मान्यताप्राप्त रेल संगठनों की भूमिका और निष्क्रियता पर उठ रहे सवाल
असंतुष्ट रेलकर्मी सोशल मीडिया पर रेल संगठनों के खिलाफ निकाल रहे हैं जमकर अपनी भड़ास
सोशल मीडिया पर मान्यताप्राप्त संगठनों के खिलाफ तमाम रेल कर्मचारी जमकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। वे न सिर्फ अपनी आपबीती बता रहे हैं, बल्कि बिना किसी लाग-लपेट के सीधे शब्दों में अपनी व्यथा भी व्यक्त कर रहे हैं। रेल संगठनों के प्रति वह अपने विचार व्यक्त करने में पीछे नहीं हैं। ऐसे ही एक रेलकर्मी ने सोशल मीडिया पर दोनों लेबर फेडरेशनों से कुछ सवाल पूछे हैं।
यह रेलकर्मी लिखता है कि “मैं एक आम रेलवे कर्मचारी हूं। मैं हमारे दोनों मान्यताप्राप्त फेडरेशनों से ये कुछ प्रश्न करना चाहता हूं और उनसे जवाब चाहता हूं। यदि वह जवाब नहीं देते हैं, तो मैं समझूंगा कि वे कर्मचारियों का हित नहीं, बल्कि स्वयं का हित कर रहे हैं!”
रेलकर्मी के यह सवाल कुछ इस प्रकार हैं-
1. एनपीएस 2004 में सरकारी कर्मचारियों पर किसकी सहमति से लागू हुई? इन 16 वर्षों के अंतराल में दोनों मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने इस मुद्दे पर क्या किया? यही नीति देश के सभी सांसदों, विधायकों पर भी लागू करने की मांग आजतक क्यों नहीं की गई? इस मुद्दे पर आजतक आम रेल हड़ताल का आह्वान क्यों नहीं किया गया? क्या यह मुद्दा बोनस से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है?
2. सातवें वेतन आयोग द्वारा न्यूनतम वेतन ₹24000 देने की सिफारिश की गई थी, फिर यह अब तक ₹18000 ही क्यों है? क्या यह मुद्दा बोनस से कम महत्वपूर्ण है? यदि नहीं, तो इस पर फेडरेशनों द्वारा अब तक आम रेल हड़ताल का आह्वान अथवा ऐसा ही कोई कारगर कदम क्यों नहीं उठाया गया?
3. समस्त रेल कर्मचारियों के 18 महीने के एचआरए का एरियर किसने हड़प लिया, यह अब तक क्यों नहीं मिला? इस मुद्दे पर दोनों लेबर फेडरेशनों ने आज तक कोई कारगर कदम क्यों नहीं उठाया?
4. कोरोना महामारी के बहाने अर्थव्यवस्था का हवाला देते हुए रेलकर्मियों का 18 महीने का महंगाई भत्ता क्यों रोका गया? यह किसकी मजबूरी थी? किसकी सहमति से ऐसा हुआ? इन मुद्दों पर आम रेल हड़ताल क्यों नहीं बुलाई गई? क्या यह मुद्दे कम महत्वपूर्ण हैं?
5. रेल के निजीकरण और निगमीकरण पर रेलवे के दोनों मान्यताप्राप्त लेबर फेडरेशनों ने चुप्पी क्यों साध रखी है? इस मुद्दे पर उनके द्वारा अब तक आम रेल हड़ताल का आह्वान क्यों नहीं किया गया? क्या यह मुद्दा साढ़े तेरह लाख रेलकर्मियों और देश के लाखों-करोड़ों बेरोजगारों के जीवन-मरण का मुद्दा नहीं है?
6. निजी ट्रेनों का परिचालन शुरू कर दिया गया। परंतु इस मुद्दे पर दोनों मान्यताप्राप्त संगठनों ने कोई कारगर सक्रियता नहीं दर्शाई। अब प्रमुख व्यस्त और मुख्यत: कमाऊ रेलमार्गों पर निजी ट्रेन ऑपरेशन की निविदाएं भी जारी हो चुकी हैं, तथापि दोनों लेबर फेडरेशन इस मुद्दे पर पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ दिखाई दे रहे हैं। रेल के पूरी तरह निजीकरण और निगमीकरण में उनका यह छिपा योगदान माना जा रहा है। यदि ऐसा नहीं है, तो इस अतिगंभीर मुद्दे पर दोनों लेबर फेडरेशन अब तक चुप क्यों हैं? इस पर अब तक उन्होंने संपूर्ण रेल बंद का आह्वान क्यों नहीं किया?
7. रात्रि भत्ता (नाइट ड्यूटी एलाउंस – एनडीए) को बंद करने, कटौती करने और रिकवरी करने के आदेश जारी हो गए। इसकी रिकवरी भी शुरू हो गई है। परंतु दोनों लेबर फेडरेशन अब तक सिर्फ चिट्ठी लिखने में लगे हैं। 90% रेलकर्मियों को प्रभावित करने वाले इस मुद्दे पर फेडरेशनों ने हड़ताल का आह्वान करना जरूरी क्यों नहीं समझा? आखिर वेतन-भत्तों में कटौती को स्वीकार करने पर रेलकर्मियों को मजबूर क्यों किया जा रहा है?
