घंटी.. घंटा… और गुरूघंटाल…
व्यंग्य
ये छोटी-छोटी डिटेल्स ही तो हैं, जिनका आपको ख्याल रखना है और इतिहास में अमर होना है। अब सोचो सन् 1853 से 2023 होने को आया, 170 साल में किसी का भी ध्यान घंटी की तरफ गया? कतई नहीं गया। क्योंकि यह महान काम आपके करकमलों से होना था। ऐसे ही नहीं कोई महान बनकर अमर हो जाता। इसके लिए बलिदान लगता है, जो आपने सहर्ष दिया, अपनी घंटी हटाकर! आपने अपनी घंटी हटाकर बाकी सबकी घंटी बजा दी!
एक ताजा खबर के अनुसार नेता जी ने फरमान जारी किया है। अफसरों के कमरों से घंटी हटा ली जाए। कारण ? कारण यह कि बकौल नेता जी, घंटी सामंतवाद का प्रतीक है और वो भी अंग्रेजी सामंतवाद का। जबकि हम लोकशाही में रह रहे हैं। अंग्रेजी में बोले तो दीमोक्रेसी में। अतः अब आप अपने प्यून, चपरासी, पाटीदार, अनुचर, एमटीएस को बुलाने या तो खुद जाएं या उसे फोन करके आने का निवेदन, अनुरोध, प्रार्थना कर सकते हैं। इससे सामंतवाद की तुरन्त मृत्यु हो जाएगी। सब कुछ कितना आसान कर दिए हैं साहेब।
घर में मसाला आदि पीसने की चक्की को घर-घंटी कहते हैं। सो अब नेता जी की अगली नजर आपकी घर-घंटी पर है। अर्थात अच्छा ! आप 56 भोग और 36 व्यंजन खाने को मसाला पीसते हैं। लगाओ इन पर 75% जीएसटी। आपको अपने पड़ोसी का जरा भी ख्याल नहीं। देखते-सुनते नहीं हैं, हमारे चैनल दिन-रात दिखा रहे हैं कैसे अपने पड़ोसी देश में लोग भूख से मर रहे हैं और अपनी-अपनी हैसियत मुताबिक नेशनल और इंटरनेशनल प्लेटफाॅर्म पर भीख मांग रहे हैं।
कहते हैं मुगल सम्राट जहांगीर ने अपने महल में एक घंटी लगा रखी थी और रस्सी का सिरा महल के नीचे लटका रखा था, ताकि फरियादी किसी भी वक्त अपनी फरियाद सुना सके। लेकिन अब फरियाद नहीं सुनाई जा सकेगी। आप सुनाना चाहो तो भी कैसे सुनाओगे? किसे सुनाओगे? जब घंटी ही नदारद है। कोई सुन भी लेगा तो एक्शन कैसे लेगा। उसके लिए तो फाइल बनानी पड़ेगी, इधर से उधर ले जानी पड़ेगी। और घंटी है नहीं। वैसे आप मोबाइल फोन की बात करते हो तो वो फेंक कर तो नहीं मारोगे। आखिर बजाएगा तो वो भी घंटी ही।
एक ऑफिस में जब सारा डेटा डिजिटल किया गया तो उसके रखरखाव के लिए एक भव्य कम्प्यूटर सैक्शन का धूमधाम से उद्घाटन नेता जी ने किया और बताया कि कैसे अब माउस के एक क्लिक से ही सारा रिकाॅर्ड मुहैय्या हो जाएगा। पर वो अपने विभाग के बिलौटों को भूल गए, जिन्होंने अपना ‘सुविधा शुल्क’ रातों रात दुगना-तिगुना कर दिया। कारण अब उनका जवाब होता “पहले तो हमारे हाथ में था, अब तो सारा कुछ कम्प्यूटर रूम में है। वहां परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। वहां काम करने वाले खुद जूता-चप्पल उतारकर ही अंदर जा पाते हैं।”
बेहतर रहता नेता जी निर्देश देते कि चपरासी भी अब साहब के साथ चैंबर में अंदर ही बैठेगा। अच्छा समाजवाद रहता। कभी कोई चपरासी को साहब समझता तो कोई और साहब को चपरासी। सोचो इससे चपरासी का मोटीवेशन लैवल कहां का कहां होता।
करना तो ये चाहिए था कि हर बड़े साब के कमरे में एक घंटा लगा दिया जाता और उसकी रस्सी बाहर/ नीचे लटका दी जाती, ताकि फरियादी संबधित अफसर की नाक में नकेल डाल सकते। मैंने आइडिया दे दिया है। आप अपने अगले ‘क्रांतिकारी’ कदमों की श्रंखला में इसे अपना आइडिया बताकर शामिल कर सकते हैं। कोई वान्दा नहीं।
वैसे देखें तो चपरासी भाई अपनी सीट पर मिलते भी कहां हैं। एक जान सौ-सौ काम। मैंने कितनी बार देखा है अफसर बेचारे खुद ही चाय बना रहे होते हैं या पानी पिला रहे होते हैं। एक चपरासी की घंटी दूसरा चपरासी नहीं सुनता है। उसमें न केवल उसकी सीनियाॅरिटी आड़े आती है, बल्कि जो अफसर घंटी बजा रहा है उसकी सीनियाॅरिटी की भी गणना होती है। असल में एक चपरासी की श्रवण क्षमता अपने साब की घंटी की फ्रीक्वेंसी/ वेवलैंथ सुनने को ही प्रोग्राम्ड होती है। और यदि सब चपरासी उपस्थित हों तो आपसी हँसी ठट्ठा कर रौढ़ा डालते रहते हैं।
सोचा जाए तो ये छोटी-छोटी डिटेल्स ही तो हैं, जिनका आपको ख्याल रखना है और इतिहास में अमर होना है। अब सोचो सन् 1853 से 2023 होने को आया, 170 साल में किसी का भी ध्यान घंटी की तरफ गया? कतई नहीं गया। क्यों? क्योंकि यह महान काम आपके करकमलों से होना था। आपका न केवल ध्यान घंटी पर गया, बल्कि आपने ध्यान भंग करने वाले इस बैरी यंत्र को हटाने की ही भीष्म प्रतिज्ञा कर डाली और हटाकर ही दम लिया। ऐसे ही नहीं कोई महान बनकर अमर हो जाता। इसके लिए बलिदान लगता है, जो आपने सहर्ष दिया, अपनी घंटी हटाकर। आपने अपनी घंटी हटाकर बाकी सबकी घंटी बजा दी। वे तब से यही सोच रहे हैं कि हम क्या करें? क्या हटायें कि हम भी महान और अमर हो जाएं। कुछ तो इस दिशा में कुर्सी, मेज, सोफा, मिरर तक हटाने की सोच रहे हैं। ये सब पाश्चात्य और विलासिता के उपकरण हैं। जनसेवकों को सादा जीवन उच्च विचार रखने चाहिए।
अब यह भी हो सकता है कि घंटी नहीं, घंटा नहीं, अब केवल गुरूघंटाल ही रहेंगे। आपको तो मालूम ही है गुरूघंटालों को न घंटी की दरकार है, न घंटा की। घंटी और घंटा दोनों उन्हीं में समाये हैं। वो जब चाहें अपना काम करा के ये जा वो जा। आप जो भी आपके पास है – घंटी या घंटा – बैठे बजाते रहें!
डाॅ रवीन्द्र कुमार पूर्व आईआरपीएस और सुप्रसिद्ध साहित्यकार और व्यंग्यकार हैं।