औरंगाबाद ट्रेन हादसा: दुर्घटना या साजिश !!

How anyone can sleep deep on railway track?

रेल पटरी पर 16 लोग कट कर मर गए। हर कोई कहता है कि वे सब रेल पटरी पर सो रहे थे? क्या वास्तव में यही सच है? क्या इस पर आंख मूंदकर विश्वास किया जा सकता है?

रेलवे ट्रैक को मैंने बहुत नजदीक से देखा है। सालों तक रेलवे ट्रैक पर चला हूं। कभी पैदल तो कभी ट्रॉली से उस पर चलता रहा हूं। मैं खुद एक ट्रैक इंजीनियर था। अपनी आंखों के सामने कई लोगों को रनओवर होते देखा है। अपने स्टाफ को कटते हुए देखा है।

किंतु जब से औरंगाबाद की यह दर्दनाक घटना सुनी है, सारे सवालों का मैं जवाब नहीं ढूंढ पा रहा हूं।

माना कि वे अभागे मजदूर सुबह के लगभग चार बजे रेल लाइन पर पैदल चल रहे थे।

ट्रेन ड्राइवर ने कई बार हॉर्न बजाया। परंतु उनको सुनाई नहीं दिया। किंतु 4 बजे अंधेरा होता है। हॉर्न नहीं भी सुना, पर ट्रेन के इंजन की हेडलाइट इतनी तेज होती है कि सीधे ट्रैक पर 10 किमी दूर से दिख जाती है। और जहां तक मेरी जानकारी है, उस जगह ट्रैक एकदम सीधा था। वहां न कोई कर्व था और न कोई ढलान थी।

तो फिर क्या 16 के 16 मजदूरों को ट्रेन के तीखे हॉर्न के साथ-साथ इंजन की हेडलाइट भी नहीं दिखाई दी? ऐसा कैसे हो सकता है? ये कैसा मजाक है?

दूसरी संभावना कि मजदूर थककर ट्रैक पर ही सो गए थे। 50 एमएम से लेकर 64-65 एमएम के मोटे और नुकीले पत्थरों पर कुछ देर के लिए बैठकर सुस्ताया तो जरूर जा सकता है, पर उनके ऊपर सोया तो कदापि नहीं जा सकता। वह भी इतनी गहरी नींद में, कभी नहीं।

यहां बता दूं कि जब पटरी पर ट्रेन 100 किमी की स्पीड में दौड़ती है, तो ट्रेन के चलने से पटरी में इतनी जोर से वाइब्रेसन (कंपन) होते हैं कि 5-6 किमी दूर तक रेल पटरी कंपकंपाती रहती है। चर्र-चर्र चरमराहट की तीखी आवाज आती है, सो अलग।

तो यदि मान भी लिया जाए कि 16 मजदूर थक-हारकर रेल पटरी पर ही सो गए थे, तो क्या इनमें से एक को भी ये तेज कंपन और चर्र-चर्र की कर्कश आवाज जगा न सकी? ये कैसा मजाक है? इस पर भला कैसे भरोसा किया जा सकता है!

दुर्घटना स्थल से खींचे गए फोटो बता रहे हैं कि ट्रैक के किनारे एकदम समतल जमीन थी, तो उस समतल जमीन को छोड़कर भला ट्रैक के नुकीले पत्थरों पर कोई क्यों सोएगा? ये कैसे हो सकता है?

कुछ मजदूर जो ट्रैक पर नहीं सोकर, जमीन पर सो रहे थे, वो बता रहे हैं कि ट्रेन के हॉर्न से उनकी आंख खुल गई और उन्होंने उन 16 मजदूरों को उठने के लिए आवाज दी थी, पर वे नहीं उठे!

इस थ्योरी पर कौन भरोसा करेगा कि हॉर्न की आवाज से इन तीन-चार मजदूरों की तो आंख खुल गई, पर उन 16 में से किसी एक की भी नींद नहीं टूटी। न हॉर्न से, न लाइट से, न पटरी के तीव्र कंपन से और न ही पटरियों की कर्कश चरमराहट से !!

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फोटुओं में ट्रैक के बीचो-बीच मजदूरों की रोटियां बिखरी पड़ी हुई दिखाई दे रही हैं ! ये तो वाकई गजब है, बहतै गजब है भाई !!

काहे ते कि ट्रेन की 100 किमी की तूफानी स्पीड। वह स्पीड जिसमें ट्रैक की गिट्टियां भी उछलकर कई मीटर दूर जाकर गिरती हैं। वहीं उन मजदूरों की रोटियां सलीके से ट्रैक के बीचो-बीच रखी हुई हैं। वह न तूफानी हवा में उड़ीं, न बिखरीं। एक ही जगह रखी हुई हैं !!

इस तथ्य के मद्देनजर इस कथित हादसे पर आसानी से कौन भरोसा कर लेगा भाई!?

कहीं ये कोई बहुत गहरी साजिश तो नहीं है? कहीं यह नफरत की राजनीति तो नहीं है? ये मेरा शक है क्योंकि महाराष्ट्र आज साजिशों का एक बड़ा गढ़ बना हुआ है।

*एक ट्रैक इंजीनियर की डायरी के सौजन्य से!