आरक्षण: दलितों को दलित बनाए रखने की साजिश-1

अजा/अजजा वर्ग के 30 करोड़ लोग आज भी हैं आरक्षण के लाभ से वंचित

एक प्रतिशत से कम लोग जातिवादी घृणा फैलाकर सेंक रहे हैं अपनी रोटियां

राष्ट्रवादी और न्यायप्रिय लोकसेवक जातिवादी लॉबी के सामने पूरी तरह लाचार

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अन्याय को रोकने के लिए किसी न्यायालय, राजनीतिक दल में नैतिक साहस नहीं

आरक्षित-सामान्य वर्ग के साथ धोखाधड़ी की अनुमति नहीं देता है भारतीय संविधान

सुरेश त्रिपाठी

पदोन्नति में आरक्षण की मांग करने वाले राजनेताओं और लोकसेवकों को उनके पद से बर्खास्त करके उनके विरुद्ध फौजदारी मुकदमे दर्ज कराने के संबंध में 12 जुलाई 2017 को ‘समता आंदोलन समिति’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पारासर नारायण शर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा है. उन्होंने इस पत्र में एक सटीक बात यह कही है कि पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के तहत दलितों को दलित बनाए रखने तथा देश को तोड़ने की साजिश की जा रही है. श्री शर्मा ने अपने इस लंबे पत्र में प्रधानमंत्री से विनम्र निवेदन करते हुए पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य उनके संज्ञान में लाने और उनसे उन्हें अवगत कराने का प्रयास किया है.

दलितों को दलित बनाए रखने की एक सोची-समझी साजिश है पदोन्नति में आरक्षण

यह तो सर्वविदित है कि पदोन्नति में आरक्षण दलितों को दलित बनाए रखने की एक सोची-समझी साजिश है. जहां संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत लोकसेवकों में दलित एवं पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर उनकी सामाजिक प्रगति में योगदान का एक प्रयास है, वहीं अनुच्छेद 16(4)(ए) के तहत पदोन्नति में आरक्षण दलितों को हमेशा के लिए दलित बनाए रखने की साजिश है. यह तो सर्वज्ञात है कि पदोन्नति में आरक्षण का लाभ तब तक नहीं दिया जा सकता, जा तक कि सरकारी नौकरी पाकर भी अगड़े और संपन्न हो चुके अजा/अजजा के लोकसेवकों को पिछड़ा न घोषित कर दिया जाए. जैसे ही उन्हें अनुच्छेद 16(4)(ए) का लाभ देने के लिए असत्य रूप से पिछड़ा माना जाता है, वैसे ही उन्हें और उनके वंशजों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुच्छेद 16(4)(ए) के तहत नौकरी में आरक्षण का लाभ अविधिक रुप से मिलता रहता है. सरकारी नौकरी प्राप्त अजा/अजजा के संपन्न बच्चों के सामने वंचित अजा/अजजा के बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में टिक नहीं पाते हैं, जिससे आजादी के 70 वर्षों के बाद भी आरक्षण का लाभ अजा/अजजा के केवल 5% लोगों तक ही पहुंच पाया है, जबकि इस वर्ग के 95% लोग आज तक आरक्षण के वाजिब लाभ से वंचित हैं. इससे पिछड़ा, आगे भी पिछड़ा ही बना रहेगा. इसका एकमात्र कारण पदोन्नति में आरक्षण की अन्यायपूर्ण, गैर-कानूनी एवं और असंवैधानिक व्यवस्था है.

पदोन्नति में आरक्षण के चलते अजा/अजजा के 30 करोड़ लोग आज भी आरक्षण के लाभ से वंचित

पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के कारण अजा/अजजा की लगभग 30 करोड़ जनसंख्या आरक्षण के लाभ से आज भी वंचित है. पूरे देश में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, केंद्रीय उपक्रम, राज्य उपक्रम, निगम, बोर्ड, स्वायत्तशासी संस्थाएं, बैंक इत्यादि में कुल मिलाकर लगभग दो करोड़ ऐसी नौकरियां हैं, जिनमें आरक्षण की व्यवस्था है. इनसे 22.5 प्रतिशत अर्थात 45 लाख पदों पर अजा/अजजा के लोकसेवक कार्यरत हैं. पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए इन 45 लाख अगड़े एवं संपन्न लोकसेवकों को पिछड़ा मानने से अनुच्छेद 16(4) के तहत नौकरी में आरक्षण का लाभ भी इन्हीं के बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हड़पते जा रहे हैं और देश की लगभग 30 करोड़ अजा/अजजा जनसंख्या को आज भी आरक्षण के लाभ से वंचित रखा गया है. यदि पदोन्नति में आरक्षण की अन्यायपूर्ण व्यवस्था नहीं होती, तो पिछले 70 वर्षों में लगभग दो करोड़ अजा/अजजा के बच्चों को सरकारी नौकरी मिल चुकी होती. दो करोड़ परिवार अर्थात 10 करोड़ (प्रति परिवार पांच व्यक्ति) अजा/अजजा की जनसंख्या तक आरक्षण का लाभ पहुंच चुका होता और वे संपन्न एवं अगड़े होकर देश की मुख्यधारा में शामिल हो चुके होते.

