मुस्लिम आरक्षण का झुनझुना
ये आयोग – सत्ता, राजनीतिज्ञों और क्रीमी लेयर के अमीरों की चिंता में रहते हैं या गरीबों की?
दिल्ली के हालिया दंगों के आंसू अभी सूखे भी नहीं है कि उन्हें फिर से भड़काने की तैयारी होने लगी है। दिल्ली के दंगों में शायद ही किसी बुद्धिजीवी या राजनेता के किसी सगे-संबंधी की जान गई हो। जो बारूद बिछायी जा रही थीं, उसकी पहली आहुति दिल्ली के गरीब ही हुए हैं। इसलिए राष्ट्रहित में यही होगा कि राजनेता चाहे मुंबई के हों, या दिल्ली के, ऐसी विभाजनकारी घोषणाओं को सदा के लिए दफना दें, तो ही समाज, राजनीति और राष्ट्र के लिए बेहतर होगा
दिल्ली के दंगों में 40 से ज्यादा मौतें और हजारों घर-स्कूल जलाने के बाद भी नेता अपने विभाजनकारी मंसूबों पर लगाम नहीं लगा रहे। ठीक उस समय जब दिल्ली जल रही थी, एक दूसरे महानगर मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस के एक नेता मुसलमानों को 5% आरक्षण देने का झुनझुना बजा रहे थे। वे महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं और बखूबी जानते हैं कि संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान नहीं है।
वे इस बात से भी वाकिफ होंगे कि विगत में कई राज्य सरकारों के ऐसे प्रयास न्यायालयों ने संविधान सम्मत नहीं पाए और निरस्त कर दिए हैं। लगभग 10 वर्ष पहले आंध्र प्रदेश सरकार ने मुसलमानों के लिए धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का कानून बनाया था, लेकिन अंततः सुप्रीम कोर्ट ने उसे गैरकानूनी माना।
वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से ठीक पहले मुसलमानों के एकमुश्त वोट हासिल करने के लिए कांग्रेस पार्टी ने ओबीसी के लिए आरक्षित 27% में से साढे चार प्रतिशत मुसलमानों के लिए आरक्षित करने का वायदा अपने घोषणा पत्र में शामिल किया था। मामला कोर्ट में पहुंचा और अंत में उसे निरस्त करना पड़ा। न चुनाव में जीते न कोर्ट में।
हालांकि महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के मुख्य घटक शिवसेना के एक मंत्री ने स्पष्टीकरण दिया है कि ऐसा कोई निर्णय अभी सरकार ने नहीं लिया है, लेकिन आरक्षण के जरिए समाज को बांटने की नीयत में शायद ही कोई बदलाव आया हो।
अस्पृश्यता, अछूत करार दिए गए समाज के एक बड़े हिस्से को कथित रूप से सदियों तक दबाकर रखने के प्रायश्चित, प्रतिकार और समानता लाने के लिए डॉ भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी और दूसरे राजनेताओं की पहल पर शुरू किया गया आरक्षण का जिन्न आजादी के बाद लगातार एक दानव का रूप लेता जा रहा है।
आरक्षण की जरूरत हिंदू समाज में सुधार के लिए थी और कमोबेस आज भी बनी हुई है, लेकिन इसमें लगातार समीक्षा, संशोधन और सुधार की भी जरूरत ठीक वैसे ही है जैसे संविधान की दूसरी धाराओं में समय के साथ परिवर्तन किए गए हैं और सारे देश ने समाज के हित में उन्हें स्वीकार किया है।
निश्चित रूप से मुसलमान भी मौजूदा वक्त में उतने ही गरीब और पिछड़े हैं, बल्कि कहें तो और भी ज्यादा, लेकिन उसे सुधारने का रास्ता सिर्फ आरक्षण की बैसाखी नहीं हो सकता। ऐतिहासिक रूप से भी लगभग 800 वर्षों तक इस देश में मुसलमानो, मुगलों का राज रहा है, इसलिए उन्हें ऐतिहासिक रूप से पीड़ित भी नहीं कहा जा सकता।
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी नरेश चंद्र सक्सेना की हालिया प्रकाशित किताब के हवाले से कहें तो मुस्लिम समाज में अंदरूनी सुधार की ज्यादा जरूरत है, बजाय ऐसी किसी राजनीतिक आरक्षण की बैसाखी के। वैसे भी लगातार सिकुड़ते सरकारी तंत्र में आरक्षण की सीमाएं भी बहुत सीमित हो गई हैं।
मुस्लिम आरक्षण के संदर्भ में हमें पूर्व नियोजित धारणा को भी अद्यतन बनाने की जरूरत है। मंडल कमीशन के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए घोषित 27% आरक्षण में दर्जनों मुस्लिम जातियां भी हिंदुओं की तरह शामिल हैं, क्योंकि इसका आधार सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है, धर्म नहीं।
101वें संविधान संशोधन के जरिए जो 10% आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया गया है, वह भी मुसलमानों पर भी अन्य सभी समुदायों की तरह लागू है। इसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं। देशभर के सैकड़ों मेधावी मुसलमान नौजवानों को पिछड़ा वर्ग आरक्षण के तहत नौकरी मिली है।
