुद्रा को बदलने में अधिक समय नहीं लगा, क्योंकि जनता पार्टी अपने आप में भानुमती का कुनबा था। खटपट की शुरुआत होते ही संजय गांधी मोहन मीकिंस के कपिल मोहन और सभी इनर सर्किल के लोग सक्रिय हो गए।
जिन समाजवादी राजनारायण ने रायबरेली से इंदिरा गांधी को बेदखल किया था, वह रातों-रात संजय गांधी के कैंप में शामिल। रोज गुफ्तगू। कभी-कभी मधु लिमए भी। ऐसे ही मौके की तलाश में उनके हाथ लगा जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम का सेक्स वीडियो। बस शतरंज की चौपड़ बिछ गई। राज नारायण ने के.सी. त्यागी (यही वाले) और ओमपाल सिंह को सुरेश राम के पीछे लगा रखा था, और सब फोटो राजनारायण के पास पहुंच गए।
जगजीवन राम ने राज नारायण को मनाने की भरपूर कोशिश की। उनके घर जाकर मिले। राज नारायण के शब्दों में, “उन्होंने एक राज्य के मुख्यमंत्री पद की भी पेशकश की फोटो लौटाने के बदले। और कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनने वाला हूँ आप बताइए आप किनको मंत्री बनना चाहते हैं, लेकिन बात बनी नहीं! अंततः चौधरी चरण सिंह बाजी मार ले गए कांग्रेस के दांवपेंच से!”
जाति व्यवस्था पर चौधरी चरण सिंह का वक्तव्य याद आ रहा है जो इस किताब की भूमिका में है, “मैं जाट परिवार में पैदा हुआ हूँ, मैं एक मुसलमान तो बन सकता हूँ, लेकिन मैं ब्राह्मण नहीं बन सकता, और न ही राजपूत और बनिया.. अगर मैं हरिजन भी बनना चाहूँ तो वह भी नहीं बन सकता, क्योंकि इसकी अनुमति संविधान नहीं देता।” यानि क्या संविधान जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए है या उसे बनाए रखने के लिए!पाठकगण स्वयं विचार करें!
क्या जोरदार जासूसी विवरण भरे हुए हैं! कुशवाहा कांत, इब्ने सफी, कर्नल रंजीत.. को भी पीछे छोड़ने वाले! पूरी किताब का नरेशन ऐसा है कि आप 600 पेज की किताब को एक बार में ही खत्म करके मानेंगे। कहने का अंदाज तो कोई इन पत्रकारों से सीखे, चाहे नीरजा चौधरी हों या विनोद मेहता, कुलदीप नैय्यर, संजय बरू.. राम गुहा…
वीपी सिंह के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की दास्तान तो और भी रोमांचकारी है। देवीलाल और उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला के कारनामे, अरुण नेहरू का खेल.. इस बीच जाट नेता सोमपाल की एक भूमिका! और कुछ दिनों में फिर वैसा ही कांग्रेसी खेल जैसा जनता पार्टी के साथ हुआ था। चंद्रशेखर बिलबिला रहे थे प्रधानमंत्री बनने के लिए, लेकिन उनकी सरकार 4 महीने में ही चली गई। मानो यह किसी टीवी सीरियल का कांग्रेसी एपिसोड हो। वैसे इस किताब पर वर्षों तक चलने वाला धारावाहिक बन सकता है, और उम्मीद है कि बनेगा भी।
मेरी पीढ़ी की आंखें भी इस किताब के समानांतर खुली हैं। 1975 में खुर्जा से बीएससी करने के दौर में जेपी आंदोलन के साथ मानसिक रूप से जुड़ा हुआ था और फिर जनता पार्टी को खंड-खंड होते भी देखा। वैसा ही अनुभव वी पी सिंह और मंडल के दौर में देखा। वह और भी भयानक था। उसने तो वैचारिक लोकतंत्र के छोटे-मोटे अड्डे जैसे मोहन सिंह प्लेस का कॉफी हाउस और श्रीराम सेंटर या दूसरे मंच सदा के लिए बर्बाद कर दिए। अब वहां कुत्ते भी नहीं घूमते!
उस समय के प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट की लाइन थी, “जितने अधिक लोग सड़कों पर मरेंगे, हमारा सामाजिक न्याय उतनी ही दूर तक जाएगा!” यह वही प्रधानमंत्री था जिसने इंदिरा गांधी की कैबिनेट में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को यह कहकर नकार दिया था कि “केवल कास्ट रिजर्वेशन का आधार नहीं हो सकती!” इस किताब से ही शब्दों को उधार लिया जाए तो वी पी सिंह कभी भी मंडल कमीशन के पक्ष में नहीं थे (पेज 178 और 188 )।
उससे पहले नेहरू के समय भी ओबीसी समुदाय के लिए कालेलकर रिपोर्ट पर विचार हुआ था और तब भी उन दिनों के हर राजनेता ने इसका विरोध किया था (पेज 186) वही संविधान था और वही संविधान अब भी है.. वे गलत थे, या मौजूदा? कितनी पलटी मारी गई है इस वोट बैंक की शतरंज पर हर राजनेता और उनके दल ने! और अभी तो फिल्म बाकी है दोस्त!
राजीव गांधी का दौर भी उतना ही तिलिस्मी रहा है। पायलट अचानक पीएम सलाहकारों से ही चलते थे। 400 से घटकर सत्ता से बाहर हो गए।हिंदू-मुसलमान की शतरंज में फंस गए। कभी शाहबानो पर पलटी मारते हैं, तो कभी अयोध्या में मंदिर के गेट खुलवाते हैं। एक नौजवान पत्रकार कुर्बान अली ने जब उनको उत्तर प्रदेश में हार की संभावना की हकीकत बताई, तो पुराने नेता खुर्शीद तुरंत उसको अलग ले गए (पेज 154 155) और अंजाम हुआ मलिहाबाद और देश भर के देंगे.. भारतीय राजनीति की यह सब मामूली घटनाएं नहीं है। आज तक उसी का असर है।
देश के इतिहास-भूगोल के साथ-साथ समाज और राजनीति की भी बहुत प्रमाणिक जानकारी मिलती है इस किताब में। फैक्ट भी और एक फिक्शन के अंदाज में!.. हमें तो बार-बार यह बताया गया है कि वे समाजवादी नेता कांग्रेसी नेता कितने-कितने महान थे कि उन्होंने लोकतंत्र को कैसे स्थापित किया कि वे जनता के लिए जान छिड़कते थे, गरीबी हटाना चाहते थे.. आजादी के त्याग में तपे थे.. लेकिन इस किताब से जो तस्वीर उभरती है वह तो बिल्कुल उलट है! और खून खौलाने वाली भी।
सारा खेल सारा किस्सा कुर्सी का रहा है और उसी में डूब-उतरा रही है देश की मासूम जनता! और आजादी के सपने! पड़ोसी पाकिस्तान के मुकाबले जरूर हम खुश हो सकते हैं चुनाव प्रक्रिया में लेकिन दुनिया के लोकतंत्र में तो हम हर पैमाने पर बहुत बड़े फिसड्डी ही हैं।
नीरजा चौधरी की पुस्तक पर प्रेमपाल शर्मा की टिप्पणी! पूरी किताब पढ़ते-पढ़ते न जाने कितनी मूर्तियां ढ़ह जाएंगी!
संपर्क: 9971399046. दिल्ली, 17 अक्टूबर 2024