शिक्षा में स्वास्थ्य
कोरोना महामारी को देखते हुए अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य को स्कूली शिक्षा की केंद्रीय भूमिका में रखना होगा और इसके लिए स्कूलों में पीटी जैसे आसान विकल्पों को तुरंत लागू किया जाना चाहिए!
प्रेमपाल शर्मा
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।बचपन में उत्तर प्रदेश के हमारे स्कूलों की दीवारों पर लिखी यह इबारत रोजाना की स्कूली दिनचर्या में भी प्रतिबिंबित होती थी। स्कूल की शुरुआत प्रार्थना और फिर लगभग 15 मिनट फिजिकल ट्रेनिंग (पीटी) और उसके बाद कोई देश-विदेश के मुख्य समाचार या स्कूल की गतिविधियों की जानकारी से होती थी।
उत्तर प्रदेश और कुछ राज्यों के सरकारी स्कूलों में यह अभी भी कुछ-कुछ हो रहा है, लेकिन महानगरों, नगरों के निजी महंगे स्कूलों में बिल्कुल नहीं। जबकि महानगरों के थुल-थुल होते बच्चों के लिए तो फिजिकल ट्रेनिंग जैसे नियमित व्यायाम की जरूरत और भी ज्यादा होती है।
गांव-देहात के बच्चे तो आसपास से दो-चार किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। खेती किसानी के कामों में हाथ बढ़ाते हैं, शहरी बच्चे तो उतना ही दूर होते चले गए हैं। जितने ज्यादा अमीर उतना ही कम शारीरिक श्रम। यहां तक की नवोदय, केंद्रीय विद्यालयों में भी इसे उतनी ही सख्ती से पालन करने की जरूरत है।
दिल्ली जैसे शहर में योग आदि का ढ़ोल पीटा जाता है, लेकिन हकीकत में न तो कराया जाता और न ही उसे करना इतना आसान है। योग करने के लिए एक अच्छा फर्श चाहिए, दरी चाहिए और विशेष प्रशिक्षित शिक्षक भी, यानी कई तरह के झमेले। जबकि पीटी में सावधान विश्राम और खड़े-खड़े पांच-छह आसान व्यायाम पर्याप्त रहते हैं।
यहां योग से तुलना का उद्देश्य नहीं है। इतना रेखांकित करना है कि अच्छी शिक्षा अपने आसपास उपलब्ध सुविधाओं, हकीकत से संचालित होगी, तभी उसका उद्देश्य पूरा होता है तथा बच्चे और अभिभावक उसमें ज्यादा खुशी से शामिल होते हैं।
कोई भी समाज या देश अपनी परंपराओं और आधुनिक बोध को आत्मसात करते हुए ही बेहतर ढंग से आगे चलता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने तो कहा भी है कि “मैं अपने पुरखों के कंधों पर बैठा हुआ हूं।पुराने अनुभवों वैज्ञानिकों से सीखते हुए ही मैं आगे बढ़ने में सक्षम हुआ हूं।”
आजादी के दौर में या उसके तुरंत बाद जब ज्यादातर स्कूली शिक्षा सरकारी नियंत्रण में थी, तो बहुत सोच विचार कर पीटी जैसी चीजें शामिल की गई थीं, लेकिन निजी स्कूलों, जो सरकारी स्कूलों की आधी से ज्यादा आबादी को निगल चुके हैं, ने ज्यादातर इसे समय की बर्बादी माना और धीरे-धीरे उससे दूर होते चले गए। उसकी जगह नए-नए टोटके एरोबिक्स, चांटिंग, हेल्थ प्रोजेक्ट के नामों से करते हैं। और इसलिए भी कि अमीर बच्चों से ज्यादा फीस वसूल कर सकें।
महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों की नई तालीम का असर भी प्रार्थना और व्यायाम में साथ था। गांधी जी का कहना था कि “ज्यादातर यह देश गरीब है और इसीलिए इसमें ऐसे खेल और व्यायाम शामिल होने चाहिए जो बिना किसी अतिरिक्त पूंजी या खर्च के सभी लोग कर सकें।” वे तो अपने हाथ से काम करने, खेती का काम करने वाले, चरखा चलाने वाले कामों को भी शिक्षा में खेल और व्यायाम का हिस्सा मानते थे और इस बिंदु पर रविंद्र नाथ टैगोर के विचारों के साथ उनका कुछ मतभेद भी रहा था।
नई शिक्षा नीति-2020 में वोकेशनल शिक्षा, मातृ भाषा पर तो फिर से ध्यान दिया गया है, पर पीटी, व्यायाम जैसे पक्ष इसमें ओझल हो गए हैं। अच्छा हो शिक्षा मंत्रालय भारतीय स्कूलों की पुरानी व्यवस्था से सीखते हुए इसे सभी निजी और सरकारी स्कूलों में तुरंत अनिवार्य बनाए। यह भी देखने की जरूरत है कि सिर्फ आदेश या सर्कुलर जारी करने से काम नहीं चलने वाला।
सीबीएसई बोर्ड ने कुछ वर्ष पहले ऐसा सर्कुलर जारी किया था कि बच्चों से स्कूल की सफाई आदि में हाथ बंटाने के लिए कहा जाए। यह अच्छा कदम था लेकिन अभिभावकों, निजी स्कूलों ने तो इसका विरोध तक किया और सरकारी स्कूलों में भी इस सर्कुलर को वह सम्मान नहीं मिला कार्यान्वयन के स्तर पर, जितना मिलना चाहिए था। देखा जाए तो डिग्निटी ऑफ लेबर, श्रम का महत्व, शिक्षा में ऐसे ही कदमों से चुपचाप शामिल हो जाता है। हाथ से काम करने वालों के प्रति उनके कष्टों का एहसास भी बच्चों को होना चाहिए।
नवोन्मेष, मॉडर्न एजुकेशन के नाम पर नित नए प्रयोग करने की होड़ तो लगी हुई है, लेकिन स्पष्ट विजन या दूरदर्शिता के अभाव में हम यह नहीं बता पा रहे कि हमें जाना कहां है? इसका मुख्य कारण भी यह है कि सलाहकार और नौकरशाह दोनों ही देश की समस्या और गरीबी से बहुत ऊंचे मचान पर बैठे हैं।
किसी समय स्कूलों में “हमारे पूर्वज” किताब आठवीं तक अनिवार्य थी, जिसमें लगभग 50 महापुरुषों के जीवन परिचय होते थे। उसमें देशभक्ति, समाज सेवा, नैतिक आचरण, ईमानदारी, साहस, त्याग, विश्व भावना सब कुछ आ जाता था। क्या सिर्फ किसी किताब का नाम देशभक्ति पाठ्यक्रम रख देने से वह उद्देश्य पूरा कर पाएगी? वैसा ही “हैप्पीनेस” के नाम पर एक बनावटी किताब बनी है।
एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में पूरक पुस्तकें या अच्छे पुस्तकालय अथवा पूरक सामग्री की बहुत सारी किताबें पढ़ने का सुझाव पहले से ही उपलब्ध है। स्कूल और शिक्षक ध्यान दें, तो उनसे बेहतर शिक्षा दी जा सकती है।
कोरोना महामारी को देखते हुए अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य को स्कूली शिक्षा की केंद्रीय भूमिका में रखना होगा और इसके लिए स्कूलों में पीटी जैसे आसान विकल्पों को तुरंत लागू किया जाना चाहिए। आठवीं कक्षा तक के लिए स्वास्थ्य और भारतीय बीमारियों आदि के बारे में डॉक्टरों, वैज्ञानिकों द्वारा विशेष रूप से तैयार की गई स्वास्थ्य की किताबें भी पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए।
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