December 30, 2020

सैंया भए कोतवाल, अब डर काहे का!

Think from the perspective of the people and take decision on time for the benefit of them.

यदि उनके पद-रसूख की आड़ में उनकी मैडमें अपनी हर दमित इच्छा-आकांक्षा पूरी कर लेना चाहती हैं, तो भी वह किस काम का, क्योंकि इसके लिए उन्हें अपनी गरिमा, अपनी मर्यादा, मान-सम्मान गवाना पड़ रहा है और बेशर्मी अपनाकर अपनी आत्मा गिरवी रखनी पड़ रही है!

सुरेश त्रिपाठी

वैसे तो घर-परिवार के प्रबंधन की जिम्मेदारी सदियों से महिलाएं बखूबी संभालती और निभाती आ रही हैं। तथापि पिछले कुछ दशकों से वह घर की दहलीज लांघकर विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन और प्रबंधन की जिम्मेदारी भी बहुत अच्छी तरह निभा रही हैं। इसके अलावा, घर हो या बाहर, हर जगह पुरुषों की नकेल भी पूरी तरह महिलाओं के ही हाथों में होती है, यह भी सही है।

व्यक्ति की व्यक्तिगत गरिमा उसके कृतित्व पर निर्भर होती है। परंतु जहां बात पद की गरिमा की आती है, वह सामाजिक हो या प्रशासनिक, वहां थोड़ी-बहुत नैतिकता और शुचिता का भान रखना अनिवार्य हो जाता है। यह भान स्त्री-पुरुष दोनों को ही अपने-अपने तौर पर रखना पड़ता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि एक की मर्यादा जाती है, तो दूसरे की अपने आप चली जाती है।

अब बात यह है कि कुछ महाप्रबंधकों की पत्नियों उर्फ मैडमों द्वारा रेलवे की कुछ उत्पादन इकाईयो, रेलवे स्टेशनों, रेलवे कालोनियों, कारखानों का निरीक्षण बाकायदे प्रोग्राम बनाकर किया जा रहा है।

इससे वहां के कर्मचारी और छोटे स्तर के अधिकारी असहज महसूस कर रहे हैं। कार्यालयीन अथवा प्रशासनिक या नौकरी के मजबूरन शिष्टाचारवश संकोच एवं असमंजस के कारण वह कुछ बोल तो नहीं पाते, मगर कसमसा जरूर जाते हैं।

जोनल रेलों या उत्पादन इकाईयों के महाप्रबंधक अगर रेलवे स्टेशनों, रेलवे कॉलोनियों या कारखानों का निरीक्षण करें, तो वह ऑफिसियल प्रोग्राम होता है, लेकिन श्रीमान विनोद कुमार यादव के रेलवे का हीरो (सीईओ) बनने के बाद से जहां एक तरफ जोनल रेलों/उत्पादन इकाईयों के सारे महाप्रबंधक “जीरो” हो गए, वहीं उनकी पत्नियां बकायदे ऑफिसियल टूर प्रोग्राम बनाकर रेलवे के कारखानों और रेलवे कॉलोनियों का निरीक्षण करने निकल पड़ी हैं।

पुरस्कार/अवार्ड वितरण हो, तो वह मैडम के हाथों से कराया जा रहा है। स्पोर्ट्स मीट हो, तो उसका उदघाटन मैडम के कर-कमलों द्वारा किया जा रहा है। जन-जागरूकता रैली निकल रही है, तो उसे भी मैडम ही हरी झंडी दिखा रही हैं।

जीएम इंस्पेक्शन है, तो मैडम अनिवार्य रूप से साथ जाएंगी ही, और जीएम को खुश करने अथवा उनकी नजर में आने के लिए ही सही, मंडल अधिकारी वहां मैडम जी के हाथों फीते कटवाकर, रिमोट से अनावरण करवाकर ऊल-जलूल उदघाटन कार्यक्रमों को अंजाम दे रहे होते हैं।

इससे रेलवे में ऐसा परिदृश्य उपस्थित होने लगा है कि अब रेलवे की कमान पुरुषों (महाप्रबंधकों) के नहीं, बल्कि स्त्रियों (उनकी मैडमों) के हाथों में है। महाप्रबंधक तो वह सिर्फ नाम के रह गए हैं, उनकी डोर तो कहीं और है, वह तो किसी और ने थामी हुई है।