जातिवादी हैं अजा/अजजा वर्ग के केवल 45,500 राजनेता और लोकसवक

उपरोक्त 45 लाख अजा/अजजा के लोकसेवकों में 99 प्रतिशत लोग राष्ट्रवादी हैं, जो देश की मुख्यधारा में आना चाहते हैं और अजा/अजजा वर्ग के वंचित लोगों को आरक्षण का लाभ दिलाना चाहते हैं. लेकिन केवल एक प्रतिशत लोकसेवक अर्थात 45,500 से भी कम लोग ऐसे हैं, जो जातिवादी घृणा फैलाकर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकते हैं, न खुद काम करते हैं, न दूसरों को करने देते हैं. यही लोग देश की 30 करोड़ अजा/अजजा आबादी को लंबे समय तक पिछड़ा बनाए रखने की साजिश रचते रहते हैं और लोक प्रशासन में जातिवादी गुटबाजी को बढ़ावा देते हैं. इनका साथ कुछ जातिवादी सांसद एवं विधायक भी देते हैं, जिनकी संख्या पूरे देश में 500 से अधिक नहीं हैं. हालांकि अजा/अजजा के अधिकांश सांसद और विधायक विकासवादी राजनीति करना चाहते हैं और देश की मुख्य धारा में आना चाहते हैं. तथापि, अजा/अजजा की आरक्षित सीट से चुनकर आने में ये भारी घुटन महसूस कर रहे हैं, जबकि अजा/अजजा के वंचित तबके को आरक्षण और सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाकर ये जल्दी से जल्दी उन्हें संपन्न और अगड़ा बनाना चाहते हैं. लेकिन ऐसे राष्ट्रवादी सांसद उक्त 45,500 जातिवादी लोकसेवकों एवं 500 जातिवादी जन-प्रतिनिधियों के सामने कुछ बोल न पाने के कारण लाचार हैं. अतः पदोन्नति में आरक्षण की अन्यायपूर्ण व्यवस्था केवल 45,500 जातिवादी लोकसेवकों और राजनेताओं की साजिश के कारण ही चल रही है. केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ऐसे जातिवादी लोकसेवकों और राजनेताओं की पहचान किया जाना आवश्यक है तथा देशहित में इन्हें अलग-थलग करके चरणबद्ध तरीके से आरक्षण को तर्कसंगत बनाया जाना आवश्यक है.

नव-शोषक वर्ग (Neo-Exploiter Group) का उदय

पदोन्नति में आरक्षण की असंवैधानिक व्यवस्था के कारण पिछले 70 सालों में संपन्न एवं अगड़े आरक्षित वर्ग के लोगों का एक ‘नव-शोषक वर्ग’ तैयार हो गया है, जो आरक्षण एवं सरकारी योजनाओं का लाभ अब तक वंचित अजा/अजजा वर्ग तक पहुंचने ही नहीं दे रहा है. यह नव-शोषक वर्ग वर्षों से आरक्षण एवं पदोन्नति का सारा लाभ बीच में ही हड़प रहा है. इस प्रकार से यह नव-शोषक वर्ग वंचित अजा/अजजा के पिछड़ेपन और शोषण का कारण बन रहा है.

संख्यात्मक तुलना के बिना पदोन्नति में आरक्षण अविधिक, अन्यायपूर्ण और असंवैधानिक

संविधान की तीन अनिवार्य शर्तों का पालन संख्यात्मक आंकड़ों से किए बिना पदोन्नति में आरक्षण अविधिक, अन्यायपूर्ण और असंवैधानिक है. संवैधानिक प्रावधानों एवं सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठों के अनेक निर्णयों के प्रकाश में यह प्रामाणिक तथ्य है कि अनुच्छेद 16(4) एवं 16(4)(ए) के तहत क्रमशः सरकारी नौकरियों में आरक्षण एवं पदोन्नति में आरक्षण तभी दिया जा सकता है, जब कोई (अ) पिछडा हो (ब) उनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व हो तथा (स) उन्हें आरक्षण का लाभ देने पर सकल प्रशासनिक दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव (अनुच्छेद 335) नहीं पड़ता हो.

