अपनी भाषा में मेडिकल शिक्षा: अमृतकाल में यह शुरुआत किसी क्रांति से कम नहीं!
अनुशंसाएं तो न जाने कितनी होती हैं लेकिन भाषा के मसले पर इस सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है। सच्चे मायनों में अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने के स्वप्न को कदम दर कदम साकार गुजरात की विभूतियां ही कर रही हैं!
प्रेमपाल शर्मा
16 अक्टूबर को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एमबीबीएस की हिंदी में आई तीन मेडिकल की किताबों का विमोचन किया। डॉक्टरी की हिंदी माध्यम में पढ़ाई की शुरुआत का श्रेय मध्य प्रदेश प्रशासन को जाता है जहां गांधी मेडिकल कॉलेज से शुरू होकर 13 मेडिकल कॉलेजों ने हिंदी माध्यम में पढ़ाई की शुरुआत की है।
यह शुरुआत मेडिकल बायोकेमेस्ट्री, मेडिकल फिजियोलॉजी और मेडिकल एनाटॉमी की किताबों से हो रही है और जल्दी ही अगले वर्षों के पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम में उपलब्ध हो जाएंगे। अमृतकाल में शिक्षा में यह शुरुआत किसी क्रांति से कम नहीं है।
इसकी अनुशंसा हाल ही में संसदीय समिति ने की थी कि हिंदी प्रदेशों के संस्थानों में मेडिकल और दूसरी शिक्षा हिंदी में दी जानी चाहिए और देश के दूसरे प्रदेश भी अपनी भाषाओं में इसकी शुरुआत करें।
अनुशंसाएं तो न जाने कितनी होती हैं लेकिन भाषा के मसले पर इस सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है। सच्चे मायनों में अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने के गांधीजी के स्वप्न को कदम दर कदम साकार गुजरात की विभूतियां ही कर रही हैं। और इसकी तैयारी भी पूरी तरह की गई है। लगभग सौ डॉक्टरों की ऐसी टीम को किताबें लिखने के लिए लगाया गया है जो हिंदी माध्यम से पढ़े हैं और अंग्रेजी भी अच्छी जानते हैं।
जैसा किताबों के नाम से स्पष्ट है जहां अंग्रेजी के तकनीकी शब्द आम प्रचलन में हैं, उनको देवनागरी रोमन में ही लिखा गया है। यह बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि ग्लोबल होती दुनिया में भाषा की कट्टरता, रूढ़ता महत्वपूर्ण नहीं है, ज्ञान की समझ और सहजता जरूरी है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि दक्षिण के कुछ राज्य और कुछ जन्मजात विरोधी विपक्षी नेता इसका विरोध कर रहे हैं।
जो तमिलनाडु अन्ना विश्वविद्यालय में तमिल माध्यम में शिक्षा की वकालत करते हैं और ठीक ही करते हैं और जिन करुणानिधि ने राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में तमिल माध्यम अनिवार्य कर रखा है, वह किस मुंह से ऐसी अनुशंसा का विरोध करते हैं? यही बात केरल और दूसरे राज्यों पर लागू होती है।
संसदीय समिति ने केवल हिंदी के लिए ही नहीं कहा, उन्होंने सभी राज्यों से अपनी भाषाओं में शिक्षा देने की वकालत की है और नई शिक्षा नीति 2020 भी बार-बार इसी बात को रेखांकित करती है कि जहां तक संभव हो प्राइमरी और उससे आगे की शिक्षा अपनी भाषाओं में दी जाए। क्या यह संविधान की आत्मा का ही विस्तार नहीं है जिसे अमृत महोत्सव तक अपनी भाषा में शिक्षा देने का इंतजार करना पड़ा!