इसीलिए सामान्य रेलकर्मी और अधिकारी मुंह बिचकाकर व्यंग्य से रेलवे के कथित सीईओ और रेलमंत्री की जयकार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे शायद यही सब ड्रामेबाजी करके रेलवे को आधुनिक प्रगति के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, क्योंकि रेलवे की दुर्गति तो वह पहले ही कर चुके हैं।

यह भी सर्वज्ञात है कि डिवीजनल, जोनल और बोर्ड तक बने महिला संगठनों के नाम पर कांट्रैक्टरों-सप्लायरों आदि से जो “कलेक्शन” होता है, उसका अधिकांश हिस्सा मैडमों की रंगबाजी अथवा शो-ऑफ की ही बलि चढ़ता है।

यह कलेक्शन संबंधित डिवीजन-जोन प्रमुख के पद के रसूख की बदौलत या दबाव में ही मातहतों के माध्यम से “कलेक्ट” करवाया जाता है। इस “कलेक्शन” का कोई हिसाब किसी “कलेक्टर” को कभी पता नहीं चलता। हालांकि अंदरखाने सबको इसका अंदाजा होता है कि इसका क्या हुआ और इसे कौन, किस रूप में ले गया!

निश्चित रूप से इस सब में मैडमों की महत्वाकांक्षा, दिखावा, शो-बाजी और संबंधित महाप्रबंधकों द्वारा उन्हें अपने मातहतों के सामने “ओब्लाइज” करने इत्यादि भावनाओं का समावेश होता है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने मातहतों को यह दर्शाना चाह रहे हों कि “देख लो, हम ‘इनके’ सामने जैसे रहते हैं, वैसे ही तुम सब भी रहा करो!”

तथापि दोनों यह भूल जाते हैं कि जल्दी ही यह पद और रुतबा उनके पास नहीं रह जाएगा! यह स्थाई नहीं है! कभी किसी के लिए नहीं रहा! फिर क्या होगा! क्या रिटायरमेंट के बाद खुद के खर्च पर यह सारा शो-ऑफ वह कर पाएंगे, या कर सकते हैं!

क्या किसी को ज्ञात है कि आज ‘कान्ताबाई’ कैसे जीवनयापन कर रही हैं, जिनके आगे-पीछे दसियों सरकारी नौकर लगे रहते थे और उनकी गंदी-गंदी गालियां सुनते थे? और कल ‘तनुजा मैडम’ का क्या होगा?

रिटायरमेंट के बाद तो उन्हें उनके यही मातहत हेय दृष्टि से देखने लगते हैं, बल्कि देखकर भी मुंह फेर लेते हैं। तब इन्हीं मातहतों की नजर में उनकी कौड़ी भर भी इज्जत नहीं रह जाती है।

क्या यही सोचकर पद पर रहते वे खुद और उनके पद-रसूख की आड़ में उनकी मैडमें अपनी हर दबी हुई इच्छा-आकांक्षा पूरी कर लेना चाहती हैं? यदि ऐसा भी है, तो भी किस काम का, क्योंकि इसके लिए उन्हें अपनी गरिमा, अपनी मर्यादा, अपना मान-सम्मान गवाना पड़ रहा है। बेशर्मी अपनाकर अपनी आत्मा गिरवी रखनी पड़ रही है। यदि वह ऐसा नहीं मानते हैं, तब वह बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रहे हैं, सिर्फ यही कहा जा सकता है।

इस कीमत पर यह सब करके अथवा पाकर जीवन के अंत तक भी क्या आत्मग्लानि से मुक्त होकर मुक्ति पा सकेंगे? यदि हां, तो और जमकर करें! यदि नहीं, तो यह सब तत्काल बंद कर दिया जाए! क्योंकि यह सब वैसे भी नियम, मर्यादा और पदानुरूप आचरण के विरुद्ध है।

पूर्व एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, रेलवे बोर्ड, रेल मंत्रालय, श्री प्रेमपाल शर्मा इस संदर्भ में आत्मिक पीड़ा महसूस करते हुए कुछ तल्ख लहजे में कहते हैं, “रेलवे की इस सामंती चापलूसी और निहित स्वार्थी प्रवृति पर ‘रेलवे समाचार’ ने बार-बार प्रहार किया है। इसे 21वीं सदी का लोकतंत्र कैसे कहा जाए, जिसमें सरकारी कार्य में घरवालों का ऐसा कोई दख़ल हो! अच्छा हो कि कोई पुख्ता नियम बने, जिसमें इनकी भागीदारी समाप्त की जाए। काश कि 2021 में रेल के बदलाव में यह बदलाव भी तुरंत शामिल हो!”

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