पिछले एक साल के दौरान डिस्चार्ज/अवार्डेड टेंडर्स की होनी चाहिए विजिलेंस जांच
निर्धारित टेंडर फ़ॉर्मेट के अनुसार चेक नहीं किए जाते हैं पार्टनर्स के क्रेडेंशियल्स/डिटेल्स
पैन कार्ड, बैलेंस शीट और आईटीआर में दर्ज होते हैं कंपनियों/फर्मों के अलग-अलग नाम
अधिकारियों की जानकारी में कॉन्ट्रैक्टर्स द्वारा पार्टनरशिप चेंज करके लिए जा रहे हैं टेंडर
निर्धारित योग्यता पूरी न करने वाली फर्मों को छद्म तर्कों के आधार पर ठहराया जा रहा है योग्य
बिड कैपेसिटी, कास्ट कटिंग और इकॉनोमी डिजाइन के नाम पर हो रहा है संरक्षा के साथ खिलवाड़
सुरेश त्रिपाठी
जब से जोनल रेलों के वित्तीय अधिकार बढ़ाए गए हैं, तब से कुछ जोनल अधिकारियों में निजी स्वार्थवश टेंडर्स में अपनी चहेती फर्मों को योग्य ठहराने और किसी भी तरह उन्हें टेंडर देने की होड़ लगी हुई है. यदि किसी कारणवश उनकी मन-माफिक फर्म को टेंडर नहीं मिल पाता है, तो वह उक्त टेंडर को किसी न किसी कुतर्क के जरिए निरस्त करने से भी नहीं हिचक रहे हैं. इससे भारतीय रेल को न सिर्फ सालाना करोड़ों रुपए का नुकसान हो रहा है, बल्कि कीमती समय भी बरबाद हो रहा है और निर्धारित अवधि में कार्य तथा परियोजनाएं भी पूरी नहीं हो पा रही हैं.
उत्तर रेलवे एवं पश्चिम रेलवे सहित कुछ अन्य जोनल रेलों के ओपन लाइन एवं निर्माण संगठन में काम कर रहे कई कॉन्ट्रैक्टर्स ने ‘रेलवे समाचार’ के साथ एक बातचीत में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि यदि पिछले एक साल के दौरन सिर्फ उत्तर रेलवे निर्माण संगठन द्वारा रद्द एवं जारी (डिस्चार्ज/अवार्डेड) किए गए विभिन्न टेंडर्स की जांच सीवीसी के मार्गदर्शन में सीबीआई एवं विजिलेंस से कराई जाए, तो उनमें रेलवे को सैकड़ों करोड़ रुपए के नुकसान की सच्चाई उजागर हो सकती है. उन्होंने यह भी कहा कि सीएजी ने भी अपनी हाल ही की रिपोर्ट में इसी बात का खुलासा किया है. उन्होंने बताया कि संबंधित अधिकारियों द्वारा फाइनेंसियल बिड एवं रेट्स ओपन होने के बाद भी टेंडर रद्द कर दिया जाता है. उन्होंने कहा कि इस तरह से संबंधित अधिकारियों द्वारा टेंडरर्स के साथ मजाक और रेलवे के साथ एक बहुत बड़ा फ्रॉड किया जा रहा है.
कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना था कि पिछले एक साल के दौरान डिस्चार्ज्ड/अवार्डेड टेंडर्स की जांच सीबीआई/विजलेंस से इसलिए भी कराई जानी चाहिए, क्योंकि कार्यरत एवं बिना कार्यरत सभी एजेंसियों के ऐसे लगभग सभी टेंडर्स निर्धारित फ़ॉर्मेट पर उनके क्रेडेंशियल्स की जांच (वेरिफिकेशन) किए बिना ही रद्द अथवा अवार्ड किए गए हैं. उनका कहना है कि कई फर्मों के नाम उनके पैन कार्ड, बैलेंस शीट और आईटीआर में अलग-अलग होते हैं, तथापि उन्हें जानबूझकर संबंधित अधिकारियों द्वारा इसलिए नजरअंदाज कर दिया जाता है, क्योंकि वे ऐसा करके वास्तव में अयोग्य फर्मों का फेवर कर रहे होते हैं.
