दक्षिण पूर्व रेलवे : धोबी से न जीते, तो लगे गधे के कान उमेठने !
एचओईआर नियमों के विरुद्ध बढ़ाए गए वाहन चालकों के ड्यूटी ऑवर
मानवाधिकार नियमों के खिलाफ है ड्राइवरों से 12 घंटे की ड्यूटी लेना
नियमानुसार ऑफिस ऑवर के समान ही होनी चाहिए ड्राइवरों की भी ड्यूटी
नीति और नीयत में खोट का ज्वलंत उदाहरण है रेल प्रशासन का तुगलकी निर्णय
सुरेश त्रिपाठी
दक्षिण पूर्व रेलवे मुख्यालय में अधिकारियों की गाड़ियां चलाने वाले लगभग 70 मोटर वाहन चालकों (ड्राइवर) के ड्यूटी ऑवर साढ़े तीन घंटे बढ़ाकर साढ़े आठ घंटे से 12 घंटे कर दिए गए हैं. इस संदर्भ में प्रमुख मुख्य कार्मिक अधिकारी, द.पू.रे. मुख्यालय द्वारा 28 फरवरी 2019 को एक पत्र (सं. एसईआर/पी-एचक्यू/एचडब्ल्यूपीआर/535/3/एम.वी.ड्राइवर्स/2019) जारी किया गया है. इससे सभी मोटर वाहन चालकों में भारी असंतोष व्याप्त है. इस असंतोष के चलते मानसिक तनाव की स्थिति में यदि किसी ड्राइवर ने किसी दिन किसी अफसर की गाड़ी कहीं ठोक दी, तब कौन जिम्मेदार होगा? इस बारे में ड्राइवरों का कहना है कि रेल प्रशासन गाड़ियों के दुरुपयोग को तो रोक नहीं पा रहा है, मगर उनके ड्यूटी ऑवर बढ़ाकर उनके मानवाधिकारों का हनन कर रहा है. यानि ‘धोबी से न जीते, तो लगे गधे के कान उमेठने’ वाली कहावत यहां चरितार्थ हो रही है.
ज्ञातव्य है कि इससे पहले द.पू.रे. मुख्यालय ने 22 जनवरी 2013 को भी एक पत्र (सं. पी/ईएन/एम.वी.ड्राइवर्स/पालिसी-2012) जारी करके ड्राइवर्स के ड्यूटी ऑवर बढ़ाने का प्रयास किया था. तब पूरे सिस्टम को गुमराह करते हुए उक्त पत्र में कहा गया था कि रेलवे बोर्ड के पत्र सं. पीसी/वी-2008/ए/ओ/3(ओटीए), दि. 17.02.2010 के निर्देशानुसार सभी जोनल महाप्रबंधकों को मोटर वाहन चालकों की ड्यूटी का जॉब एनालिसिस करने का निर्देश दिया गया था, जिसमें ‘कंटिन्यूअस’ क्लासिफिकेशन के मद्देनजर उनके वास्तविक कार्य के घंटों का आकलन किया जाना था. इसके अनुसार एफिशिएंसी सेल के माध्यम से वर्क स्टडी की गई. इसकी रिपोर्ट के आधार पर ड्राइवर्स की ड्यूटी क्लासिफिकेशन ‘कंटिन्यूअस’ को बदलकर ‘एसेंशियल इंटरमिटेंट’ कर दिया गया है. परंतु इस बदलाव का यूनियन ने विरोध किया और कहा कि जब तक वास्तविक जॉब एनालिसिस नहीं हो जाता, तब तक पूर्व क्लासिफिकेशन ‘कंटिन्यूअस’ ही लागू रहना चाहिए.
इसके साथ ही उक्त पत्र में यह भी कहा गया था कि मुख्यालय की अन्य कार्यकारी शाखाओं द्वारा कहा गया कि ‘ईआई’ रोस्टर जारी होने से पहले उनके यहां ड्राइवर्स का कोई ड्यूटी रोस्टर उपलब्ध नहीं था. इसके मद्देनजर ड्राइवर्स की ड्यूटी का ‘फैक्चुअल जॉब एनालिसिस’ किया गया और उसके आधार पर ‘स्टैंडर्ड ड्यूटी रोस्टर’ जारी किया जा रहा है. ड्राइवर्स का यह नया ड्यूटी रोस्टर प्रिंसिपल सीपीओ के तौर पर चेयरमैन/आरआरसी महेंद्र कुमार प्रसाद द्वारा 28 फरवरी 2019 को जारी किया गया है, जिसे 1 मार्च से लागू भी कर दिया गया है.
प्रिंसिपल सीपीओ/द.पू.रे. के उपरोक्त आदेश से मुख्यालय के लगभग सभी 70 ड्राइवर्स में भारी असंतोष व्याप्त है. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले दोनों मान्यताप्राप्त जोनल संगठनों के पदाधिकारियों से संपर्क करके उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया. यूनियन पदाधिकारियों ने उन्हें कुछ करने का आश्वासन तो दिया, मगर अब तक कुछ नहीं किया है. इसके बाद 19 मार्च को सभी ड्राइवर्स ने अपने हस्ताक्षरों सहित एक ज्ञापन पीसीपीओ को दिया, जिसमें उन्होंने उनके उपरोक्त आदेश को एचओईआर नियमों और मानवाधिकार के विरूद्ध बताते हुए उसे वापस लेने की मांग की है.
