जाति की पहेली—वाया बिहार-पश्चिम बंगाल..
हम जापान को पछाड़ते हुए चौथी अर्थव्यवस्था तो अवश्य हो गए, लेकिन प्रति व्यक्ति आय (जीडीपी) में तो सबसे गरीब देश में ही शामिल हैं। एक प्रतिशत लोगों के पास लगभग 45 प्रतिशत देश का पैसा है!
बैंगलोर डायरी—प्रेमपाल शर्मा
चलो पहले बिहार से ही शुरू करते हैं। मेरे जैसे यूपीयन अर्थात यूपी वाले से मिलता जुलता जो है। अर्बन कंपनी से आया नौजवान घर का टॉयलेट साफ कर रहा है। काम खत्म करने के बाद उत्तर भारतीय स्टाइल में खुद ही मुस्कराकर बोला, “हम भी शर्मा हैं!” आप कहां से हैं?”
दिल्ली से..! मैंने बताया।
उसने तुरंत कहा, “मैं बिहार से हूँ!”
बस सिलसिला शुरू हो गया… “दस साल हो गए मुझे बीएससी किए.. तीन साल पटना में रहा.. कोचिंग की.. पुलिस, एसएससी, रेलवे, आर्मी सब की.. मुझे बैंगलोर में पांच साल होने को आ रहे हैं.. मैं कार्पेंटरी और बढ़ई का काम भी जानता हूँ। शुरू में यहां वही काम किया, लेकिन अब मुझे यह काम ज्यादा अच्छा लगता है। अपना सामान लेकर आते हैं कंपनी से। साफ-सुथरा काम है। यहां शहरों के टॉयलेट कोई ज्यादा गंदे थोड़े ही होते हैं! शनिवार-इतवार को तो कभी-कभी ₹5000 भी कमा लेता हूं। महीने में 35000 तक, और सबसे अच्छी बात जिन घरों में जाते हैं वे सभी अच्छा बोलते हैं! अब मैंने पत्नी को भी बुला लिया है। वह भी घरों में खाना बनाने का काम करने लगी है।”
लेकिन आप तो ब्राह्मण हैं, पंडित हैं! फिर ये टॉयलेट साफ करने का काम? मैंने पूछा।
“पेट कैसे भरेंगे साहब? बिहार में बढ़ई के काम के अलावा जो दूसरे मजदूरी के काम होते हैं, वो और भी मुश्किल होते हैं और कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। आखिर पेट तो भरना है ना साहब।” उसने अपने ही अंदाज में कहा।
मेरा लंबी बात करने का मन है, लेकिन उसका मोबाइल बजे जा रहा है। “अगले कस्टमर के घर तुरंत पहुंचना है सर..” अंततः यह कहते हुए वह चला जाता है।
इधर मेरे दिमाग में कई प्रश्न कुलबुलाने लगते हैं। बिहार में जाति की गणना होगी, तो इसको क्या लिखना चाहिए? ब्राह्मण या जमादार या बढ़ई? जन्म से तो यह सवर्ण है, लेकिन फिलहाल कर्म से दलित-हरिजन माने जाने वाले काम कर रहा है! क्या इसे इनमें से अपनी कोई भी जाति लिखने से कोई मना कर सकता है? कर्नाटक में भी यही प्रश्न कर्नाटक सरकार को जाति के आंकड़ों को सार्वजनिक करने से रोक रहा है।
कर्नाटक, तमिलनाडु या दक्षिण के राज्य अपनी समृद्धि के बूते उत्तर भारत के गरीबों के लिए कुछ तो पेट भरने का मौका दे रहे हैं। जाति की जकड़न अवश्य बनी हुई है, लेकिन आर्थिक मजबूरियाँ उन जंजीरों को तोड़ भी रही हैं। क्या शर्मा-शुक्ला-तिवारी बिहार-यूपी या उत्तर भारत में टॉयलेट साफ करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? खुद अपनी बनाई व्यवस्था की जकड़न और अकड़ के चलते!
जहां खाना बनाने वाली को रखने से पहले उसकी जाति पूछी जाती हो! ब्राह्मण नाम की जाति को माथे पर चिपककर क्या हासिल होगा? और तो और, भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में चुनी गई लड़की या लड़का अपने ही जाति में वर-वधु तलाश रहा है।
हाल ही में भारतीय वन सेवा की एक अनुसूचित जाति (एससी) की लड़की ने जाति पता होते ही ओबीसी लड़के को मना कर दिया.. क्या शहरीकरण ही भारत की जाति व्यवस्था को तोड़ने का विकल्प नहीं है! बाबा साहब ठीक ही थे, “ग्रामीण व्यवस्था जाति को नहीं खत्म होने देगी।” लेकिन 75 साल बाद हम इन तथ्यों से क्यों मुंह मोड़ रहे हैं कि आर्थिक स्थिति पूरे समाज के विकास के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष साबित हो सकती है, बजाय अकेली जाति और गोत्र के।
जब मुख्य न्यायाधीश तक ने हाल में कहा, “मेरे बच्चे को वह सुविधा नहीं मिलनी चाहिए जो एक अंतिम गरीब आदमी को मिलती है।” गांधी का चेहरा भी उभरता है, जो डिग्निटी ऑफ लेबर के पर्याय हैं और उन्होंने पत्नी कस्तूरबा को दक्षिण अफ्रीका में टॉयलेट साफ करने के लिए मजबूर किया था और अपना टॉयलेट स्वयं साफ करने का यही सिद्धांत साबरमती आश्रम से लेकर गांधी के सभी आश्रमों पर लागू रहा।
याद कीजिए उन दिनों तो शुष्क शौचालय होते थे—स्वच्छ भारत की बदौलत देश में कम से कम 10 करोड़ शौचालय बनाने से कुछ तो राहत मिली है—और फ्लश वाले शहरी टॉयलेट में तो कुछ ज्यादा करना भी नहीं पड़ता। लेकिन इन अमीरों ने रसोई से लेकर शौचालय तक हर काम अर्बन कंपनियों के हवाले कर दिया है। कुछ शान और बाकी ऑन! कुछ-कुछ ठीक भी है यह। कम से कम इन अमीरों का कुछ पैसा तो इन गरीबों तक पहुंच ही रहा है। और विशेषकर उत्तर भारतीयों के पास।
जाने-माने अर्थशास्त्री भगवती का सिद्धांत भी सच हो रहा है कि अमीरी ऊपर से रिसकर नीचे तक पहुंचेगी। हालांकि उतनी पहुंच नहीं रही जैसा कि इसी हफ्ते के पोल बता रहे हैं। हम जापान को पछाड़ते हुए चौथी अर्थव्यवस्था तो अवश्य हो गए, लेकिन प्रति व्यक्ति आय (जीडीपी) में तो सबसे गरीब देश में ही शामिल हैं। एक प्रतिशत लोगों के पास लगभग 45 प्रतिशत देश का पैसा है।
खैर, शर्मा जी टॉयलेट साफ करके जरूर चले गए हैं, लेकिन मेरे और देश के सामने कई प्रश्न छोड़ गए हैं-साफ करने के लिए..!
पश्चिम बंगाल पर अगली बार!
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