भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति और व्यवस्था में उनकी उपस्थिति के बीच आईआईटी में लड़कियों का परचम
भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति और व्यवस्था में उनकी उपस्थिति बहुत अच्छी तो नहीं है, परंतु सरकार के स्तर पर जो सार्थक कदम उठाए जा रहे हैं, इसमें पूरे समाज को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी!
हिजाब घूंघट दहेज तीन-तलाक बलात्कार उत्पीड़न इत्यादि की घटनाओं के बीच अच्छी खबर यह है कि लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ रही हैं। ताजा खबर के अनुसार दक्षिण के राज्यों में आईआईटी में लड़कियों की संख्या पिछले 5 साल में 19 प्रतिशत से बढ़कर 26% को भी पार कर गई है। यह किसी सामाजिक क्रांति से कम नहीं है। जहां लड़कियों को, विशेष कर उत्तर भारत में कुछ साल पहले लड़कों के मुकाबले कमजोर बुद्धि मानकर गणित के बजाय होम साइंस पढ़ने के लिए मजबूर किया जाता था, आज विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी उन्होंने अपना दमखम साबित किया है। और कई बार तो लड़कों से बेहतर। सरकार ने मौका दिया और सही समय पर कदम उठाए गए, उसके परिणाम सामने हैं।
वर्ष 2014 तक आईआईटी में लड़कियों का प्रतिशत केवल 14% था।वर्ष 2018 में मौजूदा सरकार ने इसे बढ़ाकर 17% किया और हर साल बढ़ाते हुए अब यह 20% हो गया है। नतीजा जहां 2017 में आईआईटी में लड़कियों की संख्या 995 थी, मौजूदा सत्र में यह संख्या 3411 हो गई है। आने वाले वर्षों में यह संख्या और भी बढ़ेगी। जाति के विभाजनकारी और अवैज्ञानिक, बदबूदार विमर्श के बीच क्या सामाजिक बराबरी और सौहार्द के लिए यह कदम अधिक सार्थक नहीं है? 21वीं सदी के भारत में केवल जाति के भरोसे विकास और सच्ची बराबरी संभव नहीं हो सकती।
इसमें भी यह तरक्की महाराष्ट्र समेत दक्षिण के राज्यों में अधिक बेहतर है। दूसरे सामाजिक अध्ययन भी बताते हैं कि दक्षिण के राज्यों की प्रगति में महिलाओं की शिक्षा का विशेष योगदान रहा है। यही बात बांग्लादेश और अन्य देशों की तरक्की बताती है, जहां महिलाओं की शिक्षा के लिए विशेष कदम उठाए गए।
लड़कियों की शिक्षा के लिए उठाए कदमों के बहुत अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। हाल ही में चंद्रयान की सफलता के पीछे भी अनेकों महिला वैज्ञानिकों का योगदान रहा है। युवा वैज्ञानिक पुरस्कार पाने वालों में महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। आप याद करें पिछले 100 वर्ष तक महिला वैज्ञानिकों में सिर्फ एक विदेशी मैडम क्यूरी का ही नाम इस देश के लोग जानते रहे हैं। अब विज्ञान के कई क्षेत्रों में भारत की महिलाओं ने अपना झंडा फहराया है।
यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षाओं के परिणाम तो पूरा देश जानता है। वर्ष 2022 की परीक्षा में पहले पांच स्थानों में चार लड़कियां थीं और उससे पिछले 4 सालों में भी लगातार लड़कियां ही टॉप करती रही हैं। हर वर्ष सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियों की सफलता लड़कों के मुकाबले कई गुना अच्छी है। अधिकतर राज्यों के परिणाम हों या सीबीएसई के रिजल्ट, लड़कियों की सफलता देश की भविष्य के प्रति उम्मीद जगाती है। लड़कियों की क्षमता और बराबरी के अधिकार के लिए जो रक्षा सेवाएँ दशकों तक महिलाओं के लिए बंद रहीं, उनके दरवाजे भी अब खुल गए हैं। लगभग 10,000 महिला अधिकारी इस समय देश की तीनों सेनाओं में काम कर रही हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। बराबरी के लिए एक सच्चे भारतीय लोकतंत्र की मिशाल!