8. रेलकर्मियों को 30 साल की सेवा अथवा 50/55 साल की उम्र में सेवानिवृत्त करने की नीति पर धड़ल्ले से अमल किया जा रहा है। इसका कारगर विरोध दोनों फेडरेशनों ने क्यों नहीं किया? बोनस पर सरकार के साथ नूरा कुश्ती और आम रेल हड़ताल का आह्वान करके खूब हल्ला मचाया गया, क्या यह मुद्दा फेडरेशनों की नजर में कोई मायने नहीं रखता?
9. रेलवे के सभी प्रिंटिंग प्रेस बंद करने और कई कैटेगरी को मर्ज करने के फतवे जारी कर दिए गए हैं, परंतु दोनों फेडरेशनों ने इन मुद्दों पर फिर भी चुप्पी साध रखी है। क्या यह मुद्दे फेडरेशनों ने बिल्कुल छोड़ दिए हैं?
10. “सबके लिए एलडीसीई खुली हो” (एलडीसीई ओपन टू ऑल) ट्रैकमेनटेनर्स समूह की यह मांग अब तक मान्य क्यों नहीं हो पाई? एसएंडटी स्टाफ की नाइट ड्यूटी गैंग की स्थापना और हार्ड एंड रिस्क एलाउंस की मांग भी काफी पुरानी हो चुकी है। दोनों फेडरेशन इन मुद्दों को अब तक हल क्यों नहीं करा पाए?
11. रनिंग एलाउंस, टिकट चेकिंग कैडर की इस वर्षों पुरानी मांग पर दोनों लेबर फेडरेशनों ने बहुत बढ़-चढ़कर आश्वासनों की झड़ी लगा दी थी। पंद्रह दिन में इसे मंजूर कराने का लंबा-चौड़ा वादा दोनों फेडरेशनों ने 2015 में भोपाल में मंच से किया था, पर आजतक यह मुद्दा एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाया है। फेडरेशनों द्वारा आखिर ऐसी शोशेबाजी क्यों की जाती है?
12. सेवानिवृत्त कर्मचारी – कार्यरत कर्मचारियों का नेतृत्व क्यों और कब तक करेगा? सरकार अथवा रेल प्रशासन के साथ निगोशिएशन का बहाना अब पुरानी बात हो गई है। आज का रेलकर्मी अपने हित की बात और बारगेनिंग करने में पूरी तरह सक्षम और जागरूक है। अतः क्यों न सेवानिवृत्त लोग स्वत: पद छोड़ दें अथवा सेवानिवृत्ति के बाद उनका एक निश्चित कार्यकाल (3 या 5 वर्ष) निर्धारित किया जाना चाहिए!
13. रेलवे के मान्यताप्राप्त दोनों लेबर फेडरेशनों और उनसे जुड़े जोनल संगठनों में उनके पदाधिकारियों के सगे-संबंधियों, जिनका रेलवे से कभी कोई संबंध नहीं रहा और जिन्होंने कभी रेलवे में काम नहीं किया, को पदाधिकारी किसलिए बनाया गया है? कर्मचारियों की गाढ़ी कमाई से वसूले गए चंदे से उन्हें 50-60 हजार का वेतन क्यों दिया जा रहा है? इसका औचित्य क्या है? क्या राजनीतिक दलों की तरह यह यूनियनों और फेडरेशनों में भी भाई-भतीजावाद घुसाने का प्रयास नहीं है?
14. मान्यताप्राप्त फेडरेशनों और उनसे जुड़े जोनल संगठनों द्वारा कर्मचारियों से लिए गए चंदे का व्यौरा सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाता? इन संगठनों के सभी पदाधिकारी अपनी सालाना आय-व्यय का सार्वजनिक डिक्लेरेशन क्यों नहीं करते?
15. वर्ष 2016 में गुप्त मतदान के माध्यम से पहली बार 94% और दूसरी बार 98% रेल कर्मचारियों ने आम रेल हड़ताल के पक्ष में मतदान करके अपनी सहमति जताई थी। इसके बावजूद हड़ताल क्यों नहीं की गई? फिर उक्त गुप्त मतदान कराने का औचित्य क्या सिद्ध हुआ? इसमें जो सरकारी समय और धन का अपव्यय हुआ था, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हड़ताल पर एकमुश्त सहमति के बाद सरकार की तरफ से नियमों में संशोधन करके फेडरेशनों और जोनल संगठनों पर काबिज रि-टायर्ड नेताओं को उनके पद से हटा दिए जाने का दबाव बनाए जाने से हड़ताल पर टालमटोल जारी रखा गया और नेताओं ने अपने निजी स्वार्थ में लाखों रेलकर्मियों के हितों की बलि चढ़ा दी?
इस रेलकर्मी ने सभी रेल कर्मचारियों से यह भी निवेदन किया है कि जब कभी उनके पास मान्यताप्राप्त यूनियनों के लोग या नेता चंदे के लिए आएं, तो वे उपरोक्त सवाल उनसे अवश्य पूछें।
स्मरण रहे, उपरोक्त लेखन में भाषागत सुधार के अलावा अपनी तरफ से अन्य कोई तथ्य नहीं जोड़ा गया है!
प्रस्तुति : सुरेश त्रिपाठी
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