गणेशोत्सव और जनभाषा का महत्व!
जो बदलाव हम दुनिया में चाहते हैं वह पहले हमें अपने अंदर करना होगा!
हिन्दी प्रदेशों के लोग हिंदी का प्रयोग करने में सबसे पीछे हैं! एक गुलाम मानसिकता के मारे हैं!
प्रेमपाल शर्मा
फिल्मी गाने संगीत मनोरंजन ने तो लिंक भाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाया ही है, धर्म और उत्सवों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। पिछले कुछ वर्षों से गणेश उत्सव, दशहरा के दिनों में बैंगलोर में रहना हुआ है। हाल ही में आठ सितंबर को गणेश उत्सव था। उत्सव तो सही मायने में हिंदी से इतर राज्यों में मनाए जाते हैं। गुजरात का गरबा हो या बंगाल की दुर्गा पूजा! महाराष्ट्र में गणपति बप्पा मोरिया या आसाम के उत्सव। उत्तर भारत के उत्सवों में जैसे-जैसे कावड़ और छठ पूजा का तमाशा बढ़ता गया है, वैसे-वैसे सच्ची उत्सवधर्मिता रामलीला कृष्ण लीला स्वांग, जो एक-दो हफ्तों तक चलती थी, लगभग गायब हो गई है और धर्म के नाम पर लंपटता ज्यादा हावी हो गई है।
आश्चर्य ! माइक पर जो भी गणेश पूजा के गाने भजन-कीर्तन बज रहे हैं, वे सब हिंदी में है। मराठी का गणपति बप्पा मोरिया के बीच-बीच में जयकारा के साथ। पूजा के लिए पंडित जी आए उनकी कथा भी पूजा भी सब कुछ इसी हिंदी में, जिसे दक्षिण वाले कभी-कभी थोपना कहते हैं।धर्म के ऐसे उत्सव तो भाषा, क्षेत्र और प्रांतवाद से ऊपर उठकर उनको एक सूत्र में बाँधती हैं।
लगभग 200 जन तो पंडाल में होंगे ही। सभी प्रदेशों के। बच्चे-बूढ़े महिलाएं। वहां के कर्मचारी। एक स्वर से भगवान गणेश के जयकारे लगाते हुए। पंडित जी बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक जरूर बोलते थे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि यहां के उत्सव में हिंदी का इतना प्रयोग होगा। यहां काम करने वाले ज्यादातर मजदूर बंगाल उड़ीसा असम बिहार से हैं। उनके लिए भी यदि कोई बोलने की, समझने की भाषा है तो वह हिंदी ही है।
कर्नाटक में हिंदी को बढ़ाने में मुसलमानों का योगदान और भी ज्यादा है। वे उसे उर्दू कहते हैं, लेकिन बोलचाल में वही हिंदुस्तानी है। घरों में खाना बनाने वाली तो ज्यादातर बंगाल और उड़ीसा की है। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती और आ भी नहीं सकती। पिछले 10-15 सालों से रह रही हैं, मैंने पूछा कन्नड़ क्यों नहीं सीखी? वे शरमा जाती हैं, झिझक जाती हैं, और पिछले दिनों से डरने भी लगी हैं कर्नाटक सरकार के कुछ नेताओं के भाषणों से। सीखने की कोशिश करती है लेकिन बहुत थोड़ी-थोड़ी आती है।
यानि संपर्क भाषा के रूप में अमीरों के बीच क्रीमी लेयर की भाषा अंग्रेजी हो सकती है लेकिन लेकिन हजारों मील की दूरी तक इस महादेश में फैले मजदूर गरीबों फूड डिलीवरी बॉय आदि के लिए तो हिंदी ही सहारा है।जैसी भी है टूटी-फूटी। इसीलिए महात्मा गांधी ने अफ्रीका से लौटते ही और गुरु गोखले की सलाह पर पूरे देश में घूमने के बाद पहला निर्णय लिया वह यही था कि “हमें अपनी भाषाओं को महत्व देना होगा और उसमें हिंदी हिंदुस्तानी सबसे अव्वल है।”
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 4 फरवरी 1916 के उद्घाटन के समय उन्होंने सभी से यही आग्रह किया था कि “जब तक शिक्षा अपनी मातृ भाषाओं में नहीं होगी, हमारी शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है।” यही बात उन्होंने बीएचयू में उसके 25 वर्ष बाद रजत जयंती वर्ष पर दोहराई। यदि हम ऐसा नहीं कर पाएंगे तो हमारे विश्वविद्यालयों का कोई अर्थ नहीं होगा। हिंदी के पक्ष में महात्मा गांधी के इन भाषणों को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि मैं जिस अपार्टमेंट में रहता हूँ वहाँ केवल उत्तर भारतीय ही हैं। मेरे अब तक के अनुभव से ऐसा राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व मैंने कहीं नहीं देखा। अपार्टमेंट में लगभग 300 परिवार होंगे – उड़िया बंगाली असमी अरुणाचल से लेकर गुजरात उत्तर प्रदेश बिहार और पड़ोस के राज्य आंध्र तमिलनाडु केरल तेलंगाना इत्यादि।
बेंगलुरु शहर ही ऐसा है! आईटी हब। देशभर की पूरी नौजवान प्रतिभा को खींचने वाला। और इसलिए दुनिया भर की कंपनियां इस शहर को चुनती हैं। यहां के मौसम और दूसरे आकर्षण से। इसे सिलिकॉन सिटी भी कहा जाता है। भारतीय भाषाओं को बढ़ाने में माइक्रोसॉफ्ट गूगल जैसी आईटी कंपनियों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैं तो कहूंगा इतना तो अरबों रुपये खर्च करके भारत सरकार भी नहीं कर पाई। बोलकर लिखने की सुविधा से लेकर भारतीय बोलियों तक को जगह मिली है और यह तकनीकी पक्ष भी देश में एक लिंक भाषा को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ा माध्यम साबित होने जा रहा है।
लेकिन हमें समझदारी से चलना होगा! महात्मा गांधी को फिर से याद करें तो “जो बदलाव हम दुनिया में चाहते हैं वह पहले हमें अपने अंदर करना होगा” यानि पहले उत्तर भारत के लोग और समाज अपनी भाषा को महत्व दें! उसे अपने जीवन-शिक्षा और शासन-प्रशासन में अपनाएँ! हिन्दी प्रदेशों में हिंदी की दुर्गति सबसे ज्यादा हो रही है, यह सच है।
बेंगलुरु का ही अनुभव लूँ, तो यहाँ हिन्दी प्रदेशों के लोग हिंदी का प्रयोग करने में सबसे पीछे हैं। एक गुलाम मानसिकता के मारे हैं! शायद ही उनके घरों में हिंदी के स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा हिंदी की कोई पुस्तक या उपन्यास मिलेगी! अपने दूध पीते बच्चे और कुत्तों के साथ भी अंग्रेजी की रिहर्सल हर समय करते हैं।
धार्मिक उत्सवों और फिल्मों में हिंदी में गाने बजाना अलग बात है, सबसे महत्वपूर्ण है हमारी शिक्षा और दैनंदिन जीवन में वैसी ही सहजता से हिन्दी को अपनाना जैसे दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक तमिलनाडु केरल आंध्र प्रदेश के लोग करते हैं। देश की सभी भाषाओं को भी बराबर सम्मान मिलना चाहिए और विदेशी भाषाओं से अधिक!!
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