जिसे निज देश, निज भाषा और निज गौरव का अभिमान नहीं! वह नर नहीं, नरपशु निरा, और मृतक समान है!!
“काबिलियत” नहीं – “योग्यता”। “इंसान” नहीं – “आदमी”, “मनुष्य”। “इंसानियत” नहीं – “मानवता”, “मानवीयता”
सुरेश त्रिपाठी
जिस प्रकार “काबिलियत” का शाब्दिक या भाषिक कोई अर्थ नहीं निकलता। उसी प्रकार “इंसान” और “इंसानियत” शब्दों के साथ भी है। यह केवल आभासी हैं, जो केवल आभास देते हैं। जबकि “योग्यता”, “योग्य” से बना शब्द है, जो “योग्य” है, वही “योग्यता” को धारण करता है। “काब” का कोई अर्थ नहीं निकलता, इसलिए उससे बने “काबिलियत” शब्द का भी कोई अर्थ नहीं है! यह केवल आभासी है।
हम और हमारी भाषा क्या इतने दरिद्र हो गए हैं कि अपने दैनंदिन बोलचाल और कार्य-व्यवहार में उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी के निरर्थक शब्दों का घालमेल कर रहे हैं? अथवा जाने-अनजाने उनका उपयोग करके हम क्या स्वयं को ज्यादा जानकार, योग्य या श्रेष्ठ बताने-जताने का प्रयत्न करते हैं?
माना कि शब्दों के आदान-प्रदान से भाषाएं समृद्ध होती हैं, पर क्या हमारी भाषा इतनी दरिद्र है कि हम उसके लिए दूसरी भाषाओं के निरर्थक शब्दों का आयात करें?
हिंदी स्वयं में एक अत्यंत समृद्ध भाषा है। किसी अन्य भाषा के शब्दों को उधार लिए बिना हम अपने आपको हिंदी में बहुत सरलता से व्यक्त कर सकते हैं। इसके हर तात्विक शब्द के कई-कई पर्यायवाची उपलब्ध हैं।
इसके अलावा दुनिया की लगभग सभी भाषाओं की जननी “संस्कृत” हमारी वैदिक, ऐतिहासिक धरोहर भी हमारे पास सुरक्षित है। तथापि अगर हमें नए शब्दों की आवश्यकता है, तो उन्हें गढ़ा जाना चाहिए अथवा उनकी खोज संस्कृत में की जानी चाहिए।
स्मरण रहे, “जो व्यक्ति अथवा समाज उधार पर जीवनयापन करता है, वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहता। इसी प्रकार जो भाषा उधार के शब्दों पर अवलंबित हो जाती है, उसका अस्तित्व शीघ्र समाप्त हो जाता है। अतः हमें अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी के उन शब्दों का प्रयोग-उपयोग करने से भरसक बचना चाहिए, जिनके अर्थ वास्तव में हमें ज्ञात नहीं होते हैं।”
जिसे निज देश, निज भाषा और निज गौरव का अभिमान नहीं! वह नर नहीं, नरपशु निरा, और मृतक समान है!!