इस देश के लगभग 95% बच्चे अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करते हैं। विशेषकर मेडिकल की पढ़ाई बहुत कड़ी मेहनत मांगती है। बच्चों का सारा ध्यान फिजिक्स केमिस्ट्री बायोलॉजी और गणित जैसे विषयों पर होता है। अपनी भाषा पर तो उनको पूरा अधिकार होता है लेकिन विदेशी भाषा अंग्रेजी पर वैसा अधिकार नहीं हो पाता और इसीलिए न जाने कितने विद्यार्थियों ने इस बात पर दुख और गुस्सा जताया है कि प्रथम वर्ष में अंग्रेजी माध्यम बहुत मुश्किल होता है।
क्या यह उनकी प्रतिभा का गला घोटना नहीं है? क्या जबरन विदेशी भाषा लादना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? याद कीजिए वर्ष 2012 में दिल्ली के प्रसिद्ध एम्स में अनिल मीणा नाम के एक विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली थी और नोट छोड़ा था कि न मेरी समझ में अंग्रेजी आती और न ही पूरे माहौल में मुझे कोई मदद करता है।
हाल ही में यूक्रेन चीन और दूसरे देशों में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों की आवाज पूरे देश ने सुनी होगी कि वहां जाते ही सबसे पहले उन्हें उनकी मातृ भाषा सीखनी पड़ती है। डॉक्टरी जैसे पेशे में यदि आप जनता की भाषा में उनका दर्द नहीं समझते और उन्हीं की भाषा में उनको सलाह नहीं दे सकते तो क्या यह डॉक्टरी के पेशे और हमारे लोकतंत्र पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं है?
भाषा के मसले पर देश भर में आत्महत्या की खबरें लगातार आती रही हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में भी प्रथम वर्ष में बच्चे अंग्रेजी की वजह से लगातार फेल होते रहते है। यहां तक कि इंजीनियरिंग और दूसरे विषयों में अपनी प्रतिभा को निखारने के बजाय उनकी सारी ताकत अंग्रेजी ठीक करने में ही लगी रहती है। इसी पक्ष पर जाने-माने शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि “क्या सारी प्रतिभा अंग्रेजी में ही होती है?” और इसीलिए उन्होंने सभी प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाएं वर्ष 1979 से अपनी भाषाओं में करने की सिफारिश की थी। हालांकि वह सपना अभी भी आधा अधूरा है।
आजादी के तुरंत बाद जो लोग शासन में आए, उन पर अंग्रेजी इस कदर हावी थी कि उन्होंने न केवल भाषा के मसले को बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया। भाषा-संस्कृति के मसले एक रात में हल नहीं होते, इसीलिए पिछले आठ 9 साल से गहन विचार-विमर्श के बाद कुछ कदम आगे बढ़ाए गए हैं और इसकी तारीफ की जानी चाहिए।
देश के 10 राज्यों के 19 कॉलेजों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई छह भाषाओं में शुरू की गई है। मेडिकल एंट्रेंस की परीक्षा से 8 भाषाओं से शुरू होकर अब 13 भाषाओं में हो रही है और ऐसा ही इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में शुरू हुआ है। इसमें तकनीक का भी उतना ही महत्वपूर्ण योगदान है। स्वयं और अनुवाद के जो नए माध्यम विकसित किए गए हैं, उसकी वजह से भी यह संभव हो पाया है, लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता की दृढ़ इच्छाशक्ति है।
न्यायपालिका में भी देर से ही सही अपनी भाषाओं की तरफ कुछ कदम बढ़े हैं जैसे गवाहों को उनकी अपनी बोली भाषा में बयान देना, सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराए गए हैं आदि। लॉ एंट्रेंस, कैट एंट्रेंस भी अपनी भाषाओं में देने पर काम चल रहा है लेकिन स्टाफ सेलेक्शन कमीशन, एनडीए, बैंक, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में अभी भी अंग्रेजी जरूरत से ज्यादा हावी है।
उम्मीद है यह कदम रुकेंगे नहीं। लेकिन समाज का बुद्धिजीवी लेखक वर्ग भी संविधान की आवाज सुनते हुए अपनी भाषाओं के पक्ष में अपने राजनीतिक पूर्वाग्रह को छोड़कर सामने आए तो इससे न केवल पूरे देश का भला होगा, बल्कि उनकी भाषा संस्कृति साहित्य भी बची रहेंगी।
#प्रेमपाल_शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव रेल मंत्रालय,
मोबाइल: 9971399046