इसके अलावा यह भी सभी जानते हैं कि-

(अ) सरकारी नौकरी में आने के बाद कोई भी अजा/अजजा का व्यक्ति सामाजिक, शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा नहीं रहता है, उसके अधिकार, कर्तव्य, प्रतिष्ठा एवं संपन्नता सहित सभी प्राधिकार अन्य लोकसेवकों के समान हो जाते हैं.

(ब) स्वयं सरकारी आंकड़े ही इस बात के गवाह हैं कि सरकारी नौकरियों में अजा/अजजा वर्ग का प्रतिनिधित्व पर्याप्त ही नहीं, बल्कि अनुपातिक से भी कहीं अधिक हो गया है. कहीं-कहीं तो यह 80% से अधिक और कहीं 100% पदोन्नत पदों पर काबिज हो चुके हैं.

(स) यह भी प्रामाणिक तथ्य है कि पदोन्नति में आरक्षण से सकल प्रशासनिक दक्षता पर जबरदस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. लोकसेवकों की कर्मनिष्ठा, राष्ट्रभक्ति, ईमानदारी समाप्त हो है. कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका लाचार होती जा रही है.

(द) लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ प्रेस/मीडिया भी भ्रमित होकर अपनी विश्वसनीयता खो रहा है. देश में जातिगत वैमनस्यता और जातिवादी राजनीति पनप रही है. जातियों के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन हो रहा है. विकासवादी व्यवस्था पिछड़ रही है. सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है और देश जातिगत गृहयुद्ध की और बढ़ रहा है. देश के बिखरने का खतरा पैदा हो रहा है.

अतः उपरोक्त तथ्यों से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि अनुच्छेद 16(4)(ए) के अधीन पदोन्नति में आरक्षण के लिए अनिवार्य तीनों शर्तें किसी भी स्थिति में पूरी नहीं की जा सकती हैं. इन सभी तथ्यों को नीचे साक्ष्यों के साथ प्रमाणित किया गया है.

न्यायपालिका की लगातार अवमानना:

विधायिका, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों एवं कुछ न्यायाधीशों द्वारा पदोन्नति में आरक्षण के विषय में उपरोक्त वर्णित 45,500 जातिवादी लोकसेवकों एवं राजनेताओं के दवाब में आकर लगातार न्यायपालिका की अवमानना की जा रही है, उसे नीचा दिखाया जा रहा है, न्यायपालिका एवं संविधान के प्रति सवा सौ करोड़ देशवासियों की आस्था को ठेस पहुंचाई जा रही है, जो निम्न तथ्यों से स्पष्ट है-

(अ) इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार प्रकरण में दिए गए 9 सदस्यीय संविधान पीठ के निर्णय को संसद द्वारा 77वें संविधान संशोधन द्वारा पलटकर न्यायपालिका का अपमान किया गया- इंदिरा साहनी के प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा वर्ष 1992 (दि.16.11.1992) को पदोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक, अन्यायपूर्ण, भेदभावपूर्ण और संविधान की मूल भावना के विरूद्ध बताए जाने पर भी इस अविधिक, अन्यायपूर्ण व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया. बल्कि सर्वोच्च न्यायालय को नीचा दिखाते हुए जातिवादियों के दवाब में आकर दि. 17.06.1995 को 77वें संविधान संशोधन द्वारा इस निर्णय को पलट करके करोड़ों राष्ट्रवादी लोकसेवकों के साथ अन्याय किया गया.

(ब) आर. के. सभरवाल प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की लगातार अवहेलना की जा रही है- सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा आर. के. सभरवाल के प्रकरण में दिए गए निर्णय के अनुसार ‘पोस्ट बेस्ड रोस्टर विद इन-बिल्ट रिप्लेसमेंट’ का सिद्धांत लागू करके आरक्षित वर्ग के एससी/एसटी लोकसेवकों की संख्या 15% और 7.5% तक सीमित रखने का आदेश केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा वर्ष 1997 में जारी तो कर दिए गए, लेकिन इनका अनुपालन कहीं भी सुनिश्चित नहीं किया गया. इस आदेश की खुली अवहेलना हो रही है. तरह-तरह के अविधिक कारणों से आरक्षित एससी/एसटी वर्ग को 15% और 7.5% से अधिक पदों पर पदोन्नति दी जा रही है. अनेक संवर्गों के पदोन्नत पदों पर आरक्षित वर्ग के एससी/एसटी के लोग 80% से 100% पदों पर काबिज हैं. पूरे देश में सैंकड़ों याचिकाएं लंबित हैं. सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय को हाथ में लिए राष्ट्रवादी और न्यायप्रिय लोकसेवक दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन उपरोक्त जातिवादी लॉबी के सामने पूरी तरह लाचार हैं.

