रेल मंत्रालय खोद रहा स्थाई रोजगार की जड़ें, टाटा ग्रुप दे रहा रिटायरमेंट तक की गारंटी!

Think from the perspective of the people and take decision on time for the benefit of them.

“अब तो रोबोट तमाम काम कर रहे हैं, उनमें जिस तरह की प्रोग्रामिंग सेट कर दी जाती है, वे वैसा ही काम करते हैं, तो क्यों न रेलवे के चेयरमैन/सीईओ, बोर्ड मेंबर्स सहित सभी महाप्रबंधकों और सभी प्रमुख मुख्य विभागाध्यक्षों के पदों पर प्री-प्रोग्रामिंग करके रोबोट बैठा दिए जाएं और इनके पदों को सरेंडर कर दिया जाए!”

रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड), भारत सरकार ने 20 मई 2021 को कैलेंडर वर्ष 2021-22 के लिए एक वर्क स्टडी प्रोग्राम के तहत पदों को सरेंडर करने का दिशा-निर्देश सभी जोनल रेलों के महाप्रबंधकों को जारी किया है।

इस आदेश के अनुसार रेलवे के ग्रुप ‘सी’ और ‘डी’ श्रेणी के रेल कर्मचारियों के 13,450 पद चालू वर्ष में सरेंडर (खत्म) किए जाएंगे और इनकी कीमत को इम्पलाईज बैंक में जमा करने के लिए कहा गया है।

इसके अलावा कोरोना महामारी के चलते भी हजारों की संख्या में रेलकर्मी अकाल काल कवलित हुए हैं। यदि इसके चलते भी सरकार द्वारा खाली हुए रेलवे के इन हजारों पदों को भी स्कैप करके इम्प्लाइज बैंक में जमा करने का निर्णय निकट भविष्य में ले लिया जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

रेल मंत्रालय का निश्चित रूप से यह एक आत्मघाती और युवाओं को स्थाई रोजगार मुहैया कराने का विरोधी फैसला है। सरकारी नौकरशाही की इस सरेंडर नीति के पीछे जो मानसिकता है, वह उच्च स्तर के पदों के सृजन की है।

पहले जो एक ‌विभाग प्रमुख का पद हुआ करता था, उसे अब मुख्य विभाग प्रमुख कर दिया गया है और अब उसके नीचे तीन-तीन, चार-चार विभाग प्रमुख हो गए हैं। इंजीनियरिंग विभाग में तो आधा दर्जन से ज्यादा ऐसे पद सृजित हो गए हैं, क्योंकि सबको मलाई यहीं से मिलनी है। इसी तरह हर विभाग में मुख्यालय स्तर पर चार-पांच-छह तक की संख्या में विभाग प्रमुखों की भरमार हो गई है।

प्रत्येक मंडल में अब तीन-तीन अपर मंडल रेल प्रबंधक (एडीआरएम) के पद हो गए हैं और इनका काम देखें तो शून्य है। अब हर जोन में एक अपर महाप्रबंधक (एजीएम) का पद भी सृजित कर दिया गया है। जब महाप्रबंधक का पद है, तो फिर अपर महाप्रबंधक की क्या जरूरत है? इसका औचित्य (जस्टिफिकेशन) बताने अथवा देने को कोई तैयार नहीं है।

पूर्व मध्य रेलवे के गठन के पहले पूर्वोत्तर रेलवे में पांच मंडल हुआ करते थे, जो वर्ष 2002-03 में विभाजन के पश्चात अब तीन रह गए हैं। जब इसमें पांच मंडल थे, तब इसे एक जनरल मैनेजर (जीएम) संभाल लेता था और आज केवल तीन मंडल हैं, तो भी इसकी व्यवस्था संभल नहीं रही है।

यही हाल उन बाकी सभी छोटी जोनल रेलों का भी है, जिनका गठन 2002-03 में हुआ था और जिन्हें राजनीतिक उद्देश्य से कमोबेश राज्यों के स्तर तक सीमित कर दिया गया था। सब में एक-एक एजीएम बैठाया गया है, तब भी परिणाम जस का तस ही है।

रेलवे के जिन 13,450 पदों को सरेंडर करने का आदेश रेलवे बोर्ड ने दिया है, वह इस देश के युवाओं के स्थाई और सम्मानित रोजगार की खुली लूट है।