पिछले 5 वर्ष के संघ लोक सेवा आयोग के आंकड़ों पर गौर करें, तो मुस्लिम समुदाय से चुने जाने वाले अभ्यर्थियों की संख्या लगातार बढ़ी है। मुख्यधारा में शामिल करने के ये अवसर कुछ प्रगतिशील जागरूक लोगों की पहल से उन्हें विशेष कोचिंग देने और बेहतर वैज्ञानिक शिक्षा की तरफ प्रोत्साहन करने से मिले हैं।
संकेत साफ है कि मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था ही उनको बेहतर इंसान बनाएगी, मदरसों की गुलामी नहीं। और न ही वोट बैंक के लिए गिद्धों की तरह नजर गड़ाए राजनेताओं से उनका कोई उद्धार होने वाला है।
राष्ट्रीय हित में अच्छा तो यही होगा कि केंद्र सरकार आरक्षण की पूरी नीति की ही संवीक्षा/समीक्षा करे। फरवरी अंत में सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले में पदोन्नति में आरक्षण को मूल अधिकार नहीं माना। वर्ष 2006 में नागराज मामले और फिर 2018 में जरनैल सिंह मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए कुछ शर्तें लगाई हैं।
इन शर्तों को भी मंडल कमीशन उर्फ इंदिरा साहनी के मूल निर्णय के आलोक में ही देखने की जरूरत है, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग को सीधी भर्ती में तो आरक्षण का प्रावधान है, पदोन्नति में नहीं।
वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जोसेफ कुरियन ने भी इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया था कि जब ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर है, तो वैसा ही प्रावधान एससी/एसटी के लिए क्यों नहीं होना चाहिए? यह मामला अभी-भी सुप्रीम कोर्ट के अहाते में घूम रहा है।
मराठा आरक्षण, जाट, पटेल, गुर्जर, आंध्र के कप्पू समुदाय सहित इन्हीं मसलों पर न जाने कितनी बार सड़कें लहूलुहान हो चुकी हैं। वोट बैंक और जातीय राजनीति के इंजन से चलते लोकतंत्र में यह निर्णय कठिन जरूर है, लेकिन सामाजिक और न्यायिक बराबरी के लिए जितनी जल्दी लिया जाए, उतना अच्छा होगा।
आश्चर्य की बात यह है कि जिस गरीब देश की औसतन आय प्रतिवर्ष एक लाख हो, वहां ओबीसी में लागू क्रीमी लेयर को 8 लाख से बढ़ाकर 12 लाख करने का विचार किया जा रहा है। यह इस लोकतंत्र की कितनी बड़ी विडम्बना और विसंगति है।
क्या इससे कभी निचले पायदान पर जीवनयापन कर रहे लोगों को इस आरक्षण का फायदा मिल पाएगा? इस क्रीमी लेयर का दुखद पहलू यह है कि अभी वर्ष 2017 में ही इसे छह लाख से बढ़ाकर आठ लाख किया गया था। सवाल यह है कि ये जातीय आयोग- सत्ता, राजनेता और क्रीमी लेयर के अमीरों की चिंता में रहते हैं या गरीबों की?
दिल्ली के हालिया दंगों के आंसू अभी सूखे भी नहीं है कि उन्हें फिर से भड़काने की तैयारी होने लगी है। महात्मा गांधी और उस समय के राजनेता होते तो वे दिल्ली के सीलमपुर, शिवविहार के उन गरीबों के बीच जाकर प्रार्थना करते, अनशन करते, अपील करते, जैसा उन्होंने नोआखाली में किया था, लेकिन दिल्ली के अमीरों का एक वर्ग फिर उसी अंदाज में दिल्ली की संसद के पास फैज की पंक्तियां वैसे ही दोहरा रहा है और ऊंचे स्वर से ‘हम देखेंगे’ और उतनी ही प्रतिहिंसा से दूसरा पक्ष तैयार हो रहा है कि ‘हम भी देखेंगे’।
किसी ने ठीक ही कहा कि दिल्ली के दंगों में शायद ही किसी बुद्धिजीवी या राजनेता के किसी सगे-संबंधी की जान गई हो। जो बारूद बिछायी जा रही थीं, उसकी पहली आहुति दिल्ली के गरीब ही हुए हैं। इसलिए राष्ट्रहित में यही होगा कि राजनेता चाहे मुंबई के हों, या दिल्ली के, ऐसी विभाजनकारी घोषणाओं को सदा के लिए दफना दें, तो ही समाज, राजनीति और राष्ट्र के लिए बेहतर होगा।
- विशेष: लेखक प्रेमपाल शर्मा – एक सुप्रसिद्ध साहित्य-चिंतक एवं विचारक और जाने-माने साहित्यकार हैं। वह रेल मंत्रालय, भारत सरकार में संयुक्त सचिव रह चुके हैं। शिक्षा व्यवस्था और अनेक शैक्षिक-सामाजिक गतिविधियों से उनका लगातार जुड़ाव रहा है। जातीय-धार्मिक आरक्षण का समाज और शासन-प्रशासन पर क्या प्रभाव होगा तथा वर्तमान आरक्षण व्यवस्था और इसकी अवधारणा का सामाजिक एवं प्रशासनिक प्रभाव क्या हुआ है और हो रहा है, वह उनसे बेहतर शायद ही कोई विश्लेषित कर सकता है। उपरोक्त विचरोत्तेजक-विचारणीय विचार लेखक के अपने विचार हैं। -संपादक