(स) न्यायपालिका द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण सीमा के निर्णय को भी 81वें संविधान संशोधन द्वारा पलटा गया- सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठों द्वारा इंदिरा साहनी एवं आर. के. सभरवाल आदि के अनेक प्रकरणों में जो आरक्षण की 50% अधिकतम सीमा निर्धारित की गयी थी, उन निर्णयों को प्रभावहीन करने के लिए संविधान में पुनः 81वां संशोधन करके नया अनुच्छेद 16(4)(बी) जोड़ा गया तथा अजा/अजजा के कथित बैकलॉग पदों को 50% की अधिकतम सीमा से मुक्त करके जातिवादियों के दबाव में आकर एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय को नीचा दिखाया गया.

(द) 82वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 335 में दिए सकल प्रशासनिक दक्षता की सुरक्षा संबंधी न्यायिक निर्णय को भी पलट दिया गया- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लोक-प्रशासन की दक्षता बनाए रखने और अनुच्छेद 335 के प्रावधानों का ध्यान रखते हुए पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने के निर्देश दिए गए, तो भी जातिवादियों के दवाब में आकर न्यायपालिका का पुनः अपमान करते हुए अनुच्छेद 335 में 82वें संविधान संशोधन द्वारा ‘परंतुक’ जोड़कर पदोन्नति प्रक्रिया की पात्रता शर्तों में केवल जाति के आधार पर शिथिलता का प्रावधान कर दिया गया. इस संशोधन से विभिन्न सेवा-नियमों में निर्धारित योग्यता नहीं रखने, अनुभवहीनता, विभागीय परीक्षाओं में फेल हो जाने वाले अजा/अजजा के अयोग्य लोकसेवक भी पदोन्नत होते जा रहे हैं, जिससे योग्य, कर्मठ, अनुभवी, राष्ट्रवादी लोकसेवक हताश, निराश हैं और अब यह मानने लगे हैं कि भारतीय न्यायपालिका जातिवादी राजनेताओं की लॉबी के सामने राष्ट्रवादी पीड़ित नागरिकों को न्याय दिलाने में अक्षम होती जा रही है.

(य) 85वें संविधान संशोधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के अनेक निर्णयों को पलटते हुए परिणामिक वरिष्ठता का अन्यायपूर्ण प्रावधान जोड़कर न्यायपालिका का पुनः अपमान किया गया- इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एम. जी. वडनपावर, अजीत सिंह जुनेजा-प्रथम, अजीत सिंह जुनेजा-द्वितीय आदि प्रकरणों में जो निर्णय दिए गए, उन्हें भी पलटने के लिए संविधान में पुनः 85वां संशोधन करके जातिवादियों को खुश किया गया और राष्ट्रवादी लोकसेवकों पर अत्याचार करते हुए पहले से ही अविधिक और असंवैधानिक पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के साथ पारिणामिक वरिष्ठता का प्रावधान भी जोड़ दिया गया. इस प्रकार न्यायपालिका को पुनः अपमानित और शर्मशार किया गया.

(र) यूपीए सरकार की तरह एनडीए सरकार भी न्यायपालिका को पुनः अपमानित करते हुए अपने करोड़ों राष्ट्रवादी मतदाताओं से विश्वासघात की तैयारी कर रही है- दि. 19.10.2006 को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा एम. नागराज के प्रकरण में जो निर्णय दिया गया, उसे भी केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा 10 साल बाद भी लागू नहीं किया गया है. आरटीआई आवेदन के जवाब में केंद्र सरकार सूचित कर रही है कि अभी यह निर्णय ‘विचाराधीन’ है. इस फैसले को लागू करवाने के लिए पूरे देश में विभिन्न कैट, हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में सैंकड़ों याचिकाएं लंबित हैं. लाखों राष्ट्रवादी कर्मठ लोकसेवक पूरी तरह पात्र होते हुए भी बिना पदोन्नतियों के ही सेवानिवृत हो रहे हैं. उनकी जगह अपात्र अजा/अजजा के लोकसेवकों को सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय की अवहेलना करते हुए पदोन्नतियां दी जा रही हैं. पुनः जातिवादियों के दवाब में वर्ष 2012 में यूपीए सरकार 117वां संविधान संशोधन बिल लेकर आई, जिसका जबरदस्त विरोध हुआ. अब केंद्र की वर्तमान एनडीए सरकार भी उक्त जातिवादियों से घबराकर देश के करोड़ों राष्ट्रवादी मतदाताओं से विश्वासघात करते हुए संविधान संशोधन करके एम. नागराज के निर्णय को पलटकर सर्वोच्च न्यायालय को पुनः अपमानित करने की तैयारी कर रही है. क्रमशः

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