इसके बावजूद उनके साथ भेदभाव की खबरें आती रहती है। मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनुभव से कह सकता हूँ, वहां आज भी लड़कियों के साथ भेदभाव पूरी तरह कायम है। जहां लड़कों को कोचिंग में पढ़ने के लिए देश के दूसरे शहरों महानगरों में अच्छा-खासा पैसा खर्च करके भेजते हैं, वहाँ बेटियों को कॉलेज तक भी मुश्किल से भेजते हैं। कानून-व्यवस्था और सामाजिक कारण भी इसके लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, लेकिन मानसिक स्तर पर समाज को उन्हें बराबरी का अधिकार देना होगा।
लगभग 10 साल पहले मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद सबसे बुरा असर लड़कियों की शिक्षा पर पड़ा था और दोनों समुदायों ने लड़कियों को स्कूल या कॉलेज में भेजना रोक दिया था। हरियाणा बिहार और उत्तर के दूसरे राज्यों की भी यही स्थिति है। मैं न जाने कितने परिवारों को जानता हूं जिनके बेटे तो इंजीनियर और आईएएस बने, लेकिन उनकी बेटियां को शिक्षा के लिए आगे नहीं पढ़ाया गया और उम्र से पहले ही जबरन शादी कर दी गई। इस परिदृश्य को तुरंत बदलना होगा।
वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा संसद में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का प्रावधान इस दिशा में एक बहुत सकारात्मक कदम है। ऐसे राजनीतिक कदम का संदेश दूर तक जाता है, जैसे 73 और 74वें संविधान संशोधन, जिसके द्वारा पंचायत राज और निकायों में आरक्षण किया गया, उसके बहुत अच्छे परिणाम आए हैं। फिर भी भारत के लोकतंत्र में महिलाओं को वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वह हकदार हैं।
याद कीजिए, 1925 में जब सरोजिनी नायडू को कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नामित किया गया था तब तक महिलाओं की ऐसी बराबरी की बात यूरोप अमेरिका और चीन में भी नहीं होती थी। अभी भी राजनीति में जो महिलाएं सक्रिय हैं, वे अधिकतर राजनीतिक घरानों, परिवारों से संबंध रखती हैं। अच्छी स्त्री शिक्षा के जरिए इस वंशवादी लोकतंत्र में भी बदलाव संभव होगा।
लेकिन महिलाओं की सच्ची बराबरी के लिए अभी बहुत दूर तक सतत प्रयास करने होंगे। वर्तमान लोकसभा में भी महिलाओं का प्रतिशत मात्र 14 है, जो दुनिया में लोकतंत्र के पैमाने पर बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। यूरोप अमेरिका और कई देशों के लोकतंत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 50% से भी ज्यादा है। और तो और, अफ्रीका के रवांडा की संसद में 60% महिलाएं हैं।
दुनिया भर में किसी भी समाज-देश को मानवीय आधुनिकता के संदर्भ में महिलाओं की बराबरी के पैमाने से आंका जा सकता है। जहां यूरोप अमेरिका दुनिया भर में प्रथम हैं, तो मिडिल ईस्ट उर्फ मुस्लिम देशों में महिलाओं की स्थिति बहुत निराशाजनक है। काले-काले बुर्के में गठरी बनी महिलाओं की कतारें और उनके ऊपर अमानवीय बंदिशें, मन को बहुत विचलित करती हैं। भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति और व्यवस्था में उनकी उपस्थिति बहुत अच्छी तो नहीं है, परंतु सरकार के स्तर पर जो सार्थक कदम उठाए जा रहे हैं, इसमें पूरे समाज को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
#प्रेमपाल शर्मा, प्रबुद्ध साहित्यकार हैं और संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय, भारत सरकार रह चुके हैं। संपर्क: 99713 99046