कुछ कॉन्ट्रैक्टर्स ने बताया कि उत्तर रेलवे में ‘बिड कैपेसिटी’ के नाम पर भी भारी फ्रॉड और घोटाला हो रहा है. उनका कहना है कि यह सब संबंधित अधिकारियों की मिलीभगत से हो रहा है, जो कि एक तरफ अपने कुछ चहेते कॉन्ट्रैक्टर्स को ‘ओब्लाइज’ कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ टेंडरिंग में कम्पटीशन को सीमित करके रेलवे को भारी वित्तीय नुकसान पहुंचा रहे हैं. उन्होंने बताया कि उत्तर रेलवे निर्माण संगठन द्वारा एक आतंरिक नोट निकालकर 20 करोड़ से कम लागत वाले टेंडर्स में बिड कैपेसिटी को खत्म कर दी गई, जिससे सीमित कम्पटीशन होने के कारण रेट्स प्रभावित हुए हैं. इस प्रकार रेलवे को ज्यादा कीमत का भुगतान करना पड़ रहा है. उनका कहना है कि यदि संबंधित अधिकारियों को ऐसा लगता है कि बिड कैपेसिटी सीमित न होने से हाई रेट्स देने पड़ रहे हैं, तो इसी के मद्देनजर ऐसे सभी अवार्डेड टेंडर्स को भी रद्द कर दिया जाना चाहिए. उनका यह भी कहना है कि कथित ‘बिड कैपेसिटी’ के संबंध में अब तक रेलवे बोर्ड की भी कोई गाइडलाइन्स नहीं हैं, यदि वह हैं भी, तो उन्हें नहीं दी जा रही हैं.
उन्होंने बताया कि कई बार ऐसा भी हो रहा है कि जिस चहेते कांट्रेक्टर को हाई रेट्स पर 20 करोड़ से कम लागत वाला टेंडर देने के लिए बिड कैपेसिटी को खत्म किया गया था, उसी कांट्रेक्टर को पुनः ओब्लाइज करने के लिए ऐसा ही कोई अन्य खेल किया जाता है, चूंकि वह बिड कैपेसिटी खत्म किए जाने के बावजूद टेंडर्स में पार्टिसिपेट करने में इसलिए अक्षम रहता है, क्योंकि उसकी पर्याप्त फाइनेंसियल कैपेसिटी ही नहीं होती है.
उन्होंने बताया कि पश्चिम रेलवे निर्माण संगठन के एक लगभग 10 करोड़ के टेंडर में एल-1 फर्म ने पूर्व निर्धारित शर्तों के अनुसार अपने पहले के किए गए कार्यों के संबंधित कागजात टेंडर के साथ प्रमाण स्वरूप जमा नहीं कराए. टेंडर की शर्त के अनुसार टेंडर खुलने के बाद ऐसा कोई प्रमाण या कागजात मान्य नहीं था और संबंधित फर्म स्वतः अयोग्य हो जाती है. प्राप्त जानकारी के अनुसार आज भी उक्त फर्म के संबंधित कागजात टीसी फाइल में उपलब्ध नहीं हैं, मगर अधिकारियों का कहना (कुतर्क) यह है कि उक्त फर्म के संबंधित कागजात उनके यहां उसके द्वारा पहले किए गए कार्य की फाइल में मौजूद हैं.
कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है कि यदि अधिकारियों का यह तर्क मान लिया जाए, तो फिर अधिकांश कांट्रेक्ट फर्मों को टेंडर्स के साथ कोई भी कागजात प्रमाण स्वरूप जमा कराने की जरुरत ही नहीं रह जाएगी, क्योंकि उनके कागजात भी सभी जगह मौजूद हैं. टेंडर शर्त के अनुसार यह कार्य दो महीनों में किया जाना था, जबकि एल-1 फर्म ने इसके लिए छह महीनों की शर्त के साथ लोएस्ट बिडिंग की है. सशर्त टेंडर डालने पर कोई भी फर्म वैसे ही अयोग्य हो जाती है. जबकि यहां इसका फेवर किया गया है. कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है कि यदि छह महीनों की अवधि दी जाती, तो इसकी कास्ट वैसे ही कम हो जाती. उनका कहना है कि संबंधित अधिकारियों द्वारा यह सारा घालमेल और मनमानी निजी स्वार्थवश अपनी चहेती फर्मों को योग्य ठहराने तथा लाभ पहुंचाने के लिए की जा रही है.