अपने 19 मार्च के ज्ञापन में ड्राइवरों ने कहा है कि वे सभी वाहन चालक एचओईआर में तय नियमों के तहत ‘कंटिन्यूअस’ रोस्टर में लंबे समय से ड्यूटी कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि रेलवे बोर्ड के पत्र सं. आरबीई 29/2010 (संदर्भ: रे.बो. का उपरोक्त पत्र दि. 17.02.2010) के अनुसार सभी ड्राइवर्स एचओईआर के नियमानुसार ‘कंटिन्यूअस’ रोस्टर में काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें ‘फ्रिंज बेनीफिट’ भी मिल रहा है. उन्होंने कहा है कि वर्ष 2012 में तत्कालीन सीपीओ ने पत्र सं. पी/ईएन/एम.वी.ड्राइवर्स/पालिसी-2012, दि. 02.07.2012 जारी करके उनका ड्यूटी रोस्टर ‘कंटिन्यूअस’ क्लासिफिकेशन से बदलकर ‘एसेंशियल इंटरमिटेंट’ के अंतर्गत किया था. यूनियन एवं ड्राइवरों द्वारा इसका विरोध किए जाने पर उक्त आदेश 22.01.2013 को वापस ले लिया गया था. तब से अब तक वे सब ‘कंटिन्यूअस’ क्लासिफिकेशन के तहत कार्य कर रहे हैं.
ड्राइवरों ने लिखा है कि 28 फरवरी को अचानक बिना कोई उचित कारण का उल्लेख किए ही उपरोक्त पत्रांक के तहत ‘मॉडल ड्यूटी रोस्टर’ का आदेश जारी करके पुनः वर्ष 2012-13 वाली स्थिति पैदा कर दी गई है. इसमें उन्होंने यह भी कहा है कि इस बदलाव से उनके कार्य घंटे एवं रोस्टर दोनों ही बुरी तरह प्रभावित होंगे. इससे उनकी सेहत, मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक स्थिति में भारी प्रभाव पड़ेगा. उन्होंने लिखा है कि एचओईआर क्लासिफिकेशन के अनुसार रेल प्रशासन ने संभवतः विभिन्न कर्मचारियों की उनके कार्य की प्रकृति के अनुरूप विचार नहीं किया है. उन्होंने लिखा है कि अन्य कर्मचारी जरूरत के अनुसार कभी-भी टॉयलेट जा सकते हैं, मगर वास्तविक ड्यूटी (ड्राइविंग) के दौरान वाहन चालक के लिए कई बार यह संभव नहीं हो पाता है. उनके पलक झपकने मात्र से भारी दुर्घटना हो सकती है. इस पर रेल प्रशासन ने शायद ध्यान नहीं दिया है. इसमें उन्होंने 28 फरवरी के आदेश को अविलंब वापस लेने की मांग की है.
प्राप्त ताजा जानकारी के अनुसार द.पू.रे. प्रशासन (पीसीपीओ) ने उपरोक्त ज्ञापन का अब तक न तो कोई संज्ञान लिया है, और न ही उन्होंने इसका कोई जवाब देना जरूरी समझा है. जबकि इस बारे में ‘रेल समाचार’ द्वारा पूछे जाने पर पीसीपीओ फिरदौस जरीन का कहना था कि ड्राइवर्स के ज्ञापन का जवाब उन्हें दे दिया गया है. हालांकि ड्राइवरों ने इससे इंकार करते हुए कहा कि उन्हें अब तक किसी से भी किसी प्रकार का कोई जवाब नहीं मिला है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012-13 में भी तत्कालीन सीपीओ द्वारा जो क्लासिफिकेशन बदला गया था और जिसे ड्राइवरों एवं यूनियन के विरोध के बाद वापस लिया गया था, उसमें भी बहुत चालाकी के साथ ड्राइवरों की ड्यूटी आधा घंटे बढ़ाकर साढ़े आठ घंटे यह कहकर कर दी गई थी कि उनका लंच टाइम उनकी ड्यूटी में शामिल नहीं है.
जानकारों का भी यही कहना है कि रेल प्रशासन द्वारा ऑफीसियल गाड़ियों और ड्राइवरों का दुरुपयोग रोकने के बजाय उनके ड्यूटी ऑवर बढ़ाना एचओईआर नियमों और मानवाधिकार के विरुद्ध है. उनका कहना है कि इस मामले में रेल प्रशासन (रेलवे बोर्ड) को वस्तुस्थिति अविलंब स्पष्ट करनी चाहिए और ऑफिस ऑवर्स के बाद गाड़ियों एवं ड्राइवरों का दुरुपयोग रोका जाना चाहिए. जानकारों की यह भी टिप्पणी थी कि ड्यूटी ऑवर के बाद अधिकृत गाड़ियों के दुरुपयोग और मनमानी एवं अपव्यय को रोकने के बजाय ओवरटाइम खत्म करने अथवा कम करने के नाम पर ड्राइवरों के ड्यूटी ऑवर बढ़ाकर खर्च नियंत्रित करने का रेल प्रशासन द्वारा किया जा रहा प्रयास नीति और नीयत में खोट होने का ही उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है.