ऐसा नहीं है कि काम की कमी के चलते इन पदों को सरेंडर किया जा रहा है। इसके पीछे का उद्देश्य आउटसोर्सिंग एजेंसियों को लाभ पहुंचाना है, क्योंकि ग्रुप ‘डी’ के कर्मचारी जो काम करते हैं, उसके लिए तो हाथों की जरूरत पड़ेगी ही, लेकिन जिस काम को करने के लिए एक स्थाई रेलकर्मी माहवार 35 हजार से 50 हजार तक मजदूरी पाता है, उसी काम को आउटसोर्सिंग एजेंसी एक कर्मचारी से 10-15 हजार में कराएगी।

ऐसे संविदा कर्मियों को न पीएफ देने का झंझट होगा, न ही रोजगार सुरक्षा की कोई गारंटी होगी और न ही ईएसआईएस की कोई सुविधा देने का सरदर्द होगा, जब चाहे तब उसे कान पकड़कर निकाल बाहर करने की मनमानी छूट होगी, वह अलग!

यह इस देश के पढ़े-लिखे युवाओं का खुला शोषण है। श्रम पैसा है, और पैसे की यह बड़ी तथा खुली लूट हो रही है!

ऐसे मुद्दों पर सिविल सोसायटी की चुप्पी बहुत हैरान करने वाली है कि चौबीस घंटे हिन्दू-मुस्लिम पर बहस करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी अपने बच्चों के भविष्य को बरबाद होते देखकर भी सरकार की इन रोजगार विरोधी नीतियों पर मूकदर्शक क्यों बने हुए हैं? स्थाई रोजगार नहीं होने का दंश आज कोविड की महामारी में यह देश भुगत रहा है।

किसी भी देश को अस्थाई और संविदा पर काम करने वाले कर्मियों से कदापि संचालित नहीं किया जा सकता है। यह सब कोविड जैसी महामारी और आए दिन आ रहे तटवर्ती समुद्री तूफानों के चलते देखने को मिला है तथा लगातार अनुभव में भी आ रहा है।

रेलवे बोर्ड ने अपनी सरेंडर पालिसी के बचाव में तर्क दिया है कि “आज के दौर में तकनीक के विकास से कम लोगों के जरिए काम का लक्ष्य (वर्क टारगेट) हासिल कर लिया जा रहा है, इसलिए इन पदों को सरेंडर करने से रेलवे के काम पर कोई असर नहीं पड़ेगा।”

इस संबंध में मेरा यह मानना है कि “अब तो रोबोट तमाम काम कर रहे हैं, उनमें जिस तरह की प्रोग्रामिंग सेट कर दी जाएगी, वे वैसा ही काम करेंगे, तो क्यों न रेलवे के चेयरमैन सीईओ, बोर्ड मेंबर्स सहित सभी महाप्रबंधकों और सभी प्रमुख मुख्य विभागाध्यक्षों के पदों पर प्री-प्रोग्रामिंग करके रोबोट बैठा दिए जाएं और इनके पदों को सरेंडर कर दिया जाए, कम खर्च में बहुत सारा, बल्कि बहुत ज्यादा काम का लक्ष्य हासिल हो जाएगा। इस प्रकार बेईमानी और कमीशनखोरी की भी कोई आशंका नहीं रह जाएगी।”

परंतु रेलवे की स्थिति यह है कि जो महाप्रबंधक जितने ज्यादा पद सरेंडर करेगा, वह उतना ही काबिल माना जाएगा और जो अध्यक्ष रेलवे को जितनी जल्दी बेच देगा, वह नीति आयोग में भेज दिया जाएगा। हुक्म के गुलामों की यह स्थिति पूरी व्यवस्था को चौपट करने पर उतारू है।

इसलिए अब समय आ गया है कि देश का हर नौजवान अपने स्थाई रोजगार की इस चोरी को रोकने के लिए लामबंद होकर अविलंब उठ खड़ा हो, तभी स्थाई रोजगार को और इस देश की बरबाद होती व्यवस्था को बचाया जा सकता है।

लेखक रेलवे में कार्यरत एक वरिष्ठ अधिकारी